Varaha Avatar
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Bhagwan Vishnu Katha: सृष्टि रचना में सहायक बनने के लिए ब्रह्माजी ने स्वयंभू मनु और उनकी पत्नी शतरूपा को उत्पन्न किया । तब स्वयंभू मनु ब्रह्माजी की स्तुति करते हुए बोले -“ भगवन् ! हे जन्मदाता ! आपके चरणों में हमारा बारम्बार प्रणाम । पितामह ! हम क्या करें, जिससे कि हमें भगवान् विष्णु की कृपा प्राप्त हो सके और लोक-परलोक में हमारी कीर्ति फैल जाए ।” ब्रह्माजी ने उन्हें सृष्टि रचना में सहायक बनने की आज्ञा दी और कहा कि इसी कार्य से उन्हें विष्णु भक्ति, सद्गति और प्रसिद्धि मिलेगी ।

उस समय दैत्यराज हिरण्याक्ष ने पृथ्वी को अथाह जल में छिपा दिया था । तब स्वयंभू मनु विनती करते हुए बोले -“पिताश्री ! दैत्य हिरण्याक्ष ने पृथ्वी को सागर में छिपा दिया है । कृपया बताएँ मैं सृष्टि कहाँ करूँ?“

मनु की बात सुन ब्रह्माजी विचार करने लगे-‘यह कठिन कार्य कैसे होगा? मैं चिरकाल तक इस जगत् की सृष्टि करता रहा, किंतु हिरण्याक्ष के कारण पृथ्वी जल में डूब गई । उसे पुन स्थापित करना आवश्यक है और यह तभी सम्भव है, जब आदिपुरुष भगवान् विष्णु मेरे सहायक बनें ।’

ब्रह्माजी इस विषय पर गंभीरता से विचार कर रहे थे, तभी उनकी नासिका में से एक छोटा-सा वराह (सूअर) प्रकट हुआ । प्रकट होते ही वह एक विशालकाय वराह में परिवर्तित हो गया । तभी उस वराह पर फूलों की वर्षा होने लगी और दिव्य आकाशवाणी हुई-“ये वराह अवतारी भगवान् विष्णु हैं, जिनका यह अवतार दैत्य हिरण्याक्ष के वध के लिए हुआ है ।”

ठीक उसी समय वराहरूपी भगवान् विष्णु भयंकर गर्जन करने लगे । उन्होंने अपने तीव्र गर्जन से ब्रह्मा सहित सभी प्रधान ऋषि-मुनियों के मन में आनन्द की लहरें उत्पन्न कर दीं । दिशाएँ उस तीव्र नाद से गूँज उठीं ।

जब देवगण ने उस गर्जन को सुना, तो उन्होंने ऋक्, साम एवं यजुर्वेद के उत्तम स्तोत्रों द्वारा आदिपुरुष भगवान् वराह की स्तुति की । उनकी स्तुति से प्रसन्न होकर वराहरूपी भगवान् विष्णु उन्हें अनुगृहीत कर जल में प्रविष्ट हो गए । उनके विराट शरीर के भयंकर आघातों से जल में खलबली मच गई ।

समुद्र ने हाथ जोड़कर प्रार्थना की – “भक्तों के दुःख दूर करने वाले भगवान् विष्णु । मैं आपकी शरण में हूँ । मुझ शक्तिहीन पर दया कीजिए ।”

समुद्र की करुण प्रार्थना सुनकर भगवान् वराह जलचरों को इधर-उधर हटाते हुए शांत भाव से गहरे जल में चले गए । उस समय समस्त प्राणियों को आश्रय देने वाली पृथ्वी जल के भीतर कीचड़ में छिपी हुई थी । भगवान् वराह ने उसे अपनी दाढ़ से उखाड़ा और दाँतों के अग्रभाग पर रख लिया । फिर उसे जल से बाहर ले आए । यह देख सभी उनकी जय-जयकार करने लगे ।

तभी दैत्य हिरण्याक्ष वहाँ आ पहुँचा । उसने भगवान् वराह को देखा तो हँसते हुए बोला -“अरे ! यह जंगली पशु जल में कहाँ से आ गया और पृथ्वी को कहाँ लिए जा रहा है? लगता है, इसे प्राणों का मोह नहीं रहा अथवा इसे मेरी शक्ति के बारे में ज्ञान नहीं है । अरे दुष्ट ! तू यह रूप रखकर मुझे भ्रमित नहीं कर सकता । तू अवश्य ही देवताओं का प्रिय विष्णु है, जो अपनी माया से दैत्यों को मार डालता है । आज तुझे कोई नहीं बचा नहीं सकता । मैं अपनी गदा के प्रहार से तेरे मस्तक के टुकड़े-टुकड़े कर दूँगा । फिर इन्द्र आदि देवताओं और ऋषि-मुनियों का भी संहार कर दूँगा, जो इस समय तेरी जय-जयकार कर रहे हैं ।”

उस समय भय से काँपती पृथ्वी भगवान् वराह की दालों पर रखी हुई थी । उसे पुन: स्थापित किए बिना दुष्ट हिरण्याक्ष से युद्ध करना असम्भव था, इसलिए उसका कटाक्ष सुनकर भगवान् वराह क्रोध का घूँट पीकर जल से बाहर आए और पृथ्वी को उसके स्थान पर स्थापित करने के लिए चल पड़े ।

उन्हें वहाँ से जाते देख हिरण्याक्ष कड़कते स्वर में बोला -“मायावी ! युद्ध में पीठ दिखाते तुझे लज्जा नहीं आती । क्या तेरी इसी कायरता पर ये देवता अभिमान करते हैं? क्या तूने माया के बिना कभी युद्ध नहीं किया? अब मुझे विश्वास हो गया है कि देवताओं का बल और पराक्रम साधारण मनुष्यों के समान है । वे केवल धोखे से ही हम दैत्यों का वध कर सकते हैं, सामना होते ही पीठ दिखाकर भाग जाते हैं ।”

इधर भगवान् वराह अब तक पृथ्वी को स्थापित कर चुके थे । वे पलटे और भयंकर गर्जन करते हुए बोले -“दुष्ट हिरण्याक्ष ! तुझे अपने बल पर बहुत गर्व है । आज मैं तेरा वही गर्व चूर-चूर कर तुझे काल का ग्रास बनाऊँगा । अब तुझे संसार की कोई शक्ति नहीं बचा सकती । तूने मेरी शक्ति को ललकारा है । तेरी इच्छा मैं अवश्य पूरी करूँगा । देख मेरा बल और पराक्रम ।”

यह कहकर उन्होंने उस पर गदा का भीषण प्रहार किया । हिरण्याक्ष दूर जा गिरा । लेकिन गिरते ही वह चपलता से उठा और अपनी गदा लेकर भगवान् वराह से युद्ध करने लगा । दोनों ही गदा युद्ध में कुशल थे, इसलिए एक-दूसरे के वारों को काटना भली-भांति जानते थे ।

जब युद्ध करते अनेक दिन बीत गए, तब ब्रह्माजी विनती करते हुए बोले -“प्रभु ! यह पापी दैत्य अत्यंत बलि और पराक्रमी है, इसकी मृत्यु आपके हाथों ही निश्चित है । इसलिए अब और लीलाएँ मत दिखाइए और सृष्टि के कल्याण के लिए इसका संहार कर दीजिए ।”

ब्रह्माजी की विनती सुनकर भगवान् वराह मंद-मंद मुस्कराए और फिर क्षणभर में उन्होंने उसकी गदा तोड़ डाली । तब वह ऐसा तानकर आगे बढ़ा, किंतु भगवान् वराह ने अपनी गदा के एक ही प्रहार से उसके प्राण हर लिए । हिरण्याक्ष की मौत के साथ ही शंख बज उठे और देवता, ऋषि, मुनि भगवान् वराह पर पुष्पों की वर्षा कर उनकी स्तुति करने लगे ।

इस प्रकार सृष्टि पर आए संकट को भगवान् विष्णु ने वराह अवतार धारण कर दूर किया ।

ये कथा ‘पुराणों की कथाएं’ किताब से ली गई है, इसकी और कथाएं पढ़ने के लिए नीचे दिए गए लिंक पर जाएं Purano Ki Kathayen(पुराणों की कथाएं)