Osho pravachan Hindi “Guru Dahi ke bhati hai”

Osho pravachan Hindi : गुरु एक अनूठी घटना है। गुरु इस जगत में सबसे बड़ा चमत्कार है, क्योंकि वह होता है आदमी जैसा और फिर भी उसमें कुछ है जो आदमी जैसा नहीं है। वह किसी दूसरे लोक की खबर ले आया है। उसने कुछ देखा है- कोई नूर, कोई प्रकाश, जिसकी झलक तुम उसकी आंखों में देख सकते हो। लेकिन तुम्हारे ऊपर निर्भर है।

परमात्मा को देखना तुम्हें कठिन है, क्योंकि उसे पाने के लिए पात्र को तैयार करना पड़ेगा। उसे संभालने के लिए तुम्हें तैयार होना पड़ेगा। गुरु को देखना आसान है, क्योंकि गुरु मध्य की कड़ी है। वह कुछ तुम जैसा है और कुछ तुम जैसा नहीं। अगर तुमने वही देखा, जो तुम जैसा है तो तुम कहोगे कि क्या है, एक आदमी, हमारे जैसा ही! क्यों पूजें? क्यों चरण में सिर झुकाएं? किसको समर्पण करें? क्यों करें- क्या है खूबी- हमारे जैसा।

अगर तुमने वही देखा जो तुम्हारे जैसा है- जो कि है- और अगर तुम उसे देखोगे तो तुम दूसरे हिस्से को न देख पाओगे जो तुम्हारे जैसा नहीं है। अगर तुमने खोज की, प्रेमपूर्ण खोज की तो तुम जल्दी ही गुरु में वह भी पा जाओगे जो तुम्हारे जैसा नहीं है। बस, फिर संबंध बना और गुरु को तुम सह पाओगे, क्योंकि वह आधा तुम्हारे जैसा है। वह तुम्हारी तरफ हाथ बढ़ा सकता है और तुम्हें सहारा दे सकता है।

परमात्मा की खोज में गुरु बीच का पड़ाव है। सीधे यात्रा तुम न कर पाओगे। बीच के पड़ाव से तुम्हें विश्राम मिलेगा और बीच के पड़ाव में तुम तैयार हो जाओगे आगे की यात्रा के लिए। गुरु पाथेय है, गुरु भोजन है। वह तुम्हें तैयार कर देगा। एक दिन तुम भी उसी जगह पहुंच जाओगे- ‘सतगुरु नूर तमाम’ जहां तुम भी नूर हो जाओगे, प्रकाश ही प्रकाश हो जाओगे।

गुरु एक अनूठी घटना है। गुरु इस जगत में सबसे बड़ा चमत्कार है, क्योंकि वह होता है आदमी जैसा और फिर भी उसमें कुछ है जो आदमी जैसा नहीं है। वह किसी दूसरे लोक की खबर ले आया है। उसने कुछ देखा है- कोई नूर, कोई प्रकाश, जिसकी झलक तुम उसकी आंखों में देख सकते हो। लेकिन तुम्हारे ऊपर निर्भर है।

अगर तुमने वही देखा जो तुम्हारे जैसा है और बहुत कुछ तुम्हारे जैसा है, देह तुम्हारे जैसी है, भूख-प्यास तुम्हारे जैसी है, सोना-जागना तुम्हारे जैसा है, सुख-दुख तुम्हारे जैसे हैं। अगर तुमने वही देखा तो वह काफी है देखने को। तुम उसी में खो जाओगे, द्वार बंद हो जाएगा तुम्हारे लिए, तुम्हारे ही कारण।
अगर तुम किसी आदमी में ऐसी चीज पा लो जो तुम्हारे जैसी नहीं है तो सहारा पकड़ लेना। वह आदमी तुम्हारे लिए कीमिया हो जाएगा। उसके सहारे तुम बदलना शुरू हो जाओगे।

ऐसा ही समझो जैसे कि हम दूध को दही बनाते हैं तो एक चम्मच भर दही उसमें डाल देते हैं। गुरु बस दही की भांति है- एक चम्मच भर दही। वह तुम्हारे जैसा ही है, क्योंकि कल वह भी दूध था और अगर तुम चाहो तो तुम ऐसा भी समझ सकते हो कि वह कुछ गड़बड़ हो गया, क्योंकि खटास आ गई, तुम्हीं भले हो, कम से कम मीठे तो हो। लेकिन ध्यान रखना- दूध की दो स्थितियां हो सकती हैं एक तो है दूध का फट जाना और एक है दूध का दही हो जाना।

अगर तुमने दूध को दूध ही रहने दिया तो फट जाएगा। यह जो फटी हुई दूध की अवस्था है, यही तो हर आदमी की मौत के वक्त हो जाती है। अगर तुम जल्दी दही न बन गए तो फट जाओगे। दही बनने के लिए थोड़ी सी दही को तुम्हारे भीतर डालना पड़ेगा, क्योंकि उसी के सहारे तुम्हारे भीतर कीमिया बदलेगी, केमेस्ट्री बदलेगी, रसायन बदलेगा, तुम दही हो जाओगे जल्दी दही के सहारे। फिर आगे की यात्राएं सुगम हो जाती हैं। फिर सहारे की जरूरत नहीं रहती। फिर किसी और के सहारे की जरूरत नहीं रहती।

लेकिन, दूध से दही बनने में एक कड़ी है और वह है कि तुम्हारे भीतर कोई एक चम्मच दही हो के गिर जाए और गुरु हमेशा कड़वा लगेगा। ऐसा भी लगेगा कि यह आदमी कुछ खटास से भरा है। गुरु तुम्हें तोड़ेगा, मिटाएगा, तुम्हारी रसायन की प्रक्रिया को पूरा बदलेगा, तुम्हें चोट करेगा। उससे तुम्हें कड़वाहट भी लग सकती है और गुरु तुम्हें अपने जैसा ही लगेगा कि यह तो हमारे जैसा है।

कल दूध था, तो हो गया है, सिर्फ खट्टा हो गया है, हमीं बेहतर। अगर तुम थोड़ी देर रुके रहे तो तुम फट भी जाओगे। फिर फटे हुए दूध को दही बनाना मुश्किल है। फिर फटे हुए दूध की प्रक्रिया बिगड़ गई। फिर तो दोबारा जन्म। फिर दोबारा दूध। फिर दोबारा दही की प्रतीक्षा। फटने के पहले अगर तुमने दही को आत्मसात कर लिया, तो तुम्हारे जीवन में क्रांति घटित हो जाती है। गुरु दही की भांति है।

गुरु तुम्हारे भीतर है (Osho pravachan hindi)

गुरु ज्ञान देता नहीं, तुम्हारे ज्ञान को छीन लेता है। गुरु तुम्हें भरता नहीं, खाली करता है। गुरु तुम्हें शून्य बनाता है। क्योंकि शून्य में ही पूर्ण का आगमन हो सकता है। गुरु तुम्हें खाली करता है, ताकि परमात्मा के लिए जगह हो सके। वह पहले तुम्हें परम अज्ञानी बना देता है, क्योंकि जैसे ही तुम परम अज्ञान की प्रतीति से भर जाते हो, वैसे ही परमात्मा के द्वार खुल जाते हैं।

गुरु शब्द का उपयोग करेगा, लेकिन भली-भांति जानते हुए कि शब्द केवल भूमिका है। सत्य उससे दिया नहीं जा सकता। गुरु तुम्हारे एक कांटे को दूसरे कांटे से निकालता है। फिर कहता है दोनों कांटे फेंक दो।

गुरु का कार्य बहुत विरोधाभासी है। विरोधाभास यह है कि वह तुम्हें उकसाता है, वह तुम्हें निमंत्रित करता है और खजाने को छिपाए चला जाता है। उसे साथ ही साथ दोनों कार्य करने पड़ते हैं, उसे तुमको प्रलोभित करना है, राजी करना और फिर भी वह तुम्हे आसानी से उस तक पहुंचने भी न देगा। इन दो विरोधाभासी प्रयासों के मध्य उकसाना, सतत उकसाते रहना।

इनके माध्यम से ही तुम विकसित होओगे, तुम समृद्ध होओगे। वास्तव में जिस क्षण में तुम विकसित हो जाते तो तत्क्षण सत्य तुम्हारे भीतर दिखता है। व्यक्ति को बस उसको पहचानना भर है, लेकिन यह पहचान कठिन रास्ते से आती है। तुमको हर वह वस्तु जो तुम्हारे पास है दांव पर लगा देनी पड़ती है।

मुझे कोई रस नहीं है आध्यात्मिक व्यक्ति होने में और इत्यादि में। मैं तो जैसा है, वही कहूंगा। ये तुम्हारे जो तरह-तरह के गुरु खड़े हैं, ये तुम्हें गुलाम बना रहे हैं। ये तुम्हें राख बांट रहे हैं, विभूति कहकर तुम्हारी आत्माओं को सड़ा रहे हैं। इनसे जब तक तुम जागोगे नहीं, तब तक तुम कभी भी ज्ञान को उपलब्ध न हो सकोगे।

गुरु तुम्हारे भीतर बैठा हुआ है। नाम उसका जो भी रख लो, चाहे उसे प्यारा, पिया, परमात्मा चैतन्य, साक्षी, चाहे कहो गुरु। मगर थोथे गुरुओं ने इस तरह के वचनों का बहुत लाभ उठाया। वे यही समझाने लगे लोगों को कि गुरु के बिन ज्ञान कहां। वे समझाने लगे कि हमारे बिना ज्ञान नहीं होगा। यह अर्थ नहीं है उसका।

तुम्हारे भीतर ही तुम्हारा गुरु छिपा है। बाहर का गुरु सद्गुरु है, अगर भीतर के गुरु की याद दिला दें और बाहर का गुरु मिथ्या गुरु है। अगर बाहर ही तुम्हें उलझा ले और भीतर के गुरु तक न जाने दे, बाधा बन जाए। सौ में से निन्यानवे मौकों पर बाहर के गुरु तुम्हारे भीतर के गुरु और तुम्हारे बीच बाधा बन जाते हैं।

असल में वे तुम्हारे भीतर के गुरु से डरते हैं, वे नहीं चाहते कि तुम अपने पैरों पर खड़े हो जाओ। वे नहीं चाहते कि तुम स्वतंत्र हो जाओ। वे तुम्हें सब तरह से निर्भर बनाना चाहते हैं। निर्भरता का अर्थ है गुलामी। वे मजा लेते हैं तुम्हारी गुलामी का और जैसे और तरह की गुलामियां होती हैं, ऐसे ही मानसिक गुलामी होती है।

इस देश में तो बड़ी मानसिक गुलामी है। गांव-गांव गुरु हैं, मोहल्ले-मोहल्ले गुरु हैं। हर गुरु समझा रहा है लोगों को-गुरु बिन ज्ञान नहीं और यह इतने दिनों से कहा जा रहा है, सदियों से कि लोगों को कंठस्थ हो गई है यह बात। लोग कहते हैं होनी चाहिए ठीक। पहले भी गुरु यही कह गए हैं कि ‘गुरु बिन ज्ञान नहीं।’ तो चरण गहो किसी गुरु के, पकड़ो किसी गुरु को।

मैं उन गुरुओं में से नहीं हूं। सच पूछो तो मैं तुम्हारा गुरु नहीं हूं। मैं तुम्हारा मित्र हूं। मैं आनंदित होऊंगा तुम्हारा मित्र रहकर। मैं तुम्हें साथ देना चाहता हूं- साथी हूं, गुरु नहीं। मैं तुम्हें गुलाम नहीं बनाना चाहता। मैं तुम्हें आंखें देना चाहता हूं, तुम्हारी बैसाखी नहीं बनना चाहता।

ज्ञान तो गुरु से ही होता है, मगर गुरु तुम्हारे भीतर है। यह मध्य सत्य है। बाहर के गुरु से ज्ञान नहीं होता और बाहर के गुरु से जो लोग दावा करते हैं ज्ञान देने का, वे झूठा दावा करते हैं। ज्ञान कोई तुम्हें नहीं दे सकता। प्यास दे सकता है, तुम्हारे भीतर एक अहर्निश लपट पैदा की जा सकती है। वही बाहर के गुरु का काम है कि तुम्हें झकझोर दे, जैसे तूफान झकझोर जाए।

एक आंधी की तरह आए और तुम्हें हिला डाले, जड़ों से हिला डाले, ताकि तुम्हारी नींद टूटे। उसका दूसरा काम है कि तुम्हें फेंक दे तुम्हारे ऊपर। तुम्हें अपने कंधे पर लेकर न ढोता फिरे, न तुम्हारे कंधे पर बैठे। तुम्हें तुम्हारे ऊपर फेंक दे। तुम्हें सजग करे कि तुम्हारी अंतरात्मा में ही तुम्हारा वस्तुत: जीवन-सूत्र छिपा है। वहीं दिया जल रहा है, जो कभी बुझा नहीं है। उसी दिये में ज्ञान है और वही गुरु है।

ज्ञान बाहर से कभी मिल नहीं सकता। ज्ञान तुम्हारा अंतर भाव है, तुम्हारे भीतर के सूरज का उगना है। फिर बाहर के गुरु का क्या प्रयोजन है? बाहर के गुरु का प्रयोजन वही है जो बाहर के संगीत का होता है। जब कोई तबले पर ताल देता है, तो तुमने अनुभव किया, तुम्हारे पैर नाचने को उत्सुक हो उठते हैं। क्या हुआ? क्या हो गया? इधर तबले पर ताल पड़ी, किसी ने मृदंग बजाई, उधर तुम्हारे पैरों में क्या होने लगा? कैसी हलचल? तुम नाचने को उत्सुक होने लगे।

यही काम है बाहर के गुरु का, कि वह बाहर की मृदंग बजा दे, कि बाहर की बांसुरी बजा दे, कि बाहर की वीणा छेड़ दे, कि उसके समस्वर तुम्हारे भीतर जो सोए पड़े हैं, उन पर टंकार पड़ जाए। तुम्हें याद आ जाए अपने भीतर की।

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