Badrinath Temple: बद्रीनाथ धाम हिन्दुओं का प्रमुख तीर्थ स्थान है। बद्रीनाथ धाम में हर साल लाखों श्रद्घालु दर्शन के लिए पहुंचते हैं। बद्रीनाथ धाम में भगवान विष्णु की उपासना की जाती है। प्रत्येक हिन्दू की यह मनोकामना होती है कि वह एक बार बद्रीनाथ के दर्शन अवश्य करे। जानते हैं, बद्रीनाथ धाम का इतिहास एवं उससे जुड़ी कथाएं।
बद्रीनाथ धाम का नाम स्थानीय शब्द बद्री से बना है जो की एक प्रकार के जंगली फल बेरी का प्रकार है। यह न केवल भगवान विष्णु का निवास स्थान है बल्कि ज्ञान की खोज में आये अनगिनत तीर्थयात्रियों, साधु, संतों का
घर भी है। बद्रीनाथ मंदिर का मुख्य आकर्षण यह है कि, जब राजा अशोक भारत के शासक थे उस समय बद्रीनाथ मंदिर की पूजा बौद्ध मंदिर के रूप में की गयी।
पौराणिक कथाओं के अनुसार, बद्रीनाथ जिसे बद्री विशाल भी कहा जाता है, को आदिगुरु श्री शंकराचार्य ने हिन्दू धर्म की खोई प्रतिष्ठा को पुन: वापस पाने और राष्ट्र को एक बंधन में एकजुट करने के उद्देश्य से फिर से स्थापित किया था। बद्रीनाथ धाम एक प्राचीन भूमि है जिसका कई पवित्र ग्रंथों में उल्लेख किया गया। इसके साथ कई पौराणिक कहानियां भी जुड़ी है जिनमें से पांडव भाइयों की द्रौपदी के साथ, बद्रीनाथ के पास एक चोटी की ढलानों पर चढ़कर ‘चढ़ाई के स्वर्ग’ की कहानी सबसे महत्त्वपूर्ण मानी जाती है। ऐसी ही कुछ और कहानियां है जैसे भगवान कृष्ण और अन्य महान संत तीर्थ यात्रा के दौरान अपनी आखिरी तीर्थ यात्रा के लिए बद्रीनाथ ही आये थे। ये कुछ कहानियां ऐसी है जिन्हें इस पवित्र तीर्थ स्थान से जोड़ा जाता है। वामन पुराण के अनुसार, ऋषि नर और नारायण (भगवान विष्णु का पांचवां अवतार) बद्रीनाथ धाम में आकर तपस्या करते हैं। ऐसा कहा जाता है कि, कपिल मुनी, गौतम, कश्यप जैसे महान ऋषि मुनियों ने बद्रीनाथ धाम में तपस्या की है जबकि भक्त नारद ने यहां मोक्ष प्राप्त किया और भगवान कृष्ण ने इस क्षेत्र को प्यार किया। मध्ययुग के धार्मिक विद्वान, आदि शंकराचार्य, रामानुजचार्य, श्री माधवचार्य, श्री नित्यानंद बद्रीनाथ धाम में शांत चिंतन और ज्ञान की प्राप्ति के लिए यहां आया करते थे, जिसे आज भी बहुत से लोग जारी रखे हुए हैं।
बद्रीनाथ का माहात्मय
बद्रीनाथ धाम के बारे में कहा जाता है कि ‘स्वर्ग, धरती और पाताल में कई तीर्थस्थल हैं, लेकिन बद्रीनाथ जैसा न कोई है, न ही कोई होगा। नर और नारायण पर्वत के बीच स्थित श्री बद्रीनाथ धाम देश के चारधामों में से एक है और इसे मोक्ष के धाम का दर्जा प्राप्त है। बद्री अर्थात बेर और नाथ अर्थात विष्णु, बद्रीनाथ धाम को जगत के पालनहार भगवान विष्णु की तपोभूमि माना जाता है।
कहते हैं, निर्मल अलकनंदा नदी के किनारे स्थित इस पावन तीर्थ के दर्शन मात्र से ही
मनुष्य जन्म – मरण के फेर से मुक्ति पा लेता है। पुराणों के अनुसार बद्रीनाथ की स्थापना सतयुग में हुई थी। उत्तर दिशा में हिमालय पर स्थित यह भारत का सबसे प्राचीन तीर्थ है। प्राचीन काल में नर और नारायण, त्रेता में भगवान राम, द्वापर में भगवान वेद व्यास एवं कलियुग में शंकराचार्य ने यहीं शांति प्राप्त कर धर्म एवं संस्कृति के सूत्र पिरोए थे।
भगवान विष्णु का नाम बद्रीनाथ कैसे पड़ा?
लोक कथाओं के अनुसार एक बार भगवान विष्णु ध्यान योग के लिए स्थान खोजते हुए अलकनंदा नदी के तट पर पहुंचे। भगवान शिव की इस केदार भूमि में स्थान पाने के लिए बाल रूप में अवतरित हुए। वह स्थान
जहां भगवान अवतरित हुए उसे अब चरणपादुका स्थल के नाम से जाना जाता है।
बाल रूप में अवतरण कर भगवान विष्णु जोर-जोर से क्रंदन करने लगे। उनके रोने की आवाज सुनकर भगवन शिव और माता पार्वती उनके पास आकर उनसे रोने का कारण पूछा। तब बालक रुपी भगवान विष्णु ने केदार भूमि में उस स्थान को अपने ध्यानयोग हेतु मांग लिया। इसके पश्चात जब भगवान विष्णु तपस्या में लीन थे तब
बहुत अधिक हिमपात होने लगा। भगवान पुरे बर्फ से ढक गये। तब माता लक्ष्मी ने भगवान के समीप खड़े होकर एक बेर (बद्री) के वृक्ष का रूप ले लिया। बेर वृक्ष रूपी माता ने लक्ष्मी ने भगवान विष्णु को धुप, वर्षा और बर्फ से बचाए रखा। वर्षों तक भगवन और माता की ये तपस्या चलती रही। तप पूर्ण करने पर जब भगवान विष्णु ने बर्फ से ढकी माता को देखा तो कहा ‘हे देवी! आपने भी मेरे बराबर तप किया है। आज से ये स्थान बद्री के नाथ यानी बद्रीनाथ के नाम से जाना जायेगा और इस स्थान पर हम दोनों की पूजा होगी।
मंदिर की विशेषता
यह मंदिर तीन भागों में विभाजित है। इस गर्भ गृह में भगवान बद्रीनाथ की मूर्ति इस जगह के अंदरूनी हिस्से में बैठी हुई है और जहां सोने की चादर से छिपी हुई छत है। द्वितीय भाग को दर्शन मंडप के नाम से जाना जाता है जिसमें पूजा समारोह किया जाता है। तीसरा भाग सभा मंडप है, जो एक बाहरी हॉल है, जहां भक्त भगवान बद्रीनाथ के दर्शन करते हैं। समुद्रतट से 10 हजार 28 4 फीट की ऊंचाई पर अलकनंदा नदी के बाएं किनारे पर बद्रीनाथ का मंदिर है।
वैदिक भजनों के साथ और घंटियों की आवाज घूमने के साथ मंदिर में स्वर्गीय वातावरण पैदा होता है। पास के ही तपेता कुंड में डुबकी के बाद तीर्थयात्री पूजा समारोह में शामिल हो सकते हैं।
सुबह की पूजा का क्रम- सबसे पहले महाआरती, अभिषेक, गीतापाठ और भागवत मार्ग, जबकि शाम पूजा गीता गोविंद और आरती की जाती हैं। माता मूर्ति का मेला बद्रीनाथ मंदिर में मनाया जाने वाला सबसे प्रमुख त्योहार है।
मन्दिर को देखने से इस पर बौद्ध वास्तुकला का प्रभाव स्पष्ट दिखाई पड़ता है। बद्रीनाथ के मंदिर में स्थित बद्रीनारायण के रूप में विष्णु की काली पत्थर की प्रतिमा, 1 मी.
(3.3 फुट) लंबी है। इस मूर्ति को विष्णु के स्वयं-प्रकट मूर्तियों में से माना जाता है। हमारे प्राचीन ग्रंथों में बताया हैं कि यह मंदिर शुरू में एक बौद्ध मठ था और आदि गुरु शंकराचार्य 8 वीं शताब्दी के आसपास
इस जगह का यात्रा करने के बाद ही एक हिन्दू मंदिर में बदल दिया था। कालांतर में जो मंदिर बना हुआ है, उसका निर्माण दो शताब्दी पहले गढ़वाल के राजा ने कराया था। यह मंदिर ‘शंकुधारी शैली’ में बना हुआ है। इसकी ऊंचाई लगभग 15 मीटर है, जिसके शिखर पर गुंबद है। इस मंदिर में नारायण के अलावा देवी लक्ष्मी, शिव-पार्वती और गणेश समेत 15 मूर्तियां हैं।
मूर्ति एवं उसका महत्त्व

श्री बद्रीनाथ की चतुर्भुज मूर्ति शालिग्राम शिला से बनी है। मूर्ति बहुत छोटी है। उसका हीरा जड़ित स्वर्ण मुकुट ही प्राय: दिखाई देता है। इस चतुर्भुज मूर्ति के बाई ओर उद्धव जी तथा दाईं ओर कुबेर की मूर्ति है। बद्रीनाथ में भगवान विष्णु की मूर्ति होने के कारण इसका महत्त्व बैकुण्ठ जैसा माना जाता है।
मंदिर में प्रसाद – मंदिर में नर-नारायण की पूजा होती है और अखण्ड दीप जलता है, जो कि अचल ज्ञानज्योति का प्रतीक है। यहां वनतुलसी की माला, चने की कच्ची दाल, गिरी का गोला और मिश्री आदि का प्रसाद चढ़ाया जाता है।
मंदिर खुलने और बंद होने का समय
बद्रीनाथ मंदिर प्रत्येक वर्ष अप्रैल – मई माह में श्रद्घालुओं के लिए खुलता है और अक्टूबर – नवम्बर में शीतकाल के लिए बंद हो जाता है। इस प्रकार मंदिर हर साल 6 महीने के लिए खुलता है और 6 महीने
के लिए बंद हो जाता है। बद्रीनाथ मंदिर के खुलने का दिन पुजारी बसंत पंचमी को पंचांग गणना के बाद बताते हैं। हर वर्ष अक्षय तृतीया के बाद ही बद्रीनाथ मंदिर खुलता है। बद्रीनाथ मंदिर के बंद होने की तिथि विजयदशमी को निर्धारित की जाती है। बद्रीनाथ मंदिर सुबह 7 बजे से सायं काल 7 बजे तक श्रद्घालुओं के लिए खुलता है।
सर्दियों में बद्रीनाथ धाम
बद्रीनाथ मंदिर हर साल शीतकालीन महीनों के लिए बंद रहता है जबकि बद्री विशाल ‘उत्सव मूर्ति’ की प्रार्थना जोशीमठ के नरसिंह मंदिर में की जाती है। बद्रीनाथ मंदिर के पुजारी सर्दियों के मौसम के दौरान नरसिंह मंदिर में ‘उत्सव मूर्ति’ पर अनुष्ठान करना जारी रखते हैं। मंदिर के कपाट बंद करने से पहले, पुजारी पवित्र स्थान में मूर्ति के सामने एक दीपक लाते हैं। ऐसा कहा जाता है कि सर्दियों के महीनों के दौरान, नारद मुनी जिन्होंने यहां मुक्ति प्राप्त की थी, अपनी प्रार्थना यहां जारी रखते हैं। इस धारणा को इस तथ्य के आधार पर और मजबूत किया गया है कि जब बसंत में छ: महीनों के बाद मंदिर फिर से खोला जाता है, तो दीपक फिर भी जगमगाता हुआ नजर आता है।
बद्रीनाथ के समीप दर्शनीय स्थल
तप्त-कुंड, ब्रह्म कपाल, शेषनेत्र, चरणपादुका, माता मूर्ति मंदिर, माणा गांव, वेदव्यास गुफा, गणेश गुफा, भीम पुल, वसुधारा, लक्ष्मी वन, संतोपंथ, अलकापुरी, सरस्वती नदी।
बद्रीनाथ धाम में पूजा के समय रावल को बनना पड़ता है स्त्री – बद्रीनाथ के पुजारी शंकराचार्य के वंशज
होते हैं जो रावल कहलाते हैं। यह जब तक रावल के पद पर रहते हैं इन्हें ब्रह्मचर्य का पालन करना होता है। रावल के लिए स्त्रियों का स्पर्श भी पाप माना जाता है। भगवान शिव के धाम बद्रीनाथ के गर्भगृह में पूजा के
समय वहां के रावल को स्त्री का रूप धारण करना पड़ता है। चलिए जानते हैं इसके पीछे की रोचक कहानी। बद्रीनाथ धाम के कपाट बंद होने और खुलने के दिन रावल साड़ी पहन कर पार्वती का शृंगार करके ही गर्भगृह
में प्रवेश करते हैं। इसके बाद पूजा अर्चना होती है और तभी कपाट खोले जाते हैं। इस मान्यता की वजह से ही पहाड़ में रावल को लोग भगवान की तरह पूजते हैं। वे उन्हें पार्वती का रूप भी मानते हैं। पहाड़ में जो लोग रावल को नहीं पूजते हैं उसे लोग अच्छा नहीं मानते हैं। वहीं कहा जाता है कि, मंदिर के रावल सखी बनकर लक्ष्मी मंदिर में जाते हैं। मान्यता यह कि उद्धव ही कृष्ण के बाल सखा है और उम्र में बड़े, इसलिए लक्ष्मी जी के जेठ हुए। हिन्दू परंपरा के अनुसार जेठ के सामने बहू नहीं आती है। इसलिए पहले जेठ बाहर आयेंगे तब लक्ष्मी
को विराजा जाएगा।
शास्त्रों में बद्रीनाथ
पुराणों में धामों के धाम नाम से वर्णित बद्रीनाथ की महिमा का व्याख्यान स्कन्द पुराण व महाभारत में भी किया गया है। बद्री विशाल के रूप में स्थापित विष्णु का यह स्वरूप क्षेत्र में स्थापित पांच बदरियों में से उच्चस्थ होने के कारण बद्री विशाल के नाम से जाना जाता है। इसके दोनों ओर नर और नारायण की पर्वत श्रेणियां हैं और यहां से नीलकंठ की बर्फ से ढकी सुन्दर चोटी दिखाई पड़ती है। हिन्दू शास्त्रों में कहा गया है कि बद्रीनाथ के दर्शनों के बिना कोई भी यात्रा अधूरी है। इस आध्यात्मिक व पवित्र धाम का उल्लेख सर्वप्रथम पराशर संहिता में
मिला है। ऋषिगण धर्म के तत्त्व को जानने की इच्छा से व्यासजी के साथ बद्री का आश्रम गए। तब पाराशर मुनि ने मुनियों को बद्री का आश्रम में धर्म के निर्णय का ज्ञान दिया। यह वही भूमि है जहां सम्पूर्ण पापों को नाश करने वाली गंगा है तथा ब्रह्मा, विष्णु महेश सर्वदा निवास करते हैं। इस पवित्र स्थल के दर्शन-सेवन से मुक्ति एवं भक्ति प्राप्त होती है, प्राणी बार-बार संसार में जन्म लेने के बंधन से मुक्त हो जाता है।
तप्त कुण्ड की महिमा – इसके ठीक सामने गर्मपानी का एक कुण्ड है जिसे तप्त कुण्ड भी कहा जाता है। जिसके बारे में आजतक वैज्ञानिक भी इसका पता नहीं लगा सके हैं, यहां निरन्तर गर्म पानी कहां से आता है। श्रद्धालु मन्दिर में दर्शन करने से पहले तप्तकुण्ड में स्नान करते हैं। कहते हैं कि इस कुण्ड के पानी में हिमालय की अनेक बहुमूल्य औषधियों का मिश्रण है जिसके कारण तप्त कुण्ड में स्नान करने से हजारों बिमारियों का उपचार स्वयं हो जाता है। बद्रीनाथ से कुछ किलोमीटर की दूरी पर प्रसिद्ध माणा गांव है। कहा जाता है कि यहीं पर व्यास गुफा में चारों वेदों के मंत्रों को एक साथ रखकर चार भागों में बांटा गया था। कई पुराण भी यहां लिखे
गए थे। माणा के अतिरिक्त यहां चरणपादुका, शेषनेत्रा ताल, व्यास गुफा, गणेश गुफा व भीमपुल मातामूर्ति है।

बद्री विशाल के रूप में स्थापित विष्णु का यह स्वरूप क्षेत्र में स्थापित पांच बदरियों में से उच्चस्थ होने
के कारण बद्री विशाल के नाम से जाना जाता है। इसके दोनों ओर नर और नारायण की पर्वत श्रेणियां
हैं और यहां से नीलकंठ की बर्फ से ढकी सुन्दर चोटी दिखाई पड़ती है।
