दीप-मालाओं में गुंथे ज्योतिपुंज टिमटिमाते हुए जब आलोक पर्व दीपावली का आगमन होता है ,तो दिल खुशी से झूम उठते हैं। दीपावली के साथ वैसे तो कई पौराणिक कथाएं जुड़ी हुई हैं, लेकिन राजस्थान के धनाढ्य वणिक समुदाय के साथ दीपावली की एक खूबसूरत रोचक कथा जुड़ी हुई है। एक ऐसी दिलचस्प कहानी, जिसके अनुसार वणिक हमेशा-हमेशा के लिए वैभवपूर्ण हो गये।
दीपावली कथा-
कहते हैं, एकबार एक गरीब वणिक के घर शाम का उजाला देख कर मां लक्ष्मी आयी और उससे बोली-‘‘ वत्स तेरे घर इतनी रोशनी देख कर मैं यहां आने का मोह न त्याग सकी’, तूने मुझे प्रसन्न किया है, मैं तुझे प्रसन्न करूंगी, बोल तुझे कितना धन चाहिए।” वणिक ने सोचा, मैं कितना ही धन मां लक्ष्मी से क्यों न मांग लूं, आखिर वह कभी-न-कभी तो खत्म होगा ही, तो क्यों न मैं कोई ऐसी जुगत बैठाऊं कि मेरे पास धन का कभी अंत ही न हो, ऐसा सोच कर चालाक वणिक मां लक्ष्मी से बोला-” देवी, धन की तो मुझे इच्छा नहीं है, लेकिन तुम आ ही गयी हो तो मुझ नराधम के घर भोजन अवश्य करती जाओ।” लक्ष्मीजी ने सोचा, ‘‘कैसा मूर्ख आदमी है, मैं तो इस पर धन-संपदा लुटाने को तैयार हूं और इस बुद्धू के मन में धन पाने की इच्छा तक नहीं, खैर चलो अच्छा है।” यह सोच कर लक्ष्मीजी ने वणिक से कहा- ‘‘ठीक है। तुम अपनी पत्नी से कहो कि वह मेरे लिए भोजन परोसे। ”भोजन तो मैं आपको अपने हाथों से ही कराउंगा। बस, आप थोड़ी देर प्रतीक्षा कीजिये, मैं तुरत-फुरत नदी में स्नान करके आता हूं, लेकिन आप वचन दो कि जब तक मेरे हाथ का बना भोजन तुम नहीं स्वीकार कर लोगी, तब तक वापस नहीं जाओगी।” लक्ष्मी मुस्कराई, पल भर को सोचा-बहुत भोला है वणिक, फिर बोली- ‘अच्छा जाओ, वचन दिया।”
वणिक नदी में स्नान के लिए चला गया, जब वह बीच धारा में खड़ा होकर स्नान कर रहा था, तभी उसने संकल्प लिया कि हे लक्ष्मी मां! तू एक बार जो मेरे घर आयी है, तो अब मैं जीवन भर तुझे अपनी प्रतीक्षा में बैठा कर रखूंगा, मैं अपने आने वाली समस्त पीढ़ी, बंधु-बांधवों की खातिर इसी क्षण जल समाधि लेता हूं, जब मैं घर वापस जाउंगा ही नहीं, तो मुझे वचन के अनुसार, जीवन भर मेरे घर पर रूक कर मेरी प्रतीक्षा करनी होगी,’ और यह सोच कर वणिक ने जलसमाधि ले ली।
उधर मां लक्ष्मी बहुत परेशान थी, बार-बार दरवाजा निहारती रही और सोचती रही कि आखिर कहां चला गया वणिक, हर आहट पर उन्हें यह लगता कि वह अब आया कि तब आया, रात बीत गयी, भोर होने को आयी, लेकिन वणिक वापस न लौटा और वचनबद्ध लक्ष्मी भी वापस न जा सकी।
सुबह वणिक की पत्नी को जब वणिक के त्याग का पता चला तो उसने भी कसम खायी और मां लक्ष्मी से बोली-” मां, तुझे भोजन तो मैं न करा सकूंगी, मगर तेरे आदर-सत्कार में कभी कोई कमी न रखूंगी, मैं आज ही अपने सारे बंधु-बांधवों को खबर करती हूं कि तेरे सत्कार में आज से नये वर्ष का शुभारंभ करें, तेरी पूजा करें और नये वस्त्र धारण कर खूब खुशियां मनायें।”
कहते हैं, उस दिन से लक्ष्मी वणिकों के घर में हैं और आठों सिद्धि, नवों निधि दान करती हुई अपनी नियति पर खुश है।
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