History of Ayodhya: श्री राम जन्मभूमि और बाबरी मस्जिद विध्वंस कांड इस सदी की प्रमुखतम महत्त्वपूर्ण धार्मिक-राजनैतिक घटना मानी जाती है लेकिन सच तो यह है कि अयोध्या, जिसका अर्थ ही है ‘वह स्थल जिसके विरूद्ध कभी युद्ध न किया जा सके, उसका हृदय स्थल सदियों से ध्वंस एवं निर्माण का इतिहास रचते रहे हैं।
कल कल बहती सरयू के जल में अटखेलियां करती नावों की लम्बी सी पंक्ति, किनारे दूर-दूर तक फैले घाटों की सीढ़ियों पर पूजा-अर्चना के उपक्रम में लगे साधु एवं गृहस्थ और सरयू किनारे बने ढेर सारे प्राचीन मंदिरों से उठकर नदी की लहरों से टकराती घंटो-घंटियों की मधुर ध्वनि, सचमुच अयोध्या का नैसर्गिक सौन्दर्य 1992 के बाबरी मस्जिद काण्ड के बाद भी फीका नहीं पड़ा है।
उत्तर प्रदेश के फैजाबाद जिले में बसी, अवध प्रदेश की इस प्राचीन राजधानी, मुस्लिम काल में अवध प्रान्त के गवर्नर की सीट रह चुकी अयोध्या को गौतम बुद्ध के काल में तत्कालीन पाली भाषा में अयोझा कहा जाता था।
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इतिहास की बात करें तो 127 ईसवीं में कुणाल वंश के सफल शासक कनिष्क ने साकेत नाम से प्रसिद्ध इस अयोध्या नगरी पर विजय प्राप्त की और इसे अपनी पूर्वी राजसत्ता का प्रशासनिक केन्द्र बनाया था लेकिन पौराणिक दृष्टि से राजा मनु द्वारा निर्मित राजधानी के रूप में प्रतिष्ठित यह नगरी सूर्यवंशीय राजाओं द्वारा शासित विश्व की प्राचीनतम हिन्दू नगरियों में से एक थी। इसे मोक्षदायिनी नगरी का सम्मान प्राप्त था। इस नगरी का क्षेत्रफल 250 कि.मी. तक फैला हआ था। राजा दशरथ सूर्यवंशीय पीढ़ी के 63वें शासक थे, जिनके घर श्रीराम का जन्म हुआ, जिन्हें विष्णु का 7 वां अवतार माना गया।
जैन धर्म के प्रवर्तक ऋषभदेव सहित यह 5 तीर्थकरों की जन्मभूमि भी मानी जाती है। मौर्य एवं गुप्त साम्राज्य-काल में यहां कई बौद्ध मंदिरों के होने के प्रमाण भी मिलते हैं। स्वामीनारायण सम्प्रदाय के संस्थापक स्वामीनारायण जी का बचपन भी इसी नगरी में बीता और उन्होने नीलकंठ के रूप में अपनी 7 वर्षीय यात्रा यहीं से प्रारम्भ की। 600 ईसा पूर्व यह नगरी व्यापार का प्रमुख केन्द्र थी। यह स्थल बौद्ध धर्म का केन्द्र भी रहा और यहां गौतम बुद्ध का कई बार आगमन हुआ। फाहियान ने यहां बौद्ध धर्म का जिक्र किया है। भारत के प्रथम चक्रवर्ती राजा भरत एवं सत्यवादी राजा हरिशचन्द्र भी इसी नगरी में जन्में।

तथ्यों के अनुसार अवध के तत्कालीन नवाव ने 10 वीं शताब्दी में यह भूमि दान में दी और उसके ही एक हिन्दू दरबारी ने इस मन्दिर का निर्माण करवाया। बाद में अंग्रेजी शासन काल में नवाव मंसूर अली ने अपने दरबारी टिकैत राय के द्वारा इसे गढ़ी (किले जैसा) रूप दिया। जन मान्यता है कि जन्मभूमि अथवा रामकोट की रक्षार्थ पवनपुत्र हनुमान यहां सूक्ष्म रूप में निवास करते हैं।
इसमें रामघाट महत्त्वपूर्ण है। रामनवमी अर्थात् श्री राम अवतरण दिवस पर यहां स्नान अत्यन्त पुण्य दायक माना जाता है। सभी नर, नाग, यक्ष, गन्धर्व एवं देव सूक्ष्म रूप में इस अवसर पर यहां स्नान कर श्री राम के भव्य स्वरूप का दर्शन पाते हैं, ऐसा विश्वास जन-जन में व्याप्त है। गुरू वशिष्ट ने भी इस पर्व के स्नान को मोक्षदायी स्नान बताया है। प्रत्येक वर्ष कार्तिक शुक्ल नवमी को लगने वाली चौदह कोसी परिक्रमा एवं कार्तिक शुल्क एकादशी को लगने वाली पंचकोसी-परिक्रमा के बाद यहां स्नान की सदियों पुरानी परम्परा है।
लेकिन इस घाट के अतिरिक्त अन्य महत्त्वपूर्ण घाटों में कंचन भवन के पास ऋणमोचन घाट, जहां स्नान कर ऋण न चुकाने के पाप से मुक्ति मिल जाती है, ऋणमोचन घाट के दक्षिण में राजघाट जहां प्रसेनजीत के राजकाल में कल्पमुनि का आश्रम था और जहां निकट ही बने ऋषभदेव उद्यान में जैन धर्म के प्रवर्तक ऋषभदेव की प्रतिमा स्थापित की गई है प्रमुख है। लक्ष्मण घाट के पश्चिम में गोला घाट जहां माघकृष्ण चतुर्दशी का स्नान कुसंग जनित पाप से मुक्ति दिलाता है और लक्ष्मण घाट जिसे सहस्त्र धारा वाला घाट माना जाता है सर्वाधिक उल्लेखनीय घाट हैं। लक्ष्मण घाट के निकट ही एक छोटा सा किला भी है जिसे लक्ष्मण किला कहा जाता है और रीवा के दीवान दीनबन्धु द्वारा बनवाया आकर्षक मन्दिर भी है।
1984-85 में कुंभ आदि के महापर्वों पर ऋद्धालुओं की बढ़ती संख्या देखते हए एक व्रहद पक्के घाट का निर्माण भी उ.प. सरकार द्वारा करवाया गया जिसमें पम्पसेटों द्वारा सरयू का जल ही आता रहता है। इसे राम की पैड़ी नाम दिया गया। लेकिन आज भी सामान्य रूप में श्रद्धालु परम्परागत घाटों पर स्नान को प्राथमिकता देते हैं। सारे अन्य तीर्थस्थलों के समान यहां भी पण्डों की बहुतायत है और श्रद्धालुजनों से उनकी पीढ़ी दर पीढ़ी चली आ रहीं परम्परा कायम भी है।
इतिहास गवाह है कि मौर्य शासनकाल के दौरान जब बौद्ध धर्म का प्रभाव अपनी चरम सीमा पर था, एक तिरिक राजा मिरान्दा बौद्ध भिक्षु का भेष बदलकर आया और फिर उसने अयोध्या पर धोखे से आक्रमण कर न केवल अयोध्या पर अधिकार कर लिया वरन श्रीराम जन्मस्थल पर बने मन्दिर को भी ध्वस्त कर डाला। लगभग 150 ईसा पूर्व यह इस मंदिर पर प्रथम आधिकारिक आक्रमण था लेकिन 3 माह बाद ही शुगवंशीय राजा द्युमुत सेन से मिरान्दा पराजित हुआ और मारा गया। अयोध्या स्वतंत्र हो गयी और विक्रमादित्य द्वारा इस मंदिर का पुननिर्माण कराया गया। इतिहास में विक्रमादित्य नाम के छ: राजाओं का उल्लेख है। इनमें से यह मंदिर किस विक्रमादित्य ने बनवाया, इस पर इतिहासकार एक मत नहीं है। किन्तु यह सभी मानते हैं कि विक्रमादित्य ने न केवल यह मंदिर वरन अन्य 360 मंदिरों का निर्माण भा कराया।
इस सन्दर्भ में एक उल्लेखनीय तथ्य यह भी है कि श्रीराम को विष्णु के अवतार के रूप में ईसा से शताब्दी पूर्व ही प्रतिष्ठा मिली। चौथी शताब्दी के प्राप्त शिलालेखों में राम का वर्णन विष्णु अवतार के रूप में किया गया है। बाद में साहित्यकारों ने श्रीराम को विष्णु अवतार मानते हुए अनेक ग्रन्थों की रचना की।
कालिदास का रघुवंश इसका महत्त्वपूर्ण उदाहरण है। संस्कृत कवि भास ने श्री राम को अर्चना अवतार काव्य-ग्रन्थ में जोड़ा। इस बात के भी प्रमाण मौजूद हैं कि 12 वीं शताब्दी में अर्थात् बाबर के आक्रमण से तीन शताब्दी पूर्व अयोध्या में 5 प्रमुख मंदिर मौजूद थे जिनमें भारत भर के श्रद्धालु पूजा-अर्चना हेतु आते थे। ये थे गोपताहार का गप्त हरी मंदिर, स्वर्गद्वार हार का चन्द्रहरी मंदिर, चक्रतीर्थ हार का विष्णुहरी मंदिर, स्वर्गद्वार का धर्महरी मंदिर एवं जन्मभूमि स्थल का विष्णु मंदिर।
12 वीं या 13 वीं शताब्दी में लिखे गये ग्रन्थ अयोध्या महात्मय में इन सब का एवं रामनवमी पर अयोध्या आकर स्नान-दर्शन
