भारत कथा माला
उन अनाम वैरागी-मिरासी व भांड नाम से जाने जाने वाले लोक गायकों, घुमक्कड़ साधुओं और हमारे समाज परिवार के अनेक पुरखों को जिनकी बदौलत ये अनमोल कथाएँ पीढ़ी दर पीढ़ी होती हुई हम तक पहुँची हैं
नन्हे-नन्हे लाल फूल बने थे उस गुलाबी छतरी पर। किनारे की लाल जालीदार लेस भी दूर से ही दिखती थी। एक अलग सी, खूबसूरत सी छतरी । तभी तो मेरा ध्यान खिंचा। वह छतरी हमारे पुरातनपंथी पहाड़ी कस्बे के हिसाब से बेहद फैशनेबल थी। यहाँ स्त्री हो या पुरुष, सभी वही मर्दाना काला छाता लेना पसंद करते हैं। जब तड़-तड़ ओलों और हवा के थपेड़ों के साथ बारिश होती है, तो वही छाता काम आता है। वह नाजुक सी छतरी क्या झेल पायेगी उस बारिश को। स्पष्ट था कि वह छतरी कहीं बाहर की थी।
और छतरी वाली भी कहीं बाहर की ही लगती थी। वरना हल्की गुनगुनी धूप में, जब बादलों का नामोनिशान न हो, छतरी लेकर क्यों निकलती? रोज अपनी छतरी के साथ शमशान के पास वाले तिकोनिया पार्क में जाकर बैठ जाती थी और बेचैनी के साथ अपनी छतरी कभी खोलने, कभी बंद करने लगती थी। इतना अजीब लगता था मुझे यह सब कि अपनी जान जोखिम में डाल मैं रोज ही उसे देखने लगता।
बात अटपटी होती जा रही है। शायद पहले अपना परिचय देना जरूरी है। मेरी जगह क्या थी, उसकी जगह क्या थी, यह सब बताना भी जरूरी है। तभी बात को ठीक से समझा पाऊंगा।
मैं शेखर! शेखर कमार उम्र तेईस वर्ष एम.ए. राजनीति शास्त्र प्रथम श्रेणी, नौकरी की तलाश जारी, छोटे-मोटे कंपटीशन की तैयारी। छोटे से पहाड़ी कस्बे गुलाबगढ़ में रहता हूँ| यहाँ के लड़के ज्यादा नहीं पढ़ते। थोड़ा-बहुत अंग्रेजी ज्ञान एकत्र कर पास वाले बड़े हिल स्टेशन पर चले जाते हैं। सीजन भर गाइड का काम करते हैं। सामान बेचते हैं, होटलों में नौकरी करते हैं। ठंड के कुछ महीनों में अपने घर लौट आते हैं। घर-परिवार, खेती-बाड़ी देखते हैं और आराम करते हैं। हम लोगों को न तो ज्यादा की भूख है, न ही चोरी-चकारी की आदत। जो है, जैसा है उसी में खुश।
मेरे पिताजी ने बहुत चाहा कि मैं ऊंचा अफसर बनूं। पर जब मेरी ही इच्छा गुलाबगढ़ को छोड़कर जाने की न थी, तो वे क्या कर सकते थे? हार मानकर अपनी छोटी से दुकान पर बैठते रहे और मेरे साथ बहस करना बंद कर दिया।
ठीक ही रहा। आठ साल पहले मेरी दीदी की शादी हो चुकी है। अब तो पुश्तैनी मकान और दुकान हम तीनों – माँ, पिताजी और मेरे गुजारे के लिए काफी है। वैसे भी गली-मोहल्ले वाले अक्सर पिताजी से मेरी तारीफ करते हैं, “शेखर लड़का नहीं, हीरा है।” पिताजी के दुर्बल चेहरे पर हल्की सी मुस्कान खिल जाती है, “अरे, बड़ा शरारती है।” पर उनकी आँखों की रीझ बताती है कि वे मुझे अपना हीरा ही मानते हैं।
हमारे इस सुस्त-सुप्त कस्बे में एक मात्र जाग्रत जगह है, ‘चंडी माई का थान’ । कस्बे से थोड़ा बाहर बना है यह मंदिर। एकदम जीवंत देवालय है। मैं तो डर के मारे वहाँ कभी नहीं जाता कि मेरी शक्ल देख चंडी माँ मेरे अंदर तक का हाल जान लेंगी। कहते हैं कि एक बार अर्जी लगानी है माई को। बाकी जिम्मेदारी माई की और आपका काम बन गया।
इस माई के थान के रास्ते में एक ढाबा है, चाय का ढाबा। ढाबे के बगल में पत्रिकाओं की दुकान है। मेरे दोस्त विजय के पिताजी की है। इस सुनसान रास्ते पर इस दुकान का औचित्य मुझे आज तक समझ नहीं आया। ढाबा तो ठीक है। देवी दर्शन करने वालों के लिए सुबह-शाम चाय का प्रबंध हो जाता है। किंतु इस छोटे से पहाड़ पर बासी-कूसी पत्रिकायें लेकर रोज दुकान खोलने का औचित्य क्या है? दुकान चलती-चलाती भी नहीं है। पर अंकलजी हफ्ते के सातों दिन इसे खोलते हैं। पूरे शहर में उनकी पांच-छ: दुकानें हैं-जनरल स्टोर, कास्मेटिक स्टोर, मेडिकल स्टोर, पीसीओ तथा सरकारी दुग्ध-डेयरी। ऐसे में यदि ‘बुक स्टोर एंड मैगजीन सेन्टर’ से कोई आमदनी नहीं होती, तो भी उन्हें फर्क नहीं पड़ता।
अंकलजी इस दुकान को अपनी साख का सूचक मानकर खुद ही संभालते हैं। सुबह-शाम यह दुकान बड़े-बुजुर्गो का डेरा बनती है। कस्बे भर के सीनियर सिटिज़न यहां जमा होते हैं। पत्रिका-अखबार पढ़ते हैं। कभी-कभार खरीदते भी हैं। देश और दुनिया पर चर्चा करते हैं। कभी घर-परिवार का रोना रोते हैं, तो कभी अपनी खुशियाँ बांटते हैं। साथ-साथ ढाबे वाली चाय चलती रहती है। दुःखी हैं, तो मूड ठीक करने के लिए पकौड़े खाते हैं। खुश हैं, तो तुरंत ढाबे वाले से बूंदी छनवाते हैं। चाशनी में मिलवाकर बांटकर खाते हैं। यह सब देखकर अच्छा लगता है।
पर दोपहर! दोपहर को अंकल जी घर पर आराम करते हैं। ढाबे पर ताला पड़ जाता है। मैगज़ीन शॉप पर ताला नहीं पड़ता। दोपहर को दुकान देखने की जिम्मेदारी मेरे दोस्त विजय की है। इसी साल एम.ए. में फेल हुआ है। आगे पढ़ने का उसका कोई इरादा नहीं है। बारह बजे दोपहर से शाम पांच बजे तक इसी दुकान पर बैठता है। नहीं, गलत कहा मैंने। वह तो बारह से दो तक बैठता है। दो से चार मुझे बैठाता है। क्यों? क्योंकि दो बजे वह अपनी गर्लफ्रेंड जूही को लेकर घूमने जाता है। कभी पास की पहाड़ी, कभी नीचे वाली नदी, कभी झील, पार्क या सिनेमा, बाजार आदि । और चार तक वापस आ जाता है।
अंकल कभी नहीं जान पाते कि वह दुकान से गायब है। दो घंटों की जिम्मेदारी मैं बखूबी निभाता हूँ| आखिर दोस्त हूँ|
और यह विजय, मेरा यार! यह भी तो दिलदार है। सात-आठ साल पहले जब हम ग्यारहवीं-बारहवीं कक्षा में थे, तो मेरी गर्लफ्रेंड बिन्नी के लिए गिफ्ट की सप्लाई यही करता था। अपने पिताजी की कॉस्मेटिक्स शॉप से कभी चूड़ी-कंगन, कभी क्लिप-कंघी, कभी लिपस्टिक-पाउडर-काजल–बिंदी, कभी स्टोल तो कभी स्कार्फ उठा लाता था। हर आठ-दस दिन बीतते न बीतते चाट खिलाने के पैसे भी दे देता था। मैं मना करता, तो विजय कहता, “रख ले यार, वक्त आने पर उतार देना। अभी तो अपनी गर्लफ्रेंड को खुश रख । तू नहीं जानता कि आज के समय में गर्लफ्रेंड होना कितना जरूरी है। यदि एक ढंग की लड़की से दोस्ती न हो, तो बाकी लड़के घामड़ समझते हैं।”
“अच्छा!” बात अटपटी लगती पर मैं चुपचाप मान लेता।
बिन्नी के साथ दोस्ती कर मैं शान बढ़ाने का काम कर रहा हूँ, मैं ऐसा नहीं मानता था। वह तो मेरे पड़ोस में रहती थी। स्कूल जाते समय उसकी मम्मी ही कहती, “शेखर बेटा, रास्ते में बिन्नी का ख्याल रखना।” ।
मैं सिर हिला देता। हम दोनों साथ-साथ चल देते। बिन्नी तो और भी मजेदार लड़की थी। घर से थोड़ा आगे जाते ही अपना बैग भी मुझे लदा देती, “ले शेखर पकड़, मेरी बांह में दर्द है।”
यही स्कूल से निकल कर वापस लौटते समय होता। उसकी बांह का दर्द पूरे दो साल बरकरार रहा।
अब किसी का बैग लादकर गदहे की तरह चलने में क्या शान है, मैं नहीं समझ पाता था। पर विजय मेरा गुरू था। वह जो कहता, मैं मान लेता था। विजय के दिये छुट-पुट सामान यह कहकर बिन्नी तक पहुंचाता, “इसे रखो बिन्नी, तुम्हारे लिए गिफ्ट है। मैंने कई दुकानें घूम कर यह क्लिप पसंद की है।”
“ओह, बैंक्स शेखर,” वह क्लिप लेकर कहती तो मैं खुश हो जाता। बिना पैसा खर्च यदि बैंक्स मिल रहा है तो क्या बुरा है। मेरा तो मन करता था कि विजय से कहूँ कि तू ही बिन्नी को अपनी गर्लफ्रेंड बना ले, तू खुद ही गिफ्ट पहुंचा दे। पर हिचक जाता था। क्योंकि आंटी ने बिन्नी की जिम्मेदारी मेरे ऊपर डाली थी। यह तो नहीं कहा था कि किसी लपाड़िया के साथ इसे फंसवा दो। इसीलिए मैं भी बिन्नी का बॉडीगार्ड, क्लासमेट, पड़ोसी, दोस्त, नौकर बन कर खुश रहता।
जब विजय ने मुझसे कहा कि दुकान पर दो से चार बजे तक बैठ लिया कर, तो मुझे बुरा न लगा। विजय का मेरे ऊपर अहसान है, उसके लिए कुछ करना मुझे अच्छा लगता है। यों भी मेरी कौन सी गर्लफ्रेंड बैठी है, जिसके साथ मुझे दो से चार घूमना है। भई, मैं तो खाली हूँ, मन चाहे तो पूरे दिन की ड्यूटी दे दो।
और बिन्नी! उसकी तो बी.ए. के पहले साल में ही शादी हो गयी। अब मायके आती है, तो गोद में लल्ला लिए इधर-उधर घूमती रहती है। अपने बच्चे से कहती है, “शोभित देख, तेरा मामा, शेखर मामा।”
धत्, ऐसी की तैसी गर्लफ्रेंड की! वह तो कहो कि शोभित-बच्चा समझदार है। मेरे लिए ‘मामा’ शब्द सुनकर ‘न’ में सिर हिलाता है और अपनी माँ से चिपक जाता है।
“तेरे से डरता है, जब पहचान लेगा, तो तेरे पास ही जायेगा।” कहती हुई बिन्नी बच्चा लेकर मेरी माँ से मिलने चली जाती है।
मुझे लगने लगा है कि हमारा कस्बा इतना भी पुरातनपंथी नहीं है, जितना मैं समझता हूँ। काफी एडवांस है। पहले जमाने की लड़कियाँ प्रेम-प्रेम में पड़कर जान दे देती थीं। पर आज की ऐसी नहीं होतीं। बिन्नी को ही देख लो। मेरे साथ दो साल घूमी, घर से स्कूल, स्कूल से घर । और अठारह-उन्नीस की होते ही अपनी मौसी के बताये रिश्ते पर शादी के लिए हामी भर दी। ससुराल में रहते हुए बी.ए. की पढ़ाई की। मेरे सारे नोट्स की फोटो कॉपी से पढ़, बी.ए. में मुझसे ज्यादा नम्बर लाई।
यदि पुराने समय की होती, तो हो सकता है कि लैला-मजनू वाला ड्रामा करती। उस स्थिति को मैं संभाल भी न पाता। मुझे बिन्नी जैसी पत्नी नहीं चाहिए। मेरे ख्वाबों में तो मेरे माँ-पिताजी की सेवा करने वाली पत्नी बसी है। और यह बिन्नी, यह तो अपने छोटे-छोटे काम आज भी मेरे से करवाती है। माँ-पिताजी की सेवा कब करती? फिजूल ही एक बखेड़ा और होता।
अच्छा ही हुआ, जो उसने घरवालों के कहे अनुसार शादी कर ली। उसकी शादी में बैंड की धुन पर बारातियों के साथ मैं घंटों नाचा और फिर दौड़-दौड़कर बारातियों को पूड़ी-सब्जी भी परोसी। क्यों? क्योंकि बिन्नी की ससुराल और मेरी दीदी की ससुराल एकदम अलग-बगल है। मिलना-जुलना लगा ही रहेगा, यदि ठीक से आचरण न किया, तो आगे क्या मुँह दिखाऊँगा?
मैंने अपना हित सोचा और विजय ने मुझे जी भरकर लताड़ा। कहने लगा, “तेरे अंदर सच्चे आशिक वाले गुण नहीं हैं। यदि जरा भी होते, तो क्या अपनी माशूका को इस तरह डोली में बैठाकर विदा करता । तू तो पूरा घामड़ है। यही हाल रहा, तो एक दिन माँ-पिताजी की बताई लड़की से फेरे लेने होंगे और यदि नहीं लेगा, तो बैरागी बनना पड़ेगा।” ।
विजय की झल्लाहट से मझे फर्क नहीं पड़ता। बाबा-बैरागी तो मैं होने से रहा। यह क्या बात हुई कि पड़ोस वाली लड़की की शादी हो जाये, तो सफी गाने सनने शरू कर दो। मैं तो पॉप, हिपहॉप, साल्सा सनंगा। कोई रोक थोड़े ही है कि गर्लफ्रेंड की शादी के बाद अंग्रेजी गाने नहीं सुन सकते।
पॉप म्यूजिक से याद आया। विजय की किताबों की दुकान पर एक म्यूजिक सिस्टम रखा है। जिस पर हम दोनों दोस्त चित्र विचित्र गाने सुनते रहते हैं। वो वाला अंग्रेजी गाना भी, जिसमें ‘पिछवाड़ा झूठ नहीं बोलता’ जैसे शब्द हैं। एक विदेशी गायिका ने कूल्हे हिला हिला कर गाया है।
कुछ दिन पहले मैं उसी दो से चार वाली ड्यूटी पर था। विजय जूही के संग घूमने गया था। दुकान पर ग्राहक नाम का परिन्दा भी नहीं था। हमारा मनपसंद गाना तेज आवाज में बज रहा था। पास वाले ढाबे का मालिक ताला डालकर घर गया था। ढाबे का नौकर नंदू चार बेंचों को आपस में मिलाकर लेट गया था। दो मोटे कंबलों के नीचे से उसके खर्राटे सुनाई दे रहे थे। उनसे बचने के लिए मैं म्यूजिक सिस्टम की नॉब घुमा-घुमाकर आवाज तेज करने की नाकाम कोशिश करता रहा।
अकेलेपन, खर्राटों और गाने से ऊब कर आठ फुटी सड़क पारकर मैं गुनगुनी धूप में रेलिंग के पास खड़ा हो गया। सड़क के इस तरफ घाटी की सर्पाकार सड़कें उतरती दिखाई देती हैं। वे पेड़ों से भरी हैं। अतः पेड़ों के शीर्ष और छोटे-मोटे नजारे ही नजर आते हैं। दो सड़क नीचे म्यूनिसिपैलिटी का तिकोना पार्क है, जिसमें कुछ बेंच पड़ी हैं। पेड़ों के बीच से एक बेंच बिल्कुल साफ दिखती है, जो हमेशा खाली पड़ी रहती है।
उस दिन अचानक पेड़ों के बीच झांकने पर बेंच की जगह गुलाबी छतरी दिखी। हाँ वही छतरी जिसकी कहानी आपको सुना रहा हूँ। लाल फूलों से भरी छतरी। लाल लेस से सजी छतरी।
मैं चौंक गया। हल्की धूप खिली है। बारिश का नामोनिशान नहीं। फिर यह छतरी वाला कौन है? मन किया चिल्लाकर पूछं। पर डर गया। छतरी बाहर की लग रही थी, तो छतरी वाला भी बाहर का ही होगा। क्या सोचेगा वह? इसी बीच छतरी बंद हुई, फिर खुली, तो पता चला कि छतरी पकड़े कोई लड़की बैठी है।
भगवान का स्वरूप-एक ग्राहक-दुकान पर आता दिखा, तो सड़क की रेलिंग छोड़ मैं लौटा। दुकान में रखी कुर्सी पर बैठ गया। ग्राहक ने पन्द्रह मिनट में तीन मैंगजीन के तीन सौ पन्ने पलटे और तीनों की तीनों वहीं छोड़कर वापस लौट गया।
जिस क्षण ग्राहक ने सडक का रास्ता पकडा. मैं रेलिंग की ओर दौडा। बेंच खाली पड़ी थी। छतरी वाली कहीं नजर नहीं आ रही थी।
इस घटना के अगले दिन मैंने यों ही उत्सकतावश रेलिंग तक जाकर नीचे झांका। छतरी और लड़की आज भी दिखे। मैं आश्चर्य से भर गया। यह तिकोनिया पार्क कोई ऐसा पिकनिक स्थल नहीं, जिसके आकर्षण में पर्यटक बार-बार जायें। लोकल लोग तो उस तरफ कभी जाते ही नहीं। उसके बगल में ही शमशान है। अतः बेजरूरत वहाँ जाना सभी टालते हैं। हाँ एकान्त की दृष्टि से अच्छी जगह है। आप घंटों बैठे रह सकते हैं। आकाश-पाताल की बातें सोच सकते हैं, कोई डिस्टर्ब नहीं करेगा।
वह लड़की बैठी रही, मैं ऊपर से झांकता रहा। देव कृपा से आज भी एक ग्राहक आता दिखा। मुझे दुकान पर लौटना पड़ा। ग्राहक के जाने के बाद जब मैंने नीचे झांका, तो बेंच खाली थी।
इसके अगले दिन मैं अपनी ड्यूटी पर दो बजे की जगह डेढ़ बजे ही जय खाली बैठा मक्खियां मार रहा था। मुझे देखते ही खिल “क्या बात है, यार हो तो ऐसा। आज मुझे जूही को लेकर सिनेमा जाना है। अच्छा हुआ, जो तू जल्दी आ गया।”
वह अपनी बाइक उठाकर भागा। दो बजे जूही का स्कूल छूटता है। वह इंटर कॉलेज में टीचर है। स्कूल के बाद विजय के संग घूमने की परमीशन उसके माता-पिताजी ने दे दी है। इसीलिए विजय का दिमाग सातवें आसमान पर रहता है।
उसके जाते ही, सड़क पार कर मैं भी रेलिंग पर लटक गया। “शेखर भाई, नीचे मत टपक जाना।” कहकर नंदू अपनी दोपहर की नींद की खुराक लेने कंबलों के नीचे घुस गया। मैं बेखौफ, बेरोकटोक रेलिंग पर लटका रहा।
ठीक दो बजे छतरी दिखी। छतरी वाली आकर बेंच पर बैठ गयी। बेचैनी से छतरी को खोलती बंद करती रही। कौन है यह लड़की? ऊपर से देखने से पता नहीं चल पा रहा। मैं उत्सुकता से मरा जा रहा था- हमारे पहाड़ की है क्या? किसका इंतजार कर रही है? कौन है ऐसा, जो वादा करके निभा नहीं रहा है?
मेरा मन गुस्से से भर गया। वादा करके ना निभाना मुझे हमेशा कुढ़ाता है। पर यह कुढ़ना उस गुस्से से अलग था, जो बिन्नी की शादी तय होने की सूचना से आया था। हाँ गुस्सा तो मुझे उस दिन भी आया था, जब बिन्नी ने मुझे बताया था कि बी.ए. की पढ़ाई वह ससुराल जाकर पूरी करेगी, उसकी शादी तय हो चुकी है, अगले महीने की तारीख निकली है।
“पहले क्यों नहीं बताया?” मेरे मुँह से निकला था, “मैंने तो तेरे लिए नई क्लिप खरीदी है।”
“ला दे दे, ससुराल में काम आ जायेगी। शादी कर रही हूँ। कोई गंजी थोड़े ही हो रही हूँ।” मेरे हाथ से क्लिप छीनते हुए बोली।
क्या यार, शादी करनी थी, तो पहले बता देती। मैंने इस क्लिप के लिए विजय से पैसे मांगे। बिना बात कर्जा बढ़ाया।” मेरे मुँह से निकल गया।
“तो वापस कर आ।” वह तमतमा गयी, “ले रख अपनी क्लिप। वह वाली भी लौटा दूंगी, जो पिछले हफ्ते दी थी। नई की नई रखी है। मुझे तो पसंद भी नहीं आई थी।”
“अरे, अरे, नाराज मत हो, मैं तो मजाक कर रहा था।” मैं घबरा गया, “यह तो तेरे लिए गिफ्ट हैं। पसंद नहीं आये, तो ससुराल में बांट देना।”
वह क्लिप लेकर इतराती हुई चल दी और मैं सच में मन ही मन कुढ़ता रहा कि विजय की वजह से कितना मूर्ख बना। पड़ोसिन से भी कोई इश्क किया जाता है। जितने पैसे इसके ऊपर खर्च किए, उतने में तो एक साइकिल खरीद लेता, यों पैंया-पैंया तो न चलना पड़ता।
सच बहुत गुस्सा आया था उस दिन । मानो बेमन से खेले जुए में हारने से पैसा डूब गया हो। या किसी दौड़ में लोगों ने जबरन दौड़ाया हो और मैंने भरसक प्रयास के बाद भी अंतिम स्थान प्राप्त किया हो।
उस दिन का गुस्सा था मानो मैं कुछ करना न चाह रहा हूं और लोग जबरन करवा रहे हों। आज का गुस्सा तो ऐसा था कि मैं कुछ करना चाह रहा हूं और लोग मुझे करने से रोक रहे हों। पर मैं क्या करना चाहता हूँ, मैं समझ नहीं पा रहा था। बस लड़की की बेचैनी मुझे बेचैन कर रही थी।
ऊपर से देखने से वह गौरवर्ण की दुबली-पतली, खूबसूरत लड़की लगती थी। कौन इसे इंतजार करा रहा है? यदि मेरी गर्लफ्रेंड होती तो! तो मैं इसे कतई इंतजार न कराता, मन ने कहा।
काश मेरी गर्लफ्रेंड इतनी गंभीर होती। मेरे लिए इंतजार करती, काश! पर मेरी गर्लफ्रेंड तो मुझे कर्जे में दबा, अपनी शादी रचाकर चल दी और उसी के एवज में मुझे यह ड्यूटी करनी पड़ रही है। यदि ड्यूटी न करनी होती, तो पास की पगडंडी से उतरता। दो सड़क की ही तो बात है। नीचे जाकर छतरी वाली से दोस्ती कर लेता। न सही दोस्ती, कम से कम पता तो करता कि माजरा क्या है? किसका इंतजार करती है, इस तरह से। आज तो फोन हैं, ई मेल हैं, क्यों नहीं बुला लेती, जिसे बुलाना चाहती है। या मुझे ही बता दे उसका पता, मैं मध्यस्थ का काम भी करने को तैयार हूँ|
दुकान पर फोन बजा। मैंने जाकर उठाया। विजय के पापा का था। उन्हें समझा दिया कि विजय लघुशंका के लिए पास तक गया है। ‘कब लौटेगा’ का उत्तर दिया, ‘यही कोई एक घंटे में!’ अंकल ने फोन रख दिया। मैं सड़क पार कर रेलिंग की तरफ दौड़ा। लड़की गायब थी।
अर्थात् दो से तीन बजे तक इंतजार करती है वह । पर आखिर है कौन?
अगला दिन! चौथा दिन! रेलिंग तपस्या!
जी हाँ, पहाड़ी सड़कों पर रेलिंग पर लटकना और पेड़ों के बीच से सिर घुसा-घुसाकर झांकना एक साधना है। कहीं से भी रेलिंग का ज्वाइंट कमजोर हो तो रेलिंग और झांकने वाला दोनों नीचे घाटी में | या रेलिंग नीचे घाटी में और इंसान ऊपर आकाश में।
जो भी हो, लड़की रोज की तरह बेचैनी से कभी छतरी खोलती, कभी बंद करती रही। और मैं अपनी जगह पर लटका उसे देखता रहा। बीच-बीच में वह उठकर टहलने लगती, तो मैं भी उसकी गति के साथ अपनी गर्दन को ऊंचा नीचा करके उसे देखने का हर संभव प्रयास करता रहा।
अचानक मैं सनाका खा गया। वह बेंच पर बैठ रोने लगी थी। कभी अपनी गोदी में मुंह छिपा लेती, कभी बेंच के हत्थे पर सिर रख लेती, कभी रुमाल से आंसू पोंछती। मेरे मन में एक अनजाना भय भर गया। क्यों रो रही है, किसी ने इसे धोखा दिया है क्या? अब! क्या करेगी? कहीं घाटी में कूद गयी तो।
मैं सहम गया। न, ऐसा नहीं होना चाहिए। इस लड़की का जीवित रहना जरूरी है। ऐसा लगने लगा कि घाटी की सारी रौनक, सारी जीवंतता उस पार्क और बेंच पर सिमट गयी है। और वही रौनक रो रही है, आखिर क्यों? अपने प्यार के लिए यहाँ सुनसान में आंसू बहा रही है, तो उसके पास चली क्यों नहीं जाती। झगड़ा हो गया है, तो खत्म करने की पहल कर ले। यदि किसी ने छोड़ दिया है, तो उसे भूल जाये। रोने की क्या जरूरत है?
आज के समय में, जब जीवन का एक-एक पल खुश रहने के लिए है, तो रोकर वक्त बरबाद करने की क्या जरूरत? बिन्नी से इसकी मुलाकात करवानी चाहिए। खुश रहना सीख जायेगी। या बेहतर रहेगा कि इसके पते-ठिकाने की जानकारी मिले। न होगा, तो मां को भेज दूंगा, मेरा रिश्ता लेकर इसके घर!
अरे! अपने मन की बात बता गया । मुझे यह लड़की बिन्नी से ज्यादा अच्छी लगी। गंभीर, प्यार में सच्ची। कोई तो है जिसके लिए इसके दो नयन कभी झील बन जाते है, डबडबाते है। कभी बादल बनते है, बरस जाते है। कोई न कोई खुशनसीब है, जिसे यह सच्चा प्यार करती है।
मैं उसे चिल्लाकर बुलाना चाहता था, पर हिचक के कारण आवाज गले में कैद हो जाती थी। वैसे भी वह मुझे कहां तलाशती? सिर उठाकर देखती, तो केवल पेड़ ही पेड़ नजर आते। मैं तो पेड़ों के बीच के एक फुट के दायरे से उसे देख लेता था। पर वह नहीं देख पाती। यदि मेरी आवाज से डर कर कहीं चली जाती, तो मेरी बात भी अधूरी रह जाती। हाँ, मुझे इस किस्से का अंत जानने की इच्छा रहने लगी थी।
“शेखर भाई, क्या देखते रहते हैं?” नंदू की आवाज से ध्यान टूटा। वह मेरे पीछे खड़ा था।
“कुछ नहीं, बैठे-बैठे ठंड से जम गया था, सोचा, थोड़ी धूप खा लूँ।” मैंने तपाक से झूठ बोला।
“अरे तो चाय पीजिए। आज तो चाभी मेरे पास है।” बंद ढाबे की चाभी दिखाकर उसने आग्रह पूर्वक कहा।
“नहीं नंदू, चाय नहीं चाहिए।” उसे टरकाना चाहा, पर वह वहीं खड़ा रहा।
मैं इधर-उधर ताकता नंदू के जाने का इंतजार करता रहा। नीचे देखने से ऐसे डर रहा था, मानो चोरी कर रहा हूँ। और नंदू नंदू न हो, पुलिस इंस्पेक्टर हो।
बहरहाल, किसी तरह नंदू टला। मैंने नीचे झांका। छतरी वाली गायब थी। धत् । नंदू पर बड़ा गुस्सा आया। क्यों ध्यान बंटाने आया था? फिर स्वयं को समझाया, क्या फायदा नाराज होने का। यदि नंदू न भी आता, तो मैं यहाँ खड़े-खड़े उस लड़की का ठिकाना थोड़े ही जान लेता।
पांचवा, छठा, सातवां दिन भी उसी तरह छतरी के साथ बीते।
उन दिनों रात को ठीक से सो नहीं पाता था। सपनों में छतरी दिखने लगती थी। कई बार चाहा कि विजय से कहूँ कि मुझे दो से चार की ड्यूटी नहीं करनी। पर कैसे कहता। विजय का समय भी ठीक नहीं चल रहा था। जूही के मम्मी-पापा उनकी शादी के लिए तैयार थे। पर विजय के पापा नहीं। उनके गुस्से को देख जूही बिदक गयी। विजय कह रहा था कि जूही को मनाने के लिए नये सिरे से मेहनत करनी पड़ रही है। ऐसे समय में विजय का साथ छोड़ना मुझे ठीक नहीं लगा।
किंतु दो सड़क नीचे उतरकर उस लड़की से बात करने की इच्छा भी प्रबल होती जा रही थी। झूठ नहीं बोलूंगा। सपनों में छतरी के साथ वह भी दिखती थी। पर सपनों में मिलने से क्या होता है। मुझे तो आमने-सामने जाकर बात करने की इच्छा रहने लगी थी। हो सकता था कि सौतेली मां के अत्याचारों से पीड़ित कोई लड़की है। ऐसे में शादी के लिए तैयार करना और ज्यादा आसान था। मैं तो इसी बसंत में उसके साथ फेरे डालने को तैयार था। कहना चाहता था, “अपने आंसू पोंछो, भूतकाल को भूल जाओ। मैं हूँ तुम्हारा वर्तमान, तुम्हारा भविष्य ।”
पर विजय से ड्यूटी छोड़ने के लिए कैसे कहता। एक दिन मेरा मुँह देखकर विजय ही कहने लगा, “शेखर, तू प्यार–व्यार में पड़ गया है क्या?”
“क्यों?” मैं मुस्कुराया।
“यार, तेरे चेहरे को देख कर पता चल रहा है। पर इस बार पहले की तरह घामड़ साबित मत होना। तेरी हरकतें मर्दो की नाक कटानेवाली हैं। वैसे तेरे से न हो, तो इस तरफ मत बढ़। जूही को ही देख, मुझे नचा डाला उसने। पर मैं भी पीछा नहीं छोडंगा। पा कर रहंगा। यार प्यार को छीना जाता है, झपटा जाता है। यह नहीं कि हर बार अपनी माशका की डोली पर फूल फेंकने लगो। पता नहीं कब सीखेगा तू।” कहते-कहते उसकी आवाज दर्द से भर गयी।
“अच्छा” उसने फिर पूछा, “इस बार तू सच में लड़की को चाहता है या अब भी वही बिन्नी वाला मामला है कि ‘आंटी ने कहा, तो मैं साथ चल दिया।”
“नहीं, सच में प्यार करता हूँ उसे।” मेरे मुँह से निकला।
“किसे?”, विजय ने पूछा।
मैं चुप रहा।
“अच्छा कितना प्यार करता है?”
“कितना…?” मैं सोच में पड़ गया-चुटकी भर!….. मुट्ठी भर! य…! वादी भर..!
“हाँ मैं वादी भर प्यार करता हूँ उसे।” मेरे मुँह से फिर से निकल गया।
“देखेंगे।” विजय मुस्कुराया। उसकी मुस्कान में दर्द था या व्यंग्य कह नहीं सकते। मुझे जूही पर गुस्सा आया, बिना बात नखरे क्यों दिखाती है। मेरा अच्छा खासा हंसमुख दोस्त रोनी सूरत बनाये रहता है।
मैंने पॉप, हिपहॉप, साल्सा सुनना बंद कर दिया। सूफी गीत तथा गजलों की सीडी ले आया। उन्हें ही सुनता रहता। कुछ ‘मन की लगन’ टाइप गाने। क्या उस लड़की से सच में प्यार हो गया था मुझे? कमाल है बिन्नी के जाने पर तो सूफी गाने नहीं सुने। बल्कि बिन्नी की बारात विदा होने के बाद जनवासे में बारातियों के छोड़े टेल्कम पाउडर के दो सीलबंद डिब्बे भी जेब में सरका लिये थे। आखिर बिन्नी को दिये गिफ्ट की भरपाई करनी थी। यह अलग बात है कि माँ के डर से उन डिब्बों को कभी इस्तेमाल नहीं किया और वार्षिक सफाई के समय कूड़े में डाल दिया। और यहाँ एक अनजान लड़की, राम जाने लड़की है कि डाकिनी, के लिए स्यापा करने लगा, सूफी संगीत सुन सन्यास लेने की कोशिश करने लगा।
हाँ और क्या, डाकिनी हो सकती थी। जिस तिकोनिया पार्क में बैठती थी, उससे थोड़ी दूर पर शमशान और कब्रिस्तान भी है। कहीं भूत-प्रेत, रुह-साया हुई तो – कभी-कभी डर भी जाता था।
खैर यह डर तो रुई के बादल के समान मन पर छाता और उड़ जाता। मैं तो यों ही अनमना रहने लगा था।
एक दिन पिताजी ने पूछा-“शेखर, क्या करने का इरादा है तेरा? बिजनेस करेगा?”
“कर लँगा।” अपने ध्यान में उत्तर दिया था मैंने।
“किस चीज़ का?”
“छतरी का।” मैंने कहा था।
पिताजी हैरत से मेरा मुँह देखते रह गये।
जितना–जितना पार्क वाली लड़की उदास लगती थी, उतना उतना मेरा मन-दिमाग अस्त-व्यस्त रहने लगा था। उसकी छतरी के फूल भी एकदम फीके लगने लगे थे – रंगहीन, बदरंग छतरी।
मन कहता कि अब इसे छतरी बदल लेनी चाहिए। पर मेरी सुनेगा कौन? वह अपनी उसी भदेस बदरंग छतरी को कलेजे से चिपकाये रोती थी। और मैं रातों को ठीक से सो नहीं पाता था। सपने में बूंद-बूंद टपकती छतरी दिखने लगती थी। टपकती छतरी के पानी से भीगने पर नींद नहीं टूटेगी क्या?
जागते ही आंसुओं से भरी दो आंखें दिखने लगतीं। कैसा मर्द हूँ, जो एक लड़की के आंसू नहीं पोंछ सकता? पन्द्रह दिन के लगभग हो रहे थे और लड़की की समस्या जस की तस। जबकि जूही और विजय का मेल हो गया था। कल विजय बड़ा खुश था। अंकल उसकी शादी जूही के साथ करने को तैयार थे, यदि वह भी जूही के बराबर समझदार बनने की कोशिश करे। विजय नौकरी या बिजनेस के विषय में सोच रहा था। चलो ठीक रहा, वह हंसता हुआ ही अच्छा लगता है।
पर आंसुओं से भरी दो आंखें! क्या करूं उनका?
आज सुबह भी छतरी के टपकने से आंख खुली। नींद में ही माई थान की चंडी माँ दिखीं। माँ पछ रहीं थीं, “क्या मांगता है बच्चे. बता।’ पता नहीं मां ने सच में पूछा था या यह भी मेरी कल्पना है।
जो भी हो सबेरे-सबेरे मैंने चंडी मां से छतरी वाली की खुशियां मांगी। ऐसा लगा मां ने ‘तथास्तु’ कहा है।
फिर दो से चार की ड्यूटी पर पहुंचा। नीचे झांकता रहा पर लड़की न दिखी। बड़ी देर झांक-ताककर उदास मन से दुकान पर बैठ गया। दर्द भरे नगमे सुनने लगा। मन तो गजलों-गीतों में भी नहीं लग रहा था। ऐसा लग रहा था कि कुछ कीमती खो गया है। क्या खोया है नहीं जानता। कब कहाँ कैसे खोया, नहीं जानता। यह नहीं जानना और ज्यादा कष्टदायी था। दोनों हाथ खाली लग रहे थे। उनमें से क्या छटा-गिरा नहीं समझ पा रहा था। बस हाथों को मल रहा था। दुकान से रेलिंग, रेलिंग से दुकान के चक्कर पर चक्कर लगाये । अखबार में किसी दुःख भरी खबर को भी तलाशने की कोशिश की। कौन सी खबर, नहीं पता। जब दुख भरी सूचना नहीं दिखी, तो मन को संतोष हुआ। शून्य में देखता चुपचाप बैठा रहा।
सड़क से आती कुछ आवाजें सुन ध्यान टूटा। आवाजें उस सुनसान सड़क, सुनसान दोपहरी के हिसाब से अनजबी थीं। दुकान के बाहर दो ग्राहक खड़े थे। हरे सूट में खूबसूरत सी लड़की और टाई बांधे सूटेड-बूटेड नौजवान। चंडी मां का दर्शन करके लौट रहे थे, क्योंकि दोनों के माथे पर तिलक लगा दिख रहा था। लड़का अपरिचित था, पर मैं लड़की को पहचान गया। वह हमारे कस्बे के बड़ी हवेली वालों की बेटी चंदा थी। कई सालों से मुंबई में पढ़ रही थी। पढ़ने में बेहद जहीन। हमारे घरों में चंदा की मिसाल दी जाती है।
वे मैगजीन देखते रहे। मैं अदब से एक कोने में खड़ा रहा। थोड़ा अनमना तो था ही। अचानक चंदा ने शॉल के अंदर से हाथ निकाला, तो एक बंद छतरी नजर आई। वही गुलाबी छतरी, लाल फूलों वाली।
मैं गौर से देखने लगा। चंदा ने छतरी का बटन दबाया, छतरी खुली। फिर दूसरे हाथ से छतरी बंद की। यह सब करते हुए उसका ध्यान किताबों में था। छतरी तो वह आदतन खोलती और बंद करती रही।
सब कुछ मेरे सामने था । मैं समझ चुका था कि चंदा और इस नौजवान की मुंबई में दोस्ती हुई होगी। उसी दोस्ती की निशानी है यह छतरी। इसी छतरी के नीचे दोनों ने मुंबई की बारिशों में सैकड़ों बातें की होंगी, सैकड़ों वादे किए होंगे। चंदा यहाँ आकर इसी नवयुवक का इंतजार करती थी। छतरी को हर पल इसीलिए साथ रखती थी, क्योंकि उसकी अच्छी यादें इसके साथ जुड़ी हैं। अपना पहला आशियाना दोनों ने इसी के नीचे बनाया होगा।
मैं ध्यान से उनकी बातें सुनने लगा। बातों से पता चला कि चंडी माई की कृपा से दोनों के परिवारीजनों ने उनकी शादी के लिए हां कर दी है। इसी बसंत पंचमी का मुहूर्त निकला है। शादी यहीं पहाड़ पर होगी। नवयुवक के परिवार वाले चंदा का टीका करने कल आने वाले हैं। दोनों के चेहरों पर दुनिया भर की खुशी दिख रही थी। छतरी साथ न होती, तो मैं कतई पहचान नहीं सकता था कि यही वह लड़की है, जो पन्द्रह दिन नीचे पार्क में बेंच पर बैठ कर रोई है। कुछ किताबें खरीदकर वे चल दिये।
मैं रेलिंग के पास खड़ा होकर उन्हें देखता रहा। वे नीचे ढलान की तरफ उतर रहे थे। नीचे वाली सड़क पर दिखे। फिर मोड़ पर खड़े हो गये। कछ समय बाद तिकोनिया पार्क की बेंच पर बैठे दिखे। हाँ, चंदा सौ फीसदी वही लड़की थी, जो पन्द्रह दिन से उस बेंच पर बैठी दिखती थी।
मेरे मन में एक अलग सा भाव था। क्या था उसमें? उदासी! दुःख! पता नहीं। मैं कुछ समझ नहीं पाता। ‘थोड़ा लीचड़ हूं’ ऐसा मेरा नहीं, विजय का कहना है।
विजय का ध्यान आते ही मैं सकपका गया। विजय पूछेगा कि कहाँ है मेरी गर्लफ्रेंड, तो क्या जवाब दूंगा। तुरंत सोचा, कह दूंगा कि मामा के गांव से एक रिश्ता आया है, वही लड़की मेरी गर्लफ्रेंड है। विजय हंसेगा, तो हंस लेगा। गाली देगा, तो सुन लूंगा। वैसे भी मैंने चंडी मां से छतरी वाली की खुशियां मांगी थीं। विजय के लिए उत्तर थोड़े ही मांगा था। यों भी अभी तो मेरे हाथ में एक नौकरी तक नहीं है। पहले अपने पैरों पर तो खड़ा हो जाऊँ, शादी-वादी तो बाद की बातें हैं।
नीचे झांका। वे दोनों छतरी को पकड़े आपस में चिपके बैठे थे। इतने नजदीक कि उन्हें देखने में मुझे झिझक लगने लगी। मेरे पास की झाड़ी में लाल फूल खिले थे। अनजाने में मुट्ठी भर फूल तोड़े और ऊपर से उनकी ओर फेंके। ऐसा लगा कि फूल छतरी से टकराये हैं।
लगा कि छतरी की रौनक कई गुना बढ़ गयी है। अचानक छतरी का दायरा बढ़ता दिखा। लगा कि छतरी ने नीचे की पूरी घाटी को ढक लिया है। रौनक पूरी वादी में बिखरी दिखाई दी। पूरी वादी लाल-गुलाबी फूलों से भरी दिखने लगी। दो बूंद आंसू मेरी पलकों पर उतर आये। ये खुशी के आंसू थे। मैंने पोंछे नहीं। मर्द हूँ न। गम और खुशी दोनों के इजहार में बेबाक। दुकान पर दुःख भरी गजल बजकर रुक चुकी थी। वादी में चंदा की खिलखिलाहट भरी थी।
भारत की आजादी के 75 वर्ष (अमृत महोत्सव) पूर्ण होने पर डायमंड बुक्स द्वारा ‘भारत कथा मालाभारत की आजादी के 75 वर्ष (अमृत महोत्सव) पूर्ण होने पर डायमंड बुक्स द्वारा ‘भारत कथा माला’ का अद्भुत प्रकाशन।’
