आप शायद सब्जीपुर की छोटी सी, रोएँदार गोल-मटोल हस्ती, यानी टिंडामल से अभी नहीं मिले। पर बिना टिंडामल से मिले आप सब्जीपुर को क्या खाक जानेंगे! इसलिए कि सब्जीपुर के सबसे चंचल और नटखट खिलाड़ियों में होती है टिंडामल की गिनती।
अभी कुछ रोज पहले की ही बात है। हरे-हरे, गोल-मटोल टिंडामल जब हाथों में लाल-लाल गेंद लेकर तेजी से उछलते-कूदते घर आए, तो उनकी शान सचमुच निराली लग रही थी। देखते ही देखते शोर मच गया, “अरे-अरे, देखो, टिंडामल एक नई गेंद लेकर आ रहे हैं!”
सब्जीपुर के बहुत विशाल सभा-मैदान में इकट्ठे हुए बच्चे और नौजवान बड़े अचरज से देख रहे थे यह तमाशा कि कैसे टिंडामल लुढ़कते-पुढ़कते हुए गेंद को लगातार उछालते चले आ रहे हैं। मजे की बात यह है कि गेंद और टिंडामल लगभग एक जैसे ही लग रहे थे और अगर रंग का फर्क न होता, तो समझ पाना मुश्किल था कि इनमें कौन टिंडामल है और कौन सी गेंद!
टिंडामल की नई-नई गेंद देखकर खेल के मैदान में मौजूदा सब्जियों में जोश भर गया। बच्चे-नौजवान सभी उस गेंद से खेलना चाहते थे। सभी का मन था कि टिंडामल उन्हें अपने साथ खिलाएँ। मगर एक गेंद से टिंडामल भला किस-किसको खिलाते!
तो सोचा गया कि कोई ऐसा खेल खेलो, जिसमें सारे शामिल हो जाएँ। लिहाजा दो दल बन गए और खेल शुरू हुआ पचगुट्टी। पाँच ईंटों के टुकड़े लाकर रखे गए। अब दोनों ओर जुट गईं सेनाएँ। दूर से गेंद मार करके ईंटों के टुकड़े गिराने थे और फिर देखना था, किसको मिलते हैं ज्यादा अंक।
खूब भागमभाग हुई, खूब लगे निशाने। आखिर में दोनों तरफ के दल बराबरी पर छूट गए। क्योंकि दोनों ही टीमों ने पाँच-पाँच अंक हासिल किए थे। इस पर दोनों ही टीमों के खिलाड़ियों ने नारा लगाया, “हम जीत गए, हम जीत गए!”
सुनकर टिंडामल को इतना मजा आया कि उन्होंने जोर-जोर से हवा में अपनी लाल गेंद उछाली और पूरे मैदान में कलामुंडियाँ खा-खाकर अपनी खुशियाँ प्रकट करने लगे।
इतने में किसी ने कहा, “चलो-चलो, अब गेंदतड़ी खेलें!”
टिंडामल को और सारे खेल तो आते थे, मगर गेंदतड़ी नहीं आती थी कि इसमें क्या होता है। उन्होंने सोचा, ‘अब भी मेरी टीम के लोग मुझे नहीं मारेंगे और दूसरी टीम के खिलाड़ियों की पीठ सेंकनी होगी।’ मगर उन्हें क्या पता था कि गेंदतड़ी तो गेंदतड़ी है, जिसमें न कोई अपना न पराया। गेंद पकड़ो और जो भी सामने नजर आए, तड़ातड़ उसकी पीठ सेंक दो।
शुरू-शुरू में टिंडामल की बड़ी सिंकाई हुई और ज्यादातर पीठ सेंकने वाले थे उन्हीं की टीम के लोग। टिंडामल बड़ी शान के साथ उनके पास जाते और वे उनकी ऐसी करारी सिंकाई करते कि टिंडामल ‘ओह-ओह’ कर उठते। आखिर रहा न गया तो टिंडामल थोड़े गुस्से में आ गए। कह ही बैठे, “अरे भई, मेरी ही तो गेंद है। आप लोग मुझी को मार-मारकर क्या भुरता बना दोगे? यह तो बड़ी बेइंसाफी है!”
सुनकर सब्जीपुर के सारे खिलाड़ी हँसे।
सबसे जोर-जोर से हँस रहे थे आलूराम-कचालूराम। हा-हा-हा करके बोले, “भई, अब जब खेल हो रहा है, गेंद तुम्हारी नहीं, सबकी है। सबको ही हक है कि खूब जोश में और जोर-शोर से खेलें और जिसको भी मार सकता है, मारे। खेल के बाद यह गेंद तुम्हारी हो जाएगी। मगर अभी तो…!”
कहकर आलूराम ने एक ऐसी दनदनाती गेंद टिंडामल की पीठ पर मारी कि बेचारे उछल-उछल गए। पीठ दर्द से बेहाल और पैरों में मोच आते-आते रह गई।
“ठीक है, ठीक है, बात तो तुम्हारी ठीक है।” कहते हुए टिंडामल की ऐसी रोनी सूरत बन रही थी कि सारे खिलाड़ी हँस पड़े। बोले, “पक्के हो जाओगे, तो झेलना सीख लोगे। अभी कच्चड़ हो न, इसीलिए रो रहे हो।”
“कच्चड़…! अच्छा, मैं कच्चड़ हूँ? अच्छा, रोबना हूँ, रोता रहता हूँ? मैं अभी दिखाता हूँ।” कहकर टिंडामल के भीतर भी जोश आ गया। उन्होंने मन ही मन कहा, ‘मैं ही क्यों रोता रहूँ? मैं भी कुछ करके दिखा सकता हूँ।’
बस दौड़ते-दौड़ते उन्होंने भी झट से गेंद लपकी और पूरी ताकत लगाकर इस कदर फुर्ती से आलूराम की पीठ पर दे मारी कि आलूराम बेचारे लुढ़के तो दस-बीस कदम लुढ़कते ही चले गए। कचालूराम उनकी मदद के लिए आए, मगर वे गेंद लपक पाते, इससे पहले ही टिंडामल ने दौड़कर फिर गेंद उठा ली। अब के कचालूराम की इस कदर पीठ सेंकी कि उनके मुँह से निकला, “हाय दैया!”
तब तक सब्जीपुर के और खिलाड़ी भी आ गए थे और होते-होते गेंदतड़ी का खेल एकदम घमासान युद्ध जैसा हो गया था। टिंडामल की भी खूब पीठ सिंकी। टिंडामल ने खूब मारा भी और मार भी खाई। आलूराम-कचालूराम ने भी कस-कस के बदला लिया। बैंगनमल भी अपनी राजसी अदा के साथ मौजूद थे। हालाँकि वे पीठ सेंकते कम थे, खेल का आनंद ज्यादा लेते थे। और कोई ज्यादा सिंक रहा होता तो होशियारी से उसे बचा भी लेते थे।
इस बीच आलूराम-कचालूराम ने गुस्से में आकर टिंडामल पर इस बुरी तरह गेंद फेंकी थी कि उनकी पीठ एकदम लाल हो गई थी। “ओह मरा!” कहकर वे एक साइड में बैठने ही वाले थे कि फिर लगा, “नहीं, मुझे भी जमकर खेलकर दिखाना होगा। यह आलूराम-कचालूराम खुद को बहुत पक्कड़ समझते हैं न! तो ठीक, हम भी कोई कम नहीं!”
बस टिंडामल फिर गेंद झपटने में लग गए और कद्दूमल तथा आलूराम-कचालूराम समेत उन्होंने कइयों की पीठ सेंकी।
आखिर कोई घंटे भर बाद जब सारे खिलाड़ी पसीने-पसीने हो गए, तो बैंगन राजा ने चाँदी की खूबसूरत छल्लेदार छड़ उठाकर खेल खत्म होने का इशारा किया।
खेल खत्म होने के बाद पीठ पर पसीने से चिपकी हरी शर्ट हटाकर हवा में पीठ सेंक रहे थे टिंडामल। राजा बैंगनमल ने मुलायम स्वर में पूछा, “च…च…च, कहीं ज्यादा तो नहीं लग गई?” इस पर टिंडामल थोड़े शरमाकर बोले, “ओह राजा साहब, पर कुछ भी कहो, आया बड़ा आनंद!”
सब्जीपुर के सारे खिलाड़ी हैरत से देख रहे थे। जिस तरह टिंडामल की गेंद लाल-लाल थी, उनकी पीठ भी उसी तरह लाल-गुलाल हो गई थी। फिर भी वे मुसकरा रहे थे और सब्जीपुर के पुराने खिलाड़ियों से कह रहे थे, “अब तो तुम मुझे रोबना नहीं कहोगे न! नहीं कहोगे न कच्चड़?”
इस पर बैंगन राजा के अलावा टिंडामल को सबसे ज्यादा प्यार से गले लगाया आलूराम-कचालूराम ने। बोले, “हाँ भई, हाँ टिंडामल, अब तुम भी हो गए सब्जीपुर की स्पोट्सर् टीम के पक्के खिलाड़ी।”
टिंडामल इस कदर खुश थे और कुछ इस कदर जोरों से मुसकरा रहे थे, जैसे उन्हें सारी दुनिया का अकूत खजाना मिल गया हो।
ये उपन्यास ‘बच्चों के 7 रोचक उपन्यास’ किताब से ली गई है, इसकी और उपन्यास पढ़ने के लिए नीचे दिए गए लिंक पर जाएं – Bachchon Ke Saat Rochak Upanyaas (बच्चों के 7 रोचक उपन्यास)
