Overview: भैरव का जन्म: शिव के अंश से उत्पन्न रक्षक
भैरव और शक्तिपीठों का यह संबंध केवल धार्मिक नहीं, बल्कि आध्यात्मिक, तांत्रिक और दार्शनिक दृष्टि से भी अत्यंत गहरा है। यह संबंध दर्शाता है कि जहां शक्ति है, वहां शिव हैं, और जहां शिव हैं, वहां भय नहीं केवल संरक्षण, संतुलन और परम ज्ञान की प्राप्ति होती है।
Kaal Bhairav and Shakti Peeth: हिंदू धर्म में शक्तिपीठों का महत्व अत्यंत पवित्र माना गया है। ये वे स्थान हैं जहां देवी सती के अंग गिरे थे और जहां उनकी शक्ति आज भी जाग्रत रूप में पूजी जाती है। लेकिन क्या आपने कभी गौर किया है कि हर शक्तिपीठ में देवी के साथ भैरव बाबा की उपस्थिति क्यों होती है? क्यों उन्हें इन पवित्र स्थलों का रक्षक कहा जाता है? आइए जानते हैं इस रहस्य के पीछे छिपा गूढ़ आध्यात्मिक अर्थ।
शक्तिपीठों की उत्पत्ति

पौराणिक कथा के अनुसार, जब देवी सती ने अपने पिता दक्ष द्वारा भगवान शिव का अपमान सहन न कर आत्मदाह किया, तब भगवान शिव शोक में उनके जले हुए शरीर को लेकर ब्रह्मांड में घूमने लगे।
सृष्टि को बचाने के लिए भगवान विष्णु ने अपने सुदर्शन चक्र से सती के शरीर के 51 अंगों को पृथ्वी पर गिरा दिया। जहां-जहां ये अंग गिरे, वे स्थान 51 शक्तिपीठ कहलाए। प्रत्येक शक्तिपीठ देवी सती के एक विशिष्ट रूप से जुड़ा हुआ है, जहां आज भी उनकी पूजा भक्ति और श्रद्धा से की जाती है।
भैरव का जन्म: शिव के अंश से उत्पन्न रक्षक

जब शक्तिपीठों की स्थापना हुई, तो भगवान शिव ने यह अनुभव किया कि इन पवित्र स्थानों की रक्षा आवश्यक है। सृष्टि में दुष्ट शक्तियों का प्रभाव बढ़ने लगा था। ऐसे में शिव ने अपने उग्र रूप से 51 भैरवों को प्रकट किया। इनमें से प्रत्येक भैरव एक विशिष्ट शक्तिपीठ से संबंधित हैं और देवी के क्षेत्रपाल या संरक्षक के रूप में कार्य करते हैं। यही कारण है कि हर शक्तिपीठ में देवी के साथ भैरव की मूर्ति या प्रतीक स्वरूप भी स्थापित होता है।
देवी के पुत्र और रक्षक
भैरव को देवी सती का पुत्र माना गया है। वे मां की शक्ति और मर्यादा की रक्षा के लिए सदैव तत्पर रहते हैं। यह संबंध केवल रक्षक का नहीं, बल्कि पुत्रवत प्रेम का भी प्रतीक है। हर शक्तिपीठ में भैरव बाबा यह सुनिश्चित करते हैं कि कोई अधार्मिक शक्ति वहां की दिव्यता को भंग न कर सके। वे भक्तों की रक्षा करते हैं और नकारात्मक ऊर्जाओं को दूर रखते हैं।
शिव और शक्ति का अनंत मिलन
भैरव कोई अलग सत्ता नहीं हैं, बल्कि स्वयं भगवान शिव का प्रचंड स्वरूप हैं। जहां शक्ति है, वहां शिव की उपस्थिति अनिवार्य मानी जाती है। शक्तिपीठों में देवी (शक्ति) और भैरव (शिव) की एक साथ उपस्थिति शिव-शक्ति के अद्वैत सिद्धांत का प्रतीक है। यह हमें यह संदेश देता है कि सृजन और संहार, ऊर्जा और चेतना, ये दोनों एक-दूसरे के बिना अधूरे हैं।
तांत्रिक दृष्टि से भैरव की भूमिका
शक्तिपीठ केवल पूजा स्थल नहीं, बल्कि तंत्र साधना के केंद्र भी हैं। इन स्थानों पर देवी की शक्ति अत्यंत प्रबल रूप में सक्रिय रहती है। ऐसी ऊर्जा को संभालने और संतुलित रखने के लिए भैरव का वहां होना आवश्यक है। भैरव को तंत्र विद्या का अधिपति कहा गया है। वे साधकों को तांत्रिक ऊर्जा के सही उपयोग और संतुलन की राह दिखाते हैं। इसी कारण तांत्रिक साधना में भैरव की पूजा बिना देवी की उपासना अधूरी मानी जाती है।
काल भैरव: समय और भय के स्वामी
भगवान भैरव का एक विशेष रूप काल भैरव कहलाता है, जो समय के स्वामी हैं। वे न केवल शक्तिपीठों के रक्षक हैं, बल्कि भक्तों के जीवन से भय, दुर्भाग्य और मृत्यु के भय को भी दूर करते हैं। उन्हें काशी का कोतवाल कहा गया है यानी काशी नगरी के संरक्षक। कहा जाता है कि उनकी अनुमति के बिना कोई भी काशी छोड़ नहीं सकता।
