ध्यान क्यों करें? ऐसे प्रश्न उठाना आज के शिक्षित मनुष्य का स्वभाव है। ध्यान करो इस उपदेश के पीछे ऋषियों का युगों पुराना अनुभव है। अत: इस संबंध में क्यों का उत्तर भी वैज्ञानिक ढंग से दिया जा सकता है। इस उत्तर को तर्कसंगत बनाकर आधुनिक मनुष्य के लिए इसे विश्वसनीय अवश्य बना देना चाहिए।

हमारे धर्मशास्त्रों में मनुष्य के पवित्रतम कर्तव्य के रूप में ध्यान-योग की महिमा गाई गयी है। केवल मनुष्य ही यह महान प्रयास करने में समर्थ हो सकता है, जिसके द्वारा वह अपने आत्मविश्वास में तेजी ला सकता है, और अपने को परिच्छित करने वाले मन व बुद्धि की सीमा से ऊपर उठ सकता है। ज्यों ही एक बार हम अपनी सीमाओं को पार करने में समर्थ होंगे, त्यों ही उस पूर्णता के क्षेत्र में भी प्रवेश करेेंगे जिसे डार्विन ने महा-मानव की स्थिति कहकर निरूपित किया है।

परंतु जब हमें ध्यान करने की सलाह दी जाती है, तब हम उस सलाह मात्र से लाभान्वित नहीं हो पाएंगे क्योंकि यह हमारी पीढ़ी का स्वभाव बन गया है कि जब तक कोई बात तर्क पर आधारित न हो, हम उसे नहीं मानते। पुनश्च, जब तक हम यह न जानें कि ध्यान क्या है तब तक हम ध्यान कैसे कर सकते हैं? अत: ध्यान शब्द की शास्त्रीय मीमांसा समझ पाने केलिए हमें सुविस्तृत व्याख्या की आवश्यकता पड़ेगी।

उस बैलगाड़ी की कल्पना कीजिए जिसके दोनों बैल एक दिशा में नहीं चलते अथवा ऐसे मनुष्य का विचार कीजिए जो एक कदम आगे बढ़ता है, तो दूसरा कदम पीछे, तीसरा कदम दाहिने तो चौथा कदम बाएं, अगला कदम दाहिनी ओर उठाकर भी पीछे खींच लेता है। बताइए कि वह किस दिशा में कितनी प्रगति करेगा? वह कहीं भी नहीं पहुंचेगा, भले ही उसके परस्पर निरस्तकारी प्रयास अनन्त काल तक चलते रहें। विरोधी इच्छाएं उसकी कमर तोड़ देंगी और अन्त में वह निराशा एवं असफलता की मूर्ति बनकर धराशायी हो जायेगा। ऐसे व्यक्ति को बस यही सलाह दी जा सकती है कि उसे अपने हानिकारक द्वंद्व को शांत करना चाहिए और एक निश्चित दिशा में प्रगति करने का निर्णय लेकर एकाग्रचित्त से उसी ओर चलने का प्रयास प्रारंभ कर देना चाहिए। तब कोई भी बाधा न रहने पर वह अभीष्ट लक्ष्य तक पहुंच जायेगा। जब तक वह ऐसा नहीं करता, वह अपनी शक्ति का अपव्यय ही करेगा और उसके हाथ कुछ भी न लगेगा।

उपरोक्त विवरण से यह स्पष्ट है कि हमें अपने व्यक्तित्त्व के विभिन्न पक्षों को समन्वित करने की आवश्यकता है। व्यक्तित्त्व के शारीरिक, मानसिक, बौद्धिक एवं आध्यात्मिक पक्षों में सामंजस्य बिठाना अत्यन्त आवश्यक है। इस सामंजस्य को प्राप्त करने का सरल उपाय ध्यान ही है। यह सर्वोत्कृष्ट आध्यात्मिक साधना है। ध्यान के माध्यम से मनुष्य अपने अन्दर बाहर सर्वत्र शांति का अनुभव करता है।

ध्यानाभ्यास में मन को समस्त इन्द्रिय विषयों से हटा लिया जाता है। मन पर अंकुश रखने वाली बुद्धि उसे आदेश देती है कि वह अपने समस्त विचारों को समाप्त कर केवल सर्वव्यापी चेतना के बारे में ही सोचे। कठिन साधना के उपरान्त मन एक समय पर एक ही विषय का चिन्तन करने योग्य बन जाता है।

जिस प्रकार पदार्थ और ऊर्जा की अनश्वरता संबंधी वैज्ञानिक खोज तन्निर्मित वस्तुओं को नवीन अर्थ प्रदान करती है, उसी प्रकार मन बुद्धि के द्वारा ध्यानावस्था में प्राप्त सत्-चित् आनन्द का साक्षात्कार जीवन को एक नई दिशा प्रदान करता है।

नित्य ध्यानाभ्यास के द्वारा शुद्ध चेतना में प्रतिष्ठित मन की अन्तर्भेदी दृष्टि के ऊपर पड़े सारे आवरण हट जाते है। सभी जटिलताओं से मुक्त होकर यह मन अब कभी भी संशय और भय से ग्रस्त न होगा।

व्यावहारिक दृष्टिकोण से भी ध्यान के औचित्य के संबंध में इससे अधिक और क्या कहा जा सकता है? खीर का स्वाद खाने से ही पता चलता है। ध्यान तुरंत प्रारम्भ कर दीजिए। शीघ्र ही अनुपम अनुभूतियों के पुरस्कारों की वर्षा आप पर होने लगेगी और उसकी सार्थकता स्वयं स्पष्ट हो जायेगी।

ध्यानाभ्यास की कुछ विफलता में भी जीवन की सफलता से अधिक मूल्यवान लाभ होंगे। अत: ध्यान करो और बारम्बार ध्यान करो।

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