उस दोपहर—गृहलक्ष्मी की कहानियां: Uss Dophar
Uss Dophar

Uss Dophar: दिल्ली की गर्मियों की एक भयंकर तपती दोपहरी में हमारी गाड़ी बीच रास्ते में ख़राब हो गयी थी। मदद के लिए दूर-दूर तक कोई नजर नहीं आ रहा था। एक कार मैकेनिक को फ़ोन करके बुलाया तो उसने ४ घंटे का काम बताया। मैंने कार और पति को वही छोड़ा और सामने वाले काम्प्लेक्स में घुस गयी। सामने ही एक डेंटिस्ट का बोर्ड लगा था।’ डॉ अनीता झा ‘BDS ,आर्थोडोन्टिस्ट,मन ही मन खुश हो गयी। चलो कोई तो अपने प्रान्त का मिला। थोड़ी देर ac में बैठने का जुगाड़ हो गया था।

सच !जब विकट समय होता है तब कैसे हम छोटी -छोटी खुशियों का आनंद लेते हैं। दरअसल यही जीने की कला है। हम क्या हैं, क्या नहीं, ये ना सोच कर बस वर्तमान में जीते हैं !खैर अंदर आते ही एक कमउम्र कन्या बाहर आयी और मुझसे मरीज समझ कर पूछताछ करने लगी। उसकी बातें ख़त्म होते ही बिना कोई जवाब दिए मैंने पूछा -‘एक गिलास पानी मिलेगा ?’इस बार पानी का गिलास लेकर एक डॉक्टर बाहर आयी। सांवला वर्ण, बड़ी -बड़ी सपनीली ऑंखें जिन्हे देखकर एक बार मैं भूल ही गयी कि मैं वहां क्यूँ आई। अब मेरे सम्मुख उनके प्रश्न थे “आपकी तबियत ठीक है ?”

“जी हाँ ! मेरी कार ख़राब हो गयी है..बाहर बहुत गर्मी है ..क्या मैं यहाँ बैठ सकती हूँ ?”मैंने कहा”हाँ! हाँ! क्यों नहीं ?”

फिर हमारे बीच परिचय का आदान-प्रदान हुआ। हम दोनों एक ही प्रान्त से थे और एक ही शहर से भी,बातें खुलती गयीं और समय का पता ही नहीं लगा। जब मैंने बताया कि मुझे लिखने का शौक है तो उन्होंने चाय मंगाई और अपनी कहानी बतानी शुरू की।

उनकी कहानी काफी रोचक थी। उनका विशेष अनुरोध यह था कि कहानी बिना फेर -बदल के ज्यों की त्यों लिखी जाए ताकि बिहार में फैले गुंडाराज और दहशत में जीते तमाम परिवारों के तरफ लोगों का ध्यान आकृष्ट हो। फिर हमारी ढेरों बातें हुईं।

उन्होंने जो बताया वह कुछ यूँ था कि उनके पिता दवाओं के पुराने व्यापारी थे। काम बहुत जबरदस्त चल रहा था। पटना के पाटलिपुत्र कॉलोनी में ४ कठ्ठे में फैला आलीशान मकान था। बचपन से अमीरी ही देखी थी। अभाव का कहीं कोई नामोनिशान न था। कुल मिलाकर चार भाई-बहन थे। दो बड़ी बहने बला की खूबसूरत थीं। वे कॉलेज जाती थीं फिर पता नहीं क्या हुआ कि अचानक सब कुछ बदल गया।

उन्होंने जो बताया वह कुछ यूँ था कि उनके पिता दवाओं के पुराने व्यापारी थे। काम बहुत जबरदस्त चल रहा था। पटना के पाटलिपुत्र कॉलोनी में ४ कठ्ठे में फैला आलीशान मकान था। बचपन से अमीरी ही देखी थी। अभाव का कहीं कोई नामोनिशान न था। कुल मिलाकर चार भाई-बहन थे। दो बड़ी बहने बला की खूबसूरत थीं। वे कॉलेज जाती थीं फिर पता नहीं क्या हुआ कि अचानक सब कुछ बदल गया।

उन दिनों वह आठवीं कक्षा में थी और उनका भाई दसवीं में। उस दोपहर जब स्कूल से लौटी तो पिताजी की तबियत काफी खराब दिखी। माँ अनवरत रोये जा रहीं थीं। कुछ भी समझ में नहीं आ रहा था। दीदियों का कॉलेज और हमारा स्कूल जाना बंद करा दिया गया। जब हमने बहुत पूछा तो माँ ने कहा कि पिताजी को कुछ गुंडे परेशान कर रहे हैं और दीदियों को उठाकर ले जाने की धमकी भी दे गए हैं। 

हमें ‘काटो तो खून नहीं’ वाली मनःस्थिति थी। हालात कुछ ऐसे थे कि आये दिन कभी व्यापारियों तो कभी रिश्तेदारों के आने जाने का ताँता सा लगा था। लोग इस अप्रत्याशित स्थिति का जायज़ा लेने पहुंच रहे थे। पिताजी ने स्वयं को सपरिवार अपने ही आलीशान कोठी में बंद कर लिया था। दहशत की वो तमाम मुश्किल रातें अब तक ज़ेहन में बसी हैं जो हमने सोकर नहीं बल्कि जागकर गुजारीं। कभी – कभी तो सारी रात पत्थरबाजी होती और दिन धमकी भरे फ़ोन से भरे होते। जाने कैसी सरकारी व्यवस्था थी जिसने प्रजातंत्र की धज्जी उड़ा रखी थी। सामान्य जीवन जीना ही मुहाल था।

भाई किशोरावस्था में था। उसका गर्म खून खूब खौलता पर गुस्से में कहीं कोई गलत कदम न उठा ले इसलिए माँ ने उसे कभी किसी का नाम ही नहीं बताया। हमारे पास इस समस्या से निपटने के लिए उचित धनराशि का भी अभाव था। उस जमाने में लोगों के पास पैसे कहां होते थे। जो कुछ था वह व्यापार में लगा था। पिताजी पुरुखों की जमीन बेचना नहीं चाहते थे। पिताजी ने सबसे पहले रिश्तेदारों की मदद से आनन फानन में दीदियों की शादी निपटाई। वह भी बेहद गुप्त रूप से ताकि उनके दुश्मनों के कान खड़े न हों। घर की आबरु बचाकर वह थोड़े से निश्चिंत हुए। फिर दुकान बेचकर व्यापार संबंधी कर्जे चुकाए। 

बेटियों के बिछोह का दर्द क्या होता है वह तो बेचारे महसूस ही नहीं कर पाए। उल्टे बहनो की विदाई की समय भरे मन से इतना ही कहा ………”पैसे दो या बेटी दो की धमकियों से महीनों सोया नहीं। अब बेटियों को विदाकर चैन की नींद सोऊंगा।”

उनकी आँखों में आंसू के एक बूंद न था। उल्टे मन में एक तरह की शांति थी। एक विश्वास कि उन्होंने अपनी गलतियों की सजा अपने मासूम बच्चों को नहीं दी। अब एक ओर तो आराम मिला था पर दुकान बिक चुका था। कब तक जमाराशि निकाल कर घर का खर्च चलाते। युवराज से नाजुक भाई ने पिताजी की मदद करने की सोची। उसने एक छोटे से खोमचे पर मोबाइल रिपेयर का काम शुरू कर दिया था। तब मोबाइल नया ही आया था। लोगों को इसकी जानकारी नहीं के बराबर थी। यही कारण था कि उसका काम चल पड़ा।

और अब तो पिताजी के तीन – तीन हाथ थे। दोनों जीजाओं की मदद से एक दुकान हासिल हो गया। मैंने किसी तरह 12th तक पढ़ाई की। अब बारी थीं मेडिकल एंट्रेस की। ईश्वर की असीम कृपा थी जो मैं प्रवेश परीक्षा में पास हो गई। पूरे ५ साल बाद घर में एक बड़ी ख़ुशी आयी थी। हंसने की बजाय हम सभी रो रहे थे। हमारी आँखों में ख़ुशी के आंसू थे। मुझे दिल्ली की प्रतिष्ठित कॉलेज में सीट मिल गयी थीं। माँ ने घर में घी के दिए जलाए और बाजार से लड्डू भी मंगाया। सालों बाद घर में भगवान को भोग लगा था। सबके चेहरे पर रौनक लौट आयी थी। इतना बताकर वह खामोश हो गयी।

उसकी कहानी सुनकर मेरे रोंगटे खड़े हो गए थे। मैं सब समझ पा रही थी। एक समय में बिहार में डॉक्टर्स और दवा की होलसेल दुकान वालों से अधिक कष्ट में कोई नहीं था! यह घटना भी उन्हीं दिनों की है। एक तो फिरौती,दूसरे ऋणजाल में फंसाकर उनसे मोटी रकम वसूल करना ये कुछ ऐसे राजनैतिक हथकंडे थे जिनके बल पर सत्ताधारियों के भैंस पल रहे थे।

उफ़! उस परिवार की तकलीफें सुनकर आंखे नम हो आईं तो मैंने पति को फ़ोन किया। कार की मरम्मत में और एक घंटे लगना था। उसका क्लिनिक बंद करने का वक़्त था तो मैं भी उठने को हुई पर उसने इशारे से रोक लिया। 

शायद उसकी दिलचस्पी कहानी बताने में ज्यादा थी तो हंसकर बोली,”अभी नहीं जा सकतीं ,अभी कहानी बाकी है!”

बातों ही बातों में उसने अपनी पढ़ाई,नौकरी व विवाह की जानकारी दी।

“हमारे अच्छे दिन आ गए थे। पहले साल की फ़ीस भरकर दाखिला लिया और फिर लोन अप्लाई कर दिया। एजुकेशन लोन पर पढ़ाई पूरी की। भाई का काम अच्छा चल पड़ा था और उसने भी डिस्टेंस एजुकेशन से MBA तक कर लिया।  पिताजी पूर्ववत अपनी ही दुनिया में क़ैद रहे। इस पूरी घटना ने उन्हें हिलाकर रख दिया था। उन्होंने सदा के लिए आत्मविश्वास खो दिया था। वह मुझसे अक्सर ही कहा करते कि गुंडों के हाथों बेटियों को देना जीते जी उन्हें नर्क में धकेलना था! ईश्वर की असीम कृपा है जो वह अपने घरों में सुखी हैं। मेरी शादी में अपने सभी अरमान पूरे करना चाहते थे और उन्होंने वही किया। बड़े ही इत्मीनान और धूमधाम से मेरी शादी कराई। मेरे पति एक बड़े अस्पताल में सीनियर डेंटल सर्जन हैं। मैंने भी डेंटल की सभी डिग्रीयां ले लीं हैं। मेरी दो बेटियां हैं जोकि यहाँ इंटरनेशनल स्कूल में पढ़ रही हैं। एजुकेशन लोन चुकाकर भी प्रतिमाह लाखों बच रहा है। ग्रेटर नोएडा में एक बड़ी जमीन खरीदी है और उसपर अपना हॉस्पीटल बनवा रही हूं। इस बात पर ससुरालवालों के ताने सुनने पड़ते हैं कि मेरी देवरानियां पटना में रह सकती हैं तो मैं क्यों नहीं?”

“फिर?” ससुराल के बिंदु पर मेरी भी नारी सुलभ चेतना झंकृत हुई तो पूछ डाला।

“दरअसल मेरी सास चाहती हैं कि मैं पटना में ही इन्वेस्टमेन्ट करूं ताकि उनका समाज देखे और इससे उनकी प्रतिष्ठा में बढ़ोतरी हो। मेरे मन में उनकी इच्छाओं और आकाँक्षाओं का भरपूर सम्मान है मगर मेरी भी कुछ मजबूरियां है। मैं अपनी दोनों बेटियों को उस दहशत भरे माहौल में बड़ा नहीं करना चाहती जिसमे मैं बड़ी हुई! मैंने उन्हें भी यही समझाया कि बच्चियों के संतुलित विकास के लिए सुरक्षित माहौल चाहिए। मैं पैसे जमाकर क्या करुँगी अगर मेरी बच्चियाँ ही डरी -डरी व कुंठाग्रस्त रहेंगी। मेरे लिए मेरी हंसती -खेलती दुनिया ही सबकुछ है। किसी भी हाल में मैं अपने बच्चों को दुखी नहीं देख सकती!”

उसकी एक- एक बात में सच्चाई थी। सचमुच हम जीवन में जिन कटु अनुभवों से गुजरते हैं उसकी प्रतिछाया से भी बच्चों को बचाना चाहते हैं। हमारी यही इच्छा होती है कि हमारे बच्चे कम से कम उस तकलीफ़ से कभी न गुज़रे। मैंने बढ़कर सखी को गले लगा लिया। 

 इतने में पति का बुलावा आया तो मैं हंसती हुई विदा लेकर घर आ गयी। मुख पर एक मुस्कान थी और हृदय में बस यही दुआ कि जो उन पर गुजरी वह कभी किसी पर न गुज़रे। उनके जीवन की शाम चाहे जितनी भी खूबसूरत क्यों न हो पर दोपहर बेहद कड़ी धूप में गुजरी थी। उस दोपहर के आगे मेरी तपती दोपहरी तो कुछ भी नहीं थी जिससे घबड़ाकर मैं उसके शरण में जा पहुंची थी।

उससे वादा था कि इस अनोखे संस्मरण को कलमबद्ध करूंगी सो इसे ज्यों का त्यों प्रस्तुत किया है ताकि इस तरह की तकलीफ़ से जूझते लोग इससे जुड़ें और अन्य पाठकगण भी प्रेरित हों।