नवरात्र

नवरात्रों का हिन्दू धर्म में विशेष महत्व है। मान्यता इस प्रकार है कि स्वयं में भगवती अपने बच्चों से मिलने के लिए दस दिन हेतु प्रत्येक गृहस्थ के घर में आती है। और अपनी अनुकंपा या प्रेम रस बरसाते हुए अनेकों आर्शीवचनों से प्रफुल्लित कर देती हैं और जगत की रचियता मां अपने बालकों का दु:ख दूर करती हैं। ममतामयी मां जब घर में हों तो कपूत से कपूत भी प्रफुल्लित हो जाता है। और सभी बालक यह चाहते हैं कि जितना भी हो नियम संयम से रहते हुए मां की प्रसन्नता में किसी प्रकार की कोई कमी न रहे। इस हेतु यथाशक्ति सभी संपन्न से संपन्न और विपन्न गृहस्थ कंजक के रूप में मां की सेवा सुरूषा करते हैं और उन्हें हलुवे और चने का भोग लगाते हैं। प्रश्न उठता है कि हलुआ और चना ही क्यों ?

प्रारंभ के दिनों जब सृष्टि की रचना हुई चना एक ऐसा अन्न था जो कि बहुत सस्ता और शरीर के सभी प्रकार की रक्त संबधी विकारों को दूर करने की क्षमता रखने वाला अन्न था इस दृष्टिकोण से सामाजिक जीवन में मापदंड बनाकर भोग के स्वरूप स्वीकार किया गया और यही अपनी प्रिय आदरणीय ममतामयी मां को भेंट स्वरूप प्रदान किया गया। इसलिए जब साधक नवरात्री में आठ अथवा नौ दिन उपवास करके उठे तो उसकी क्षीण उर्जा को पुर्नस्थापित करने के लिए और शीघ्रतिशीघ्र स्वास्थ्य लाभ करने के लिए चना ही ऐसी वस्तु है जो शारीरिक और मानसिक कमजोरी को दूर कर सकता है।

स्वास्थ्य के लिए भी है लाभदायक 

ज्योतिष के अनुसार गुरू बृहस्पति सबसे अधिक वयोवृद्ध एवं सभी नक्षत्रों द्वारा पूजनीय हैं। पूजा पाठ भक्ति में यदि इनकी अनुकंपा मिला जाए तो व्यवसाय, संबंधी, स्वास्थ्य संबंधी, लाभ होने की संपूर्ण आशाएं बलवती हो जाती है। एवं गृह प्रवेश भी शांत होने लगते है और घर में सभी को सद्बुद्धि प्राप्त होते हुए सफलता के क्षेत्र प्रशस्त हो जाते हैं और जितने भी वक्री और पीड़ादायक ग्रह हैं वह सब बृहस्पति की दुष्टि पड़ने से शांत हो जाते हैं और अपनी जरूर दृष्टि के कारण पीड़ा नहीं दे पाते इसलिए भी चने का प्रसाद अनिवार्य किया गया है। हर दृष्टि हर प्रकार की सोच के अनुसार ऋषियों ने उचित रूप से ऐसे भोग की व्यवस्था ही । जब तक चने के साथ हलुआ न हो भोग अधूरा है।

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जानिए नवरात्रों में क्यों बंटता है हलुवे-चने का प्रसाद 4

एक सुस्वादिष्ट व्यंजन

हलुआ इसलिए अनिवार्य है कि दुनिया में ऐसे भी गरीब लोग हैं जो सालों-साल किसी भी प्रकार की मिठाई नहीं खा पाते और करोड़ों ऐसे भी हैं जो वृद्ध अवस्था के कारण अथवा रूग्न शरीर के कारण साल-साल सभी प्रकार के स्वादों से वंचित रह जाते हैं। इसलिए समाज के प्रत्येक प्राणी के लिए और प्रत्येक आयु वर्ग के लिए यह एक सुस्वादिष्ट व्यंजन भगवती को भोग स्वरूप प्रदान किया गया कि ममतेश्वरी मां इसे सहर्ष स्वीकार करें अतएव जब मां को यह स्वीकार है तो सामाजिक प्राणी इसको सहर्ष स्वीकार करता है। और बड़ी श्रद्धापूर्वक स्वीकार करता है। इसको मस्तक से लगाकर मां का आशीर्वाद मानते हुए ग्रहण करना चाहिए।

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पशुबलि से बचने के लिए

जीवन में कभी चिकनाई अथवा शुद्ध घी किसी न किसी रूप से शरीर में प्रवेश कराने का यह सुदंर तरीका इसलिए खोजा गया कि व्यक्ति पितृदोष से मुक्त न हो जाए और उसका जीवन किसी भी प्रकार का दु:ख न भोगे और दु:ख और दरिद्र उससे सौ कदम दूर भाग जाएं। अस्थि, मज्जा तंतु का यह शरीर सदैव पुष्ट रहे और मज्जा के रूप में जिसे वामाचारी भाषा में कलेजी कहते हैं और निर्बाध पशुओं का वध करते हुए जो भगवती को भेंट देते हैं और उससे बचने के लिए जगदंबा जी हो हलुआ प्रदान किया गया।

(साभार -साधना पथ)

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