क्रियाशीलता जीवन है और निष्क्रियता साक्षात् मृत्यु है। रोटी, कपड़ा और मकान ये जीवन की तीन सबसे बड़ी जरूरते हैं, इन तीनों की प्राप्ति के लिए क्रियाशील होना बहुत जरूरी है। जीवन में सुख, दु:ख दोनों आते हैं, दोनों ही स्थिति में क्रियाशीलता बहुत जरूरी है। भगवान विष्णु के दशावतारों में से एक भगवान श्री कृष्ण को कर्मवाद का सबसे बड़ा प्रतीक माना जाता है। कर्म ही पूजा है, ऐसा कहा भी गया है। जीवन रूपी गाड़ी चलाने के लिए सक्रियता बहुत आवश्यक है। भगवान श्री कृष्ण के जन्म दिन को हर वर्ष श्रीकृष्ण जन्माष्टमी के रूप में पूरे देश में मनाया जाता है। इस वर्ष भी 23 अगस्त को पूरे देश में श्रीकृष्ण जन्माष्टमी का पर्व मनाया जाएगा। इस दिन हर ओर भगवान श्रीकृष्ण के जयकारे लगते हैं, पूरा देश भगवान श्री कृष्ण का उपासक बन जाता है, लेकिन भगवान श्री कृष्ण की आराधना केवल भजन, कीर्तन, प्रसाद वितरण तक ही सीमित नहीं है, उसे भारतीय जीवन दर्शन के रूप में अगर देखना है तो भगवान श्री कृष्ण के कर्मवाद को समझना बहुत आवश्यक है। 

श्रीमद्भागवत गीता में कहा भी गया है कि ‘कर्मण्येवाधिकारस्ते मां फलेषु कदाचन:’ इसका आशय यह है कि कर्म करो पर फल की इच्छा मत करो। जब भगवान कोई काम करने की बात करते हैं तो उनका आशय सद्कर्म करने से ही होता है। दुष्कर्म करने वाला पाप का भागी होता है और सत्कर्म करने वाला पुण्य अर्जन करता है। विश्व के सभी धर्मों में कहा गया है कि हम जो कर्म करते हैं, वैसा ही फल हम प्राप्त करते हैं। दूसरे शब्दों में इसे इस तरह से समझा जा सकता है कि हम जैसा बीज बोएंगे, वैसा ही फल हमें प्राप्त होगा। ईश्वर न्यायशील है, वह अच्छे कर्मों का फल अच्छा और बुरे कर्मों का बुरा फल ही देता है। 

भगवान श्री कृष्ण कर्मवाद के प्रबल समर्थक थे, इसलिए उन्होंने संपूर्ण गीता में कर्म को ही सबसे ज्यादा महत्त्व दिया। कर्म का शाश्वत और सार्वभौम नियम विश्व की नैतिक व्यवस्था का मूलाधार है, इसे उपनिषदों में और अधिक स्पष्ट रूप में उल्लेखित किया गया है। बृहदारण्यकोपनिषद् में यह कहा गया है कि मनुष्य का कर्म ही उसके साथ जाता है। आत्मा का जैसा चरित्र एवं व्यवहार होता है, वह वैसा ही हो जाता है। छांदोग्योपनिषद् की मानें तो सुंदर चरित्र वाले व्यक्ति को मौत के बाद अच्छी योनि प्राप्त होती है। कौषितकी उपनिषद् में यह बात स्पष्ट तौर पर कही गयी है कि जीव अपने कर्म और ज्ञान के अनुसार मछली, पक्षी, सिंह, सर्प योनियों में जन्म लेते हैं। प्राणियों का जन्म, उनका विकास, उनके सुख दु:ख की अनुभूति कर्म के माध्यम से ही नियंत्रित होता है, उन्हें उनके कर्म के अनुरूप ही फल की प्राप्ति होती है। ‘कर्म’ नियम के जीवन की नैतिक व्यवस्था का आधार होने के कारण अनेक समस्याओं का समाधान भी होता है। जीवन दु:खमय है, वह अनेक प्रकार की बुराइयों तथा विषमताओं से भरा हुआ है। इन सबका कारण क्या है? भारतीय दार्शनिक नागसेन का दावा है कि कर्मों के अंतर के कारण ही सभी मनुष्य समान नहीं होते। कुछ लोग दीघार्यु प्राप्त होते हैं तो कुछ अल्प आयु में ही दुनिया छोड़कर चले जाते हैं। कुछ लोगों को आजीवन स्वास्थ्य संबंधी परेशानियों का सामना करना पड़ता है तो कुछ लोग आजीवन आर्थिक तंगी का सामना करते रहते हैं। वेदांत की मानें तो ईश्वर जीवों के कर्म के अनुरूप ही उन्हें विभिन्न फल प्रदान करता है, उसमें वह कोई पक्षपात नहीं करता।

कर्म और उसके फल का अनिवार्य संबंध मानने में एक तकनीकी परेशानी भी सामने आती है, वह यह कि कर्म और उसके फल में अधिक समय का अंतर देखा जाता है। यह भी संभव है कि वर्तमान जीवन में किए गए कर्मों का फल मनुष्य को दूसरे जन्म में भी भोगना पड़े। पूर्व में किए गए कर्म मनुष्य के अंतस में विशेष प्रकार की प्रवृत्तियों का संचार कर सकते हैं, लेकिन उसे किसी विशेष प्रकार का कार्य करने के लिए मजबूर नहीं कर सकते। भारत में अधिकांश लोग भाग्यवादी हैं। ज्यादातर लोगों की मानसिकता ऐसी है कि-

अजगर करे न चाकरी, पंछी करे न काम। 

दास मलूका कह गए, सबके दाता राम।।

(अजगर कोई काम नहीं करता, पंछी कभी काम नहीं करता लेकिन फिर भी सबको रोटी मिलती है। कुछ करने की जरूरत नहीं है। राम भरोसे बैठकर रहो खाट पर सोए) यह बात सौ फीसदी सच है कि हम इतने ज्यादा भाग्यवादी हो गए हैं कि स्वयं को कमजोर कर बैठे हैं। भगवान श्री कृष्ण ने कहा है कि जीवन में आने वाली सभी चुनौतियों और समस्याओं का दृढ़तापूर्वक सामना करने वाला व्यक्ति ही सुखी होता है। जीवन में आई समस्याओं का सामना न करके जो पलायन करते हैं, उनके दुख सदैव बने रहते हैं। भगवान कृष्ण ने श्रीमद्भागवत गीता में यह बात बड़ी प्रखरता से कही है कि अगर कोई व्यक्ति कायरता को वीरता में, मृत्यु को अमरता में बदलने में सफल हो जाता है तो उसके जीवन में आनंद ही आनंद रहता है।  देवी भागवत महापुराण में इस बात पर विशेष जोर दिया गया है कि अगर कोई व्यक्ति बहुत मेहनती है, बहुत साहसी है, बड़े धैर्य वाला है, तो उसको जीवन में अपार सफलता मिलती है। जीवन में सफलता प्राप्ति के लिए दो चीजें बहुत जरूरी हैं, एक गुरु का आशीर्वाद और दूसरा उसके द्वारा अपने भक्त के लिए की गई ‘प्रार्थना’। मेल मिलाप के माध्यम से हर कोई अपने जीवन को सफल सुंदर बना सकता है।  

श्रीमद्भागवत कथा पठन से व्यक्ति को अच्छे-बुरे की समझ हो जाती है। भागवत कथा का श्रवण मानव जीवन को सजाता है और आत्मिक ऊर्जा से उसे सत्य के आचरण पर चलने के लिए प्रेरित करता है। भागवत कथा हमें यह भी सीख देती है कि गलत कुछ दिखे, चाहे वह स्वयं के संदर्भ में हो या किसी अन्य के संदर्भ में उसका प्रतिकार हर कीमत पर किया ही जाना चाहिए। भगवान श्रीकृष्ण के कर्मवाद का संदेश आत्मसात करने से भी कई प्रकार के कष्ट तो दूर होते ही हैं, साथ ही मानव का जीवन पूरी तरह से सुखी हो जाता है। भगवान श्री कृष्ण के जीवन के विभिन्न पहलुओं का अध्ययन करने पर इस बात का पता चलता है कि उनके जीवन की धारा एक सामान्य व्यक्ति के जीवन शैली को रेखांकित करती है। मर्यादा पुरुषोत्तम भगवान श्री राम तथा कर्मशील भगवान श्री कृष्ण के जीवन दर्शन में अनेक असमानताएं हैं, बावजूद इसके अगर किसी को अपने जीवन में सफलता अर्जित करनी हो तो उसे अपने जीवन में भगवान श्रीराम के 

आदर्शवाद को अंगीकार करने के साथ साथ भगवान श्रीकृष्ण के कर्मवाद को भी स्वीकारना होगा। सार रूप में कहें तो भगवान श्रीकृष्ण का जीवन आम मानव के जीवन में आने वाले विविध पक्षों के बारे बताता है, जबकि भगवान श्रीराम का जीवन दर्शन मर्यादित जीवन की उच्च पराकाष्ठा है। 

भगवान श्रीराम को सत्यमेव जयते का सबसे बड़ा प्रतीक कहा जाए तो उसमें कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी। दूसरी ओर भगवान श्रीकृष्ण का जीवन दर्शन कर्मवाद, क्रियाशीलता का सबसे बड़ा प्रतीक है, जन्माष्टïमी के अवसर पर उनके कर्मवाद को अंगीकार करके पूरे दिन सक्रियता का संदेश देकर भगवान श्रीकृष्ण के कर्मवाद को जन जन तक पहुंचाने का संकल्प ही भगवान कृष्ण के प्रति हम सभी की गहन आस्था का परिचायक माना जाएगा। श्रीकृष्ण के एक नहीं अनेक नाम हैं और जिस नाम के साथ वह अपने भक्तों के सामने आते हैं, उस नाम से उसकी पहचान भक्तों के बीच होती है, इसलिए चाहे भगवान श्रीकृष्ण की आराधना किसी भी रूप में की जाए, उनके भक्त को यह नहीं भूलना चाहिए कि भगवान श्रीकृष्ण अपने हर भक्त से यही चाहते हैं कि वह क्रियाशील रहे, सक्रिय रहे और मानव मात्र की निरंतर सक्रियता ही भगवान श्रीकृष्ण के कर्मवाद का मूलाधार है। क्रियाशीलता मानव की प्रगति का सूचक है और भगवान श्रीकृष्ण भी अपने भक्तों को क्रियाशील रखते हुए उसकी प्रगति की कामना करते हैं, इसलिए भगवान श्री कृष्ण जब अपने भक्तों को क्रियाशील स्थिति में देखते हैं तो वे बड़े प्रसन्न होते हैं। भगवान श्री कृष्ण की लीलाएं, उनका कर्मवाद तथा श्रीमद्भागवत में उनकी कही गई बातों पर अगर गंभीरता से ध्यान दिया जाए तो मानव की प्रगति कोई रोक नहीं पाएगा, इसलिए अगर भगवान श्री कृष्ण के कर्मवाद को ही भारतीय जीवनशैली का सफल सूत्र कहा जाए, तो इसमें कुछ गलत नहीं होगा।

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