हिन्दू संस्कृति में परब्रह्म को शिव-शक्ति का संयुक्त रूप माना गया है। इसी कारण शिव-पूजा के साथ शक्ति-पूजा को भी बड़ा महत्त्व मिला। जिस प्रकार स्त्री के बिना अकेले पुरुष से संतति संभव नहीं, उसी प्रकार शिव-शक्ति के मिलन के बिना सृष्टि की उत्पत्ति भी नहीं हो सकती। तदनुसार नारी को शक्ति रूप में मान्यता दी गयी और बचपन से वृद्धावस्था तक उसे हर रूप में पूजनीय माना गया। पुत्री, बहन, पत्नी व माता, हर रूप में उसे आदर के योग्य समझा गया। एक श्लोक के अनुसार-
‘यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते रमन्ते तत्र देवता:। यत्रैतास्तु न पूज्यन्ते सर्वास्तत्राफला: क्रिया:।’
अर्थात जहां नारी की पूजा होती है, वहां देवता निवास करते हैं और जहां उनका अनादर होता है, वहां सभी कार्य, चाहे जितने पवित्र क्यों न हों, व्यर्थ हो जाते हैं।
यों तो शक्ति-पूजा हमारे देश में वर्ष भर की जाती है और देश के विभिन्न क्षेत्रों में स्थापित देवी-दुर्गा के अनेक प्रमुख मंदिरों जैसे कोलकाता (बंगाल) में महाकाली, नगरकोट (हिमाचल) में ज्वाला देवी, गुवाहाटी (आसाम) में कामाख्या देवी आदि स्थानों पर दर्शनार्थियों की भीड़ हमेशा लगी रहती है, परन्तु वर्ष में दो बार आने वाले नवरात्रों के अवसर पर शक्ति-पूजा का अलग ही महत्त्व है, जब जन-मानस में दुर्गा-पूजा का उत्साह देखते ही बनता है। पहले चैत्र माह तथा उसके उपरान्त आश्विन माह के शुक्ल पक्ष प्रतिपदा से लेकर नवमी के नौ दिनों तक लगातार दुर्गा पूजा का विधान है, जिसमें श्रद्धालु विधि अनुसार व्रत रखकर नवें दिन व्रत का पारायण करते हैं। इसके लिए कुंवारी कन्या को देवी दुर्गा के जागृत रूप में मान्यता दी गयी और नवरात्र व्रत का पारायण कन्या-पूजन के रूप में किये जाने का विधान भी बना।
वैसे तो शक्ति के अनंत रूप हैं, परन्तु मुख्यत: तीन रूपों में उसकी पूजा की जाती है, यथा महाकाली (शक्ति व सामर्थ्य की अधिष्ठात्री), महालक्ष्मी (धन-वैभव की अधिष्ठात्री) तथा महासरस्वती (विद्या, कला व संगीत की अधिष्ठात्री)। अत: शक्ति, वैभव तथा विद्या प्राप्ति हेतु शक्ति की कृपा होना आवश्यक है। वैसे प्रतीकात्मक रूप से 12 वर्ष से कम आयु की कन्या को दुर्गा का स्वरूप मानकर पूजा जाता है और बिना कन्या-पूजन व्रत सम्पूर्ण नहीं माना जाता। इसी प्रकार 12 वर्ष से 18 वर्ष की आयु वाली कन्या को सरस्वती का तथा उससे अधिक आयु की युवती को लक्ष्मी का रूप मान सकते हैं। देखा जाए तो सफल जीवन के लिए मनुष्य को इन तीनों उपलब्धियों के अतिरिक्त और चाहिए भी क्या! इसी कारण हर श्रद्धालु नवरात्रों में देवी को प्रसन्न कर इन्हीं सब सुखों का वरदान पाना चाहता है।
परन्तु तस्वीर का एक दूसरा स्याह पहलू भी है। शक्ति के रूप में स्त्री की पूजा करने वाले हम लोग बचपन से वृद्धावस्था तक उसी स्त्री का इतना अपमान, तिरस्कार और शोषण करते हैं कि सहसा विश्वास ही नहीं होता कि क्या हम लोग वास्तव में शक्ति के उपासक हैं या फिर शक्ति-पूजा की मात्र औपचारकता पूरी कर अपने कर्तव्य की इति-श्री कर लेना चाहते हैं? तो आइये देखते हैं किस प्रकार हम शक्ति स्वरूपा स्त्री का अपमान कर मां दुर्गा का तिरस्कार कर रहे हैं और विचार करें कि उसे प्रसन्न करने के लिए विधिवत पूजा-अर्चना, व्रत आदि करने के साथ-साथ शक्ति के प्रकट रूप में उपस्थित स्त्री के साथ कैसा व्यवहार करें, जिससे परब्रहम स्वरूपिणी शक्ति को प्रसन्न कर इस जीवन में भौतिक सुखों का लाभ प्राप्त कर मृत्योपरांत उसके सान्निध्य में स्थाई निवास प्राप्त कर सकें।
कन्या भ्रूण हत्या को रोकें
यह सर्वविदित है कि कठोर विधिक-प्रावधानों के बावजूद, पुत्र प्राप्ति की चाह में आज भी बहुत से लोग गर्भस्थ-भ्रूण का लिंग-परीक्षण कराते हैं। यदि जांच रिपोर्ट में भ्रूण बालक का होता है तो उत्सव मनाया जाता है, परन्तु यदि भ्रूण कन्या का हुआ तो परिवार में मातम छा जाता है। इसकी परिणति अकसर गर्भपात के रूप में होती है, जिसके लिए गर्भवती स्त्री की इच्छा जानना तक आवश्यक नहीं समझा जाता। ऐसा इसलिए किया जाता है क्योंकि मान्यता है कि कुल को बढ़ाने के लिए पुत्र का होना आवश्यक है। परन्तु यदि आप ऐसा करने जा रहे हैं तो स्वयं अपने-आप को और यदि आप के आस-पास कोई ऐसा पाप करने जा रहा है तो उस व्यक्ति को अच्छी तरह समझा दें कि यह शक्ति की कृपा-प्राप्ति के मार्ग में सबसे बड़ी बाधा है। भला शक्ति के जागृत स्वरूप कन्या की हत्या कर, उनके अप्रकट स्वरुप को कैसे प्रसन्न किया जा सकता है?

जहां तक कुल-वृद्धि हेतु पुत्र की अनिवार्यता का प्रश्न है तो उसके लिए देवी-दुर्गा के जिन नौ रूपों की पूजा नवरात्रों में की जाती है, उनका उल्लेख करना प्रासंगिक है-
प्रथमं शैलपुत्री च द्वितीयं ब्रह्मचारिणी। तृतीयं चन्द्रघंटेति कूष्माण्डेति चतुर्थकम्।। पंचमं स्कन्दमातेति षष्ठं कात्यायनीति च। सप्तमं कालरात्रीति महागौरीति चाष्टमम्।। नवमं सिद्धिदात्री च नवदुर्गा: प्रकीर्तिता:।।
उक्त रूपों में छठे अर्थात कात्यायनी स्वरूप में मां-दुर्गा ने कात्यायन ऋषि की प्रार्थना पर उनकी पुत्री के रूप में जन्म लिया और पिता का गोत्र अपना कर कात्यायनी कहलाई। इससे जो सन्देश हमें मिलता है, क्या उसे समझने के लिए किसी विशेष प्रयत्न की आवश्यकता रह जाती है? तो आइये, इन नवरात्रों में संकल्प लें कि आगे न तो हम कन्या-भ्रूण हत्या जैसा पाप स्वयं करेंगे और न ही अपने किसी परिजन को करने देंगें।
दुराचारियों का विरोध करें
यद्यपि देवी-भागवत की कथाओं के अनुसार राक्षसों का वध करने के लिए देवी समय-समय पर विभिन्न रूप धारण कर स्वयं उनका संहार करती हैं, परन्तु आज प्रकट रूप में जगह-जगह आधुनिक महिषासुर घात लगाए बैठे हैं जो नवजात मासूम कन्या, 16 वर्ष की आयु वाली निश्छल किशोरी, यहां तक कि 80 वर्ष की आयु वाली निस्सहाय वृद्धा को भी देखते ही न केवल दुराचार करने, बल्कि उनके प्राण लेने को भी कटिबद्ध रहते हैं।

खेद का विषय है कि हम अपने आस-पास घूम रहे इन राक्षसों का न केवल विरोध करने से बचते हैं, बल्कि कभी जाति, कभी सम्प्रदाय या फिर कभी राजनैतिक प्रतिबद्धता के चलते इन्हें सजा पाने से भी बचा लेते हैं। परन्तु ध्यान रहे कि ऐसा करने वाले लोग चाहे जितनी पूजा-पाठ कर लें, इन्हें जीवन भर शक्ति की कृपा प्राप्त नहीं हो सकती। इन नवरात्रों में हम संकल्प लें कि महिलाओं के रूप में उपस्थित हमारी माता दुर्गा के प्रति अपराध करने वाले इन आधुनिक महिषासुरों को कठोर दंड दिलाने का प्रयास करेंगें।
बेटियों को पढ़ा-लिखा कर योग्य बनायें
कन्या चूंकि स्वयं सरस्वती रूपा होती है, अत: उसे विद्या से वंचित कर पाप के भागी न बनें। जिस प्रकार आप पुत्रों को उनकी योग्यता व रुचि तथा अपने सामर्थ्य के अनुसार शिक्षा प्रदान करते हैं, उसी प्रकार पुत्रियों के लिए भी समुचित शिक्षा की व्यवस्था करें। आप देखेंगें कि मां दुर्गा की कृपा आप को अवश्य प्राप्त होगी।
दहेज प्रथा का विरोध करें
जब कोई कन्या ब्याह कर आप के घर आती है तो वह लक्ष्मी स्वरूपा होती है। बहू से नकदी या कीमती सामान के रूप में दहेज की कामना कर आप अपने आत्म-सम्मान को नीचे न गिराएं। विश्वास रखें कि जब जागृत लक्ष्मी के रूप में आप के घर नव-वधु का आगमन हो चुका है तो धन-धान्य भी आप के पास अवश्य आयेगा। फिर भी यदि कोई कमी रह जाए तो अपने प्रयत्नों की समीक्षा करें और अधिक मेहनत कर धनोपार्जन का प्रयास करें।
मातृ-शक्ति का सम्मान करें
दुर्गा-पूजा के समय आपने एक श्लोक अवश्य पढ़ा होगा-
या देवी सर्वभुतेषु मातृरूपेण संस्थिता। नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नम:॥
अर्थात जो देवी सभी जीवों में माता के रूप में विद्यमान है, उसे मैं बारम्बार प्रणाम करता हूं। अत: दुर्गा पूजा के साथ-साथ घर-परिवार में उपस्थित माता या अन्य महिलाओं का भरपूर सम्मान करें। क्योंकि यदि आप की माता आप के व्यवहार या अन्य किसी कारण से दुखी है तो आप कितनी भी पूजा क्यों न कर लें, दुर्गा की कृपा नहीं पा सकते। अत: अपने घर में उपस्थित सभी महिलाओं, खास तौर से अपनी माता का भरपूर सम्मान करें श्रद्धा-पूर्वक नवरात्रों में पूरे विधि-विधान से शक्ति-उपासना करें। भगवान शिव की सहचरी माता शक्ति अवश्य ही आपको अपने तीनो रूपों अर्थात महाकाली, महालक्ष्मी और महासरस्वती के रूप में प्रकट होकर आपके ऊपर अपनी कृपा की वर्षा करेगी।
पापों का प्रायश्चित करें
यदि भूल या धृष्टता-वश आप अपने जीवन में कभी किसी भी रूप में किसी स्त्री का अपमान या तिरस्कार कर चुके हैं या कन्या-भ्रूण हत्या, वधु-प्रताड़ना या फिर मातृ-अनादर जैसा पाप आपने किया है, तो निश्चित जानिये कि देवी-दुर्गा आपसे प्रसन्न नहीं हो सकतीं। फिर भी निराश न हों सबसे पहले उस स्त्री, जिसके प्रति आप दोषी हैं, से सच्चे हृदय से क्षमा-प्रार्थना करें और भविष्य में उस पाप की पुनरावृत्ति न करने का प्रण लें। दुर्गा-पूजा का एक मंत्र आपने पढ़ा ही होगा- ‘कुपुत्रो जायेत क्वचिदपि कुमाता न भवति।’ अर्थात भले ही कोई पुत्र कुपुत्र हो जाए, पर कोई माता कुमाता नहीं हो सकती। बस शर्त यह है कि हम पवित्र हृदय से उसके पास जाएं और भविष्य में अपराध न करने का व्रत लें और उस पर कायम रहें।
यह भी पढ़ें –कृष्ण सुदामा की दोस्ती
धर्म -अध्यात्म सम्बन्धी यह आलेख आपको कैसा लगा ? अपनी प्रतिक्रियाएं जरूर भेजें। प्रतिक्रियाओं के साथ ही धर्म -अध्यात्म से जुड़े सुझाव व लेख भी हमें ई-मेल करें-editor@grehlakshmi.com