ऐसी कौन-सी शक्ति है जो हमको जन्म देती है और कौन-सी ऐसी शक्ति है, जिसने हमें जन्म देने वाली मां को भी जन्म दिया। स्वभावतया मनुष्य अपनी तीन या अधिक से अधिक पांच पीढ़ियों को याद रखता है। इसलिए पितृ तर्पण के समय भी तीन पीढ़ियों का ही तर्पण होता है। इसके बाद एक श्रंृखला ऐसी आती है कि आदमी को अपने वंश और इतिहास का ही पता नहीं होता। प्रश्नों का उत्तर देते हुए जब हम निरुत्तर हो जाएं वहां से शक्ति का अनुभव होता है।

शक्ति के नाना रूप हैं वह परमेश्वर की भी शक्ति है, देवों के देव की भी शक्ति है, ब्रह्मï, विष्णु, महेश, राम और कृष्ण की शक्ति भी शक्ति में निहित है, कालों के काल और सृष्टि को संचालित करने वाली देवी ही प्रकृति स्वरूपा शक्ति है। शक्ति और शक्तिमान अलग-अलग नहीं है। उसको आप किसी भी स्थिति में अनुभव कर सकते हैं। चाहे शंकर पार्वती के रूप में हो या माता-पिता के रूप में। कभी विचार कीजिये कि आपको जीवन जीने और कार्य करने के लिए ऊर्जा कहां से मिलती है। कौन महाशक्ति है जो आपके हृदय में इच्छाएं जगाती है और उन्हें मार भी देती है? रात को सोकर आप कैसे सुबह एक नए उत्साह के साथ कार्य करने के लिए उत्प्रेरित हो जाते हैं? इन सारे प्रश्नों का उत्तर किसी विज्ञान की किताब में नहीं मिलेगा। मां के कदमों में ही आपको इस्लाम के मुताबिक जन्नत और हिन्दू धर्म के अनुसार स्वर्ग की प्राप्ति होगी। इसलिए मां के स्वरूप को सभी धर्मों ने स्वीकार किया है।

चैत्र शुक्ल पक्ष के नवरात्र महोत्सव भी हमको देवी भगवती के विशाल स्वरूप और शक्ति का अनुभव कराते हैं। सृष्टि के प्रारंभ में चार वर्णों के लिए चार ही त्योहारों की व्यवस्था थी। रक्षा बंधन, विजयदशमी, दिवाली और होली। इन चारों ही त्योहारों की श्रंखला में शक्ति का भाव है। मर्यादा, शील, आचरण और नारी पहला धर्म और कर्म माना गया है। पुरुष के लिए तय किया गया कि वह नारी की रक्षा करेगा। विजयदशमी पर शास्त्रों की पूजा होती है और अपराजिता नक्षत्र में असुरता के नाश का संकल्प लिया जाता है। इसलिए समाज और राष्ट की शक्ति उसकी आर्थिक उन्नति में होती है। व्यवस्था के विकेन्द्रीकरण का नाम ही शक्ति की पूजा है।

इसी में विद्या, तप, ज्ञान, आचरण, शील, क्षमा, दान, दया आदि महाविद्या समाहित है। दस महामाया कही गई हैं। यही शक्ति है। देवी का अर्थ होता है प्रकाशित करने वाला। वेदांत दर्शन के अनुसार जगत माया से प्रकाशित होता है। वह माया ब्रह्मï की अनिवर्चनीय शक्ति है। सांख्य दर्शन में इसी को प्रकृति कहा गया है। प्रकृति के तीन रूप सत्, रज और तम ही ब्रह्मï, विष्णु और महेश के त्रिगुणात्मक है अर्थात् उत्पन्न पालन और संहार।

देवी के नौ स्वरूपों का प्रारंभ ही शैलपुत्री यानी प्रकृति की आराधना से होता है। ब्रह्मïचारिणी, चन्द्रघंटा, कुष्मांडा, स्कंदमाता, कात्यायनी, कालरात्रि, महागौरी और सिद्घिदात्री के रूपों में ही शक्ति का ही आवाहन किया जाता है। देवी भागवत और अथर्ववेद में देवी स्वयं कहती हैं- मैं ही सृष्टि, मैं ही समष्टि, मैं ही ब्रह्मï, मैं ही परब्रह्म, मैं ही जड़, मैं ही चेतन, मैं ही स्थल, मैं ही विशाल, मैं ही निद्रा, मैं ही चेतना हूं। मेरे से ही सारा जगत उत्पन्न हुआ है और मैं ही इसके काल का कारण बनूंगा। मेरे से पृथक कोई नहीं। मैं सबसे पृथक हूं।

जो संसार को आलोकित करे, जो गुणों को अभिव्यक्ति दे, जो काल को वश में करे, जो मानवमात्र का हित करे, वह मां भवानी हम सभी के घर, परिवार समाज और राष्ट में है। नारी के सम्मान का सबसे बड़ा उदाहरण क्या होगा कि भारतीय संस्कृति अपने नए साल (संवत्सर) का शुभारंभ ही नारी शक्ति की आराधना से करती है। किसी भी संस्कृति में नारी को समर्पित, साल में दो महोत्सव (नवरात्र) नहीं होते।

पूजा का विधि-विद्यान : देवी मंडप में संयम, नियम और विचारों को एकाग्र करके कलश की स्थापना करें। देवान्न, नारियल, चुनरी, जौ और तिल से देवी की आराधना करें। ‘या देवी सर्वभुतेषु विष्णु मायेति शब्दिता नमस्तयै, नमस्तयै, नमस्तयै नमो नम:’ या ‘ऊं श्रीं हीं क्लिं चामुण्डायै विच्चे स्वाहा’ के मंत्र के देवी मंडप में कलश की स्थापना करें। विद्यार्थी मां सरस्वती का ध्यान करें। धन प्राप्ति के लिए मां लक्ष्मी की आराधना के साथ प्रतिदिन मां भवानी की ज्योत करें। इस पर्व में एक बार फलाहार करने का नियम है, इच्छाशक्ति के साथ प्रथम और सप्तमी का व्रत भी किया जा सकता है। इसमें सरसों के तेल का अखंड दीप जलाकर काले तिल से मां काली का पूजन करें। जिन राशियों पर शनि का प्रकोप है, उनके लिए यह पूजा लाभप्रद होगी। अगर दुर्गा सप्तशती का पूरा पाठ न कर पाएं, तो प्रथम, चौथे, छठे व सातवें अध्याय का पाठ करें। यह भी न कर पाएं, तो देवी कवच, अर्गलास्तोत्रम् व कीलकम् का पाठ करें। ये श्लोक भी पढ़िए-

‘ऊं ऐं हीं क्लीं चामुण्डायै विच्चे, ऊं ग्लीं हुं क्लं जूं सं: ज्वालय ज्वालाय ज्वल प्रज्वल प्रज्वल, ऐं हीं क्लीं चामुण्डायै विच्चे, ज्वल हं सं लं क्षं फट् स्वाहा।’

रोमहरण व शत्रु दमन: ‘जयंती मंगला काली भद्रकाली कपालिनी दुर्गा क्षमा शिवा धात्री स्वाहा नमोस्तु ते।’

विपत्ति नाश के लिए :

‘करोतु सा: न शुभहेतुरीश्वरी

शुभानि भद्राण्य भिहन्तु चापद:।’

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