भारत कथा माला
उन अनाम वैरागी-मिरासी व भांड नाम से जाने जाने वाले लोक गायकों, घुमक्कड़ साधुओं और हमारे समाज परिवार के अनेक पुरखों को जिनकी बदौलत ये अनमोल कथाएँ पीढ़ी दर पीढ़ी होती हुई हम तक पहुँची हैं
क्या-क्या सोचा था। कैसे-कैसे सपने देखे थे। उसके सपनों ने एक वक्त ऊँची उड़ान भरी थी। इंजीनियरिंग में प्रवेश मिलना अपने-आप में एक बहुत बड़ी बात थी। रिश्तेदारी में उसकी बात चलती तो गर्व से उसकी छाती चौड़ी हो जाती। इंजीनियर बन गया तो पापा की तरह कमाएगा। पर पापा तो सरकारी महकमे में हैं। नहीं, वह सरकारी दफ्तर में काम नहीं करेगा। ग्रप सी से ग्रुप बी तक का सफर-बस इतने सालों में यही तरक्की की है पापा ने। वेतन भी खास नहीं। ऊपर से ट्रांसफर, शिफ्टें, नाइट ड्यूटी। उसने पापा को ऐसा ही देखा था। माँ एक बीमा कंपनी में थी। भाई स्कूल के आखिरी साल में था। वह भाई को भी गाइड करेगा। कितने पापड़ बेलने पड़ते हैं प्रवेश पाने के लिए। कितना रुपया भी खर्च हो जाता है। अच्छा है, इसी शहर के कॉलेज में प्रवेश मिल गया। डोनेशन भी देना पड़ा थोड़ा बहुत। प्राइवेट कॉलेज ही सही। इतने अच्छे नंबर भी नहीं मिले थे कि बढ़िया कॉलेज में प्रवेश मिल पाता। इलेक्ट्रॉनिक्स में ही सही। इंजीनियरिंग तो इंजीनियरिंग है। चार साल कैसे बीत जाएंगे पता भी नहीं चलेगा।
कॉलेज में वह दबा दबा रहता। मझोले कद का, गेहूंई रंगत लिए, गहरी भूरी आंखों वाला, पतला दुबला सौरभ। उसकी शक्ल सूरत आम थी। ऐसा लड़का हर तीसरे घर में मौजूद होता है। फैशन दार कपड़े भी कम ही पहनता था। रेडीमेड पेंट शर्ट की बजाए कपड़ा लेकर सिलवाता। घर में रहता तो पावों में सस्ती हवाई चप्पल होती। घर का माहौल ही ऐसा था। कोई आडंबर नहीं। शुरू से ही उसे पैसों की कीमत मालूम थी। बाहर एक रुपया भी खर्च नहीं करता। यार दोस्त कभी जिद करते तो पहले ही घर से रुपए ले जाता और कोल्ड ड्रिंक या ज्यादा से ज्यादा उसके साथ समोसा कैंटीन में खिला देता। उसकी कक्षा में ले देकर पांच लड़कियां ही थी। पूरी कक्षा उनके इर्द-गिर्द घूमती। ऐसे में उस साधारण सी सूरत वाले लड़के की ओर भला कौन देखती? घर आता तो कंप्यटर में घस जाता। कितना मन था उसका कि कंप्यूटर इंजीनियरिंग में उसे प्रवेश मिल पाता पर नंबर ही कम आए थे। भारी डोनेशन देना उसे मंजूर नहीं। बाद में पापा कभी ना कभी सुना ही देते कि तुझ पर इतना खर्च कर दिया। इसमें अच्छा तो जिस क्षेत्र में प्रवेश मिल रहा है, ले लो।
ठीक है। कहीं ना कहीं तो नौकरी मिल ही जाएगी। वह भविष्य के प्रति आश्वस्त था।
तीसरे वर्ष में था कि कंपनियां कैंपस इंटरव्यू के लिए उसके कॉलेज आई। उसके कुछ दोस्त चुन लिए गए। चलो, उनका भविष्य सुरक्षित। वह रह गया। कोई बात नहीं। पढ़ाई खत्म होते ही कहीं न कहीं उसे नौकरी मिल ही जाएगी। उम्मीद की किरण उसके मन में रह रह कर फूट पड़ती।
उसने अंतिम वर्ष में प्रवेश किया। पढ़ाई में मन लगाता पर जाने क्यों उसे असुरक्षा की एक लहर बेचौन कर देती। मन में खलबली मची रहती। रात को कई बार उठ कर बैठ जाता।
उस दिन पसीने से तर बतर उसे सांस लेने में तकलीफ हो रही थी। उसने उठकर छोटी बत्ती जलाई और बाथरूम स्लीपर पहने। लॉबी में रखा फ्रिज खोला। ठंडे पानी की बोतल निकाली और मुंह से लगा लिया। एक ही साँस में उसने बोतल खाली कर दी। खाली बोतल रसोई में स्लैब पर रख आया। अपने कमरे में आया और खिडकी परी खोल दी। कलर की हवा उसे गर्म लग रही थी। ‘इस उमस-भरे मौसम में पत्तों की सांस भी घुटकर रह गई है। बेजान लग रहे वृक्ष मृतप्राय से खड़े ऊँघते हुए सो रहे हैं। मटमैले आसमान में पिचका सा चाँद मुँह बिचकाकर पसीना पोंछ रहा है। कुत्ते भी गर्मी से बेहाल ऊंघ रहे हैं। जीभ बाहर निकली हुई आँखों को मींचते फिर खोलते और ऊँघते हुए फिर मिचमिचाते। बेशक उनके कान हर खतरे को सुन रहे हैं।’ काफी देर बैठा उन्हें देखता रहा। ‘इस वर्ष समर को कंप्यूटर इंजीनियरिंग में सीट मिल ही गई। वह तो वैसे भी कुशाग्र बुद्धि है। उसे नौकरी की क्या चिंता। मम्मी तो पहले ही कहती है कि छोटा कुछ कर ही जाएगा। तो क्या मैं कुछ नहीं कर पाऊंगा?’ सोचकर उसकी उदास आँखें और उदास हो गई। उसे शरीर पर चीटियां रेंगती महसूस हुई। उसने उठकर चादर को झाड़ा और दोबारा बिछा दी। अब वह पलंग पर लेट गया।
‘वहां समर हॉस्टल में रहकर मस्ती मार रहा होगा। मार ले बेटा, मार ले। यही दिन है लड़कियों के साथ घूमने फिरने के। क्या दिन थे वे भी। सोना, कैसी सोना सी है सोना। खामोश निगाहें, ढीली-ढाली चोटी, मझोले कद की, चुप्पी सी लड़की। अपने में खोई खोई। उसका मदहोश रहना ही आमंत्रण है। हमेशा अपनी सहेलियों में गुम। क्लास में किसी लड़के से उसे बात करते नहीं देखा। आह, एक साल के बाद वह कहाँ और मैं कहाँ, कौन जाने?’
उसे नींद आने लगी। रात्रि के तीसरे पहर ने चुपचाप अपने कदम रखें। कोई शोर नहीं। सब चुपचाप सा हो गया। उसके भीतर प्रश्नों की बौछार और सोचों की लड़ी गुत्थमगुत्था होकर सो रही थी।
तारीखें कब किसी के लिए रुकती हैं। एक उद्देश्य था डिग्री हासिल करना, वह पूरा हो गया। ‘आह, पढ़ कर थक गया हूँ। पास हो गया, डिग्री पूरी हो गई अब नौकरी की चिंता। थोड़े दिन सुस्ता लेता हूँ।
वह दोस्तों के साथ पिक्चर देखने चला गया। वापसी पर मॉल में आइसक्रीम खाते लड़कियों को देखते चारों आँखें देख रहे थे। नहीं मन ही मन ख्याली पुलाव पकाते की रंगीनियों को निहार रहे थे। रात के दस बजे तफरीह करके वह घर लौटा।
कल से नौकरी ढूँढना शुरू। उसे रोमांचक लग रहा था, कुछ डर भी। वह नित्य कंप्यूटर पर इंटरेनट खोलकर बैठ जाता। ‘वॉक-इन’ इंटरव्यू के लिए जाता। अखबार में ‘वांटेड’ के कॉलम पर पेन से गोला बनाता। जो नौकरी उसे उसके लायक लगती वहाँ सम्पर्क करता। ‘फ्रेशर्स’ में ही मिलेगी। दिन-भर इंटरनेट खोले बैठा रहता। पापा की ट्रांसफर करनाल हो गई थी सो वे शनिवार की रात घर आते और सोमवार सुबह वापस जाते। मम्मी दफ्तर जाती तो शाम छः बजे घर आती।
घर में वह अकेला रहता। कभी टी.वी. चलाता, कभी स्टीरियों पर मनपसंद गाने सुनता, कभी सो जाता। तीन महीने बीत गए। अब तो मम्मी से भी शर्म आने लगी है। पापा के सामने जाने से ही कतराने लगा। उसे पापा की आँखें पीठ पर चुभती महसूस होती। मम्मी कभी-कभी जरूर कहती-‘कोई भी नौकरी मिले कर ले। तनख्वाह का मत सोच। एक बार किसी कम्पनी में अड़ जा और थोड़ा सा तजुर्बा मिल जाएगा तो आगे बड़ी कंपनी में जगह बन जाएगी।
उसे सुनकर झुंझलाहट होती। ‘मम्मी तो मुझे एकदम बच्चा समझती है। नन्हा बच्चा। जिसकी उंगली पकड़कर उसे चलाना पड़ता है। अब मैं बच्चा नहीं हूँ। सब समझता हूँ। मम्मी का जमाना और था जब नौकरियाँ राहों में पड़ी थीं। एक ढूँढो’ दस मिलती थी और आज…? आज एक पोस्ट के लिए बीस-पच्चीस या कई बार चालीस-पचास उम्मीदवार भी आ जाते हैं। कितने इंटरव्यू दे चुका हूँ। सब को चाहिए स्मार्ट, डायनैमिक, तेज-तर्रार उम्मीदवार यानी एकदम चालू। उन्हें कोई लेना-देना नहीं कि वह आगे चलकर ईमानदारी से काम करेगा भी या नहीं। बस फर्राटेदार अंग्रेजी बोलने वाला टपर-टपर जवाब देने वाला, सबको चलाने वाला निरन्तर काम करने वाला चाहिए। अरे, ये बीस हजार देंगे और चालीस हजार को खून चूसेंगे। जो भी हो पर रमन, सोमिल, चेतन सभी कहीं-न-कहीं लग गए हैं। पट्रों के नंबर मुझसे तो अच्छे ही थे। कुछ उनके बापों की सिफारिशें और कुछ रिश्वतें…। एक मेरा बाप है जो मुझ पर धेला खर्च करके राजी नहीं है। पापा समझते क्यों नहीं कि उस समय ईमानदारी का मोल था, काबलियत की तारीफ थी और आज…? आज ईमानदारी, काबलियत सब टक-टके में बिकती है, जितनी मर्जी खरीद लो।’
सोच समझकर वह अपने आप को तानों में बींध देता। कभी उसे लगता वह तीरों की नोक पर लेटा ‘भीष्म पितामह’ है। कभी उसे लगता वह अंगारों पर चलता सा नट है। जो पेट की खातिर अपने को आग में झोंक देता है।
आज छः महीने बीत गए। मेल चेक करते करते थक गया। कभी फोन की घंटी बजती तो वह दौड़कर उठाता कि शायद उसे नौकरी के लिए बुलाया हो। हर बार की निराशा उसकी खोई आंखों में जमे सपने को खुरच कर उखाड़ने का प्रयास करती।
उसकी हालात देखकर मम्मी को चिंता हुई। पति से सलाह मशवरा कर उन्होंने उसे ‘जावा’ कोर्स करने को कहा। वह अपना कैरियर कंप्यूटर में ही बनाना चाहता था। इलेक्ट्रॉनिक्स वालों की भारी भीड़ है यहां। इंजीनियरिंग कॉलेज भी तो कुकरमुत्तो की तरह हर शहर, हर कस्बे में खुल गए हैं। हर साल कितने युवक इंजीनियर बन कर बाजार में अपने को खड़ा करते हैं। बहुराष्ट्रीय कंपनियां बोली लगाकर महंगे इंजीनियरों को खरीद लेती है। क्रीम खुद रख लेती है और फोक में छोटी कंपनियों के लिए पटक देती है। बेरोजगारी के कारण छात्रों में निराशा ने पहले तो क्या हो?
घर में खाली बैठकर व्यर्थ का तनाव पालने से अच्छा वह कोर्स कर ले ताकि एक अतिरिक्त योग्यता जुड़ जाए। नौकरी मिलने में आसानी होगी।
उसने मन लगाकर पढ़ाई की। उसे लगा फिर से कॉलेज के दिन लौट आए हैं। इसमें काफी लड़कियां थीं। कुछेक उसे अच्छी लगने लगीं। वह चुपचाप उन्हें निहारता पर उनसे बात करने की हिम्मत नहीं हुई। उनके हाई-फाई कपड़ों को देखकर वह वैसे ही हीन भावना का शिकार हो जाता। कभी किसी लड़की को देख रहा होता और अचानक वह उसे अपनी तरफ देखता पाती तो उसे लगता कि उसकी चोरी पकड़ी गई। वह झेंपकर नजरें घुमा लेता।
अबकी बार उसे जरूर नौकरी मिलेगी। उसे कंप्यूटर काफी हद तक आता है। ‘पूछे जो भी पूछना है। एक एक प्रश्न का जवाब दूंगा।’ उसमें आत्मविश्वास लबालब भर गया।
मौसम बदलने का अंदाज तब लगता है जब छींक आती है। देह मौसम के बदलाव के साथ आगाह कर देती है। समझने की बात है। उसने अच्छे अंकों से कोर्स पूरा किया। सर्टिफिकेट की फाइल में एक और सर्टिफिकेट जुड़ गया।
उसने दोबारा नौकरी के विज्ञापन देखने शुरू किए। बायोडॉटा भेजते समय बोल्ड अक्षरों में लिखे ‘सिक्स मंथ कोर्स इन जावा’ पर भरपूर दृष्टिपात करता।
उसे पूरा विश्वास था कि अब उसे निराशा के बादलों से आँखें चार नहीं करनी पड़ेंगी। आशा की मीठी फुहारों से उसका तन-मन भीगने लगा।
वह आवेदन-पत्र भेजता रहा और उत्तर की प्रतीक्षा में पलक पांवड़े बिछाकर बैठा रहा। उसे खाली बैठे-बैठे तीन महीने और व्यतीत हो गए। घर पर रहता सो मम्मी के साथ कभी-कभी फर्श धुलवा देता, कभी बर्तन रगड़ देता तो कभी सूखने के लिए कपड़े तार पर डाल देता। अपना कुर्ता तार पर टांगते समय उसे लगता, वह भी बेरोजगारी की तार पर टंगा हुआ है। सबसे ज्यादा उसे पास पड़ोस की चुभती निगाहें बुरी लगती।
“मिसेज कुलकर्णी, आजकल क्या कर रहा है आपका बेटा? कहीं नौकरी मिली या नहीं? हाँ, मेरे देवर का लड़का भी फिलहाल खाली है। हालात ही खराब हैं। नौकरी न मिलने पर कई बार बच्चा आत्महत्या तक…..। आप ध्यान रखना बिट्टो का।”
मम्मी सुनकर सहम जाती। वह कई बार उसके पीछे पीछे रहती। अक्सर वह रात को ही घर से निकलता। स्कूटर ले जाता। पीछे से मम्मी की आवाज आती-
“स्कूटर ध्यान से चलाना। और हाँ, वापसी पर सब्जी लेते आना। फ्रीज खाली हो रहा है।”
वह दबे पांव घर से निकलता और किसी दोस्त के पास चला जाता। दोस्त कौन उसके लिए बैठे रहते हैं। थक हार कर नौकरी से आते हैं। घर के बाहर खड़े खड़े गपियाते हैं। अब तो अंदर भी नहीं बुलाते। वह भी कौन सा अंदर जाना चाहता है। उस दिन सोमिल की मम्मी ही पूछ बैठी- “कौन सी कंपनी में हो बेटा?”
“अभी नौकरी नहीं मिली, आंटी जी।” कहते ही उसे लगा कि वह शर्म से कहीं गढ़ जाए। इतना बड़ा हो गया और कुछ कमाता नहीं–बस माँ-बाप की रोटियां तोड़ रहा है। वह दोस्तों के पास जाने से भी कतराने लगा।
एक अजीब रिक्तता उसके भीतर जमी रहने लगी। किसी काम को करने का मन नहीं करता। कभी कोर्स की किताबों को घूरता, कभी सर्टीफिकेट वाली फाइल को। कभी लगातार छत को घूरता। अब तो दो-दो दिन तक कंप्यूटर को हाथ न लगाता।
अनमने भाव से उसने कंप्यूटर खोला। वह की बोर्ड पर जोर-जोर से उंगलियां पटकने लगा। इंटरनेट पर सर्किंग करते हुए ‘डॉट कॉम’ के घेरे में फंस गया। उसे एक कंपनी का विज्ञापन दिखाई दिया। ‘रिक्वायर्ड इंजीनियर्स।’ उसने तुरंत बायोडाटा मेल कर दिया। कुछ आशा बंधी पर वह यह भी जानता था कि हर बार बंधी आशा बांध तोड़ कर बह निकलती है। इस बार भी–शायद—।
वह गुमसुम हो गया। दो दिन बाद उसने यूं ही मेल-बॉक्स चेक किया। ‘ओह बुलाया–।’ वह हर्षातिरेक से नाच उठा। काफी समय बादजीजी। ‘पर कहीं फिर रिजेक्ट न कर दिया जाऊँ?’ सोचकर ही उसकी खुशी फूटे बुलबुले सी शून्य में फैल गई। थोड़ी देर पहले जहां उम्मीद की एक किरण उजास लिए खड़ी थी अब वहां स्याह अंधेरे की लकीर खींच गई।
कंप्यूटर बंद करके वह शाम का इंतजार करने लगा। मम्मी से बात करूँगा। कल ही इंटरव्यू के लिए बुलाया है। कितने दिनों से कोई कमीज नहीं खरीदी, पेंट भी नहीं सिलवाई। अब थोड़े समय में नई पैंट-कमीज कहाँ से आएगी। चलो, पुरानी ही पहन लूँगा। कौन सा मुझे यह नौकरी मिल ही जाएगी।
वह बरामदे में चहलकदमी करने लगा।
अगले दिन वह तैयार हो गया। इंटरव्यू के लिए थोड़ी सी पढ़ाई करके सर्टिफिकेट की फाइल उठाई, पर्स उठाया और कर्म भूमि की ओर प्रस्थान किया। दिन कैसे हाथों से फिसल गया, पता ही नहीं चला।
शाम को वह लस्त-पस्त घर लौटा। मम्मी ने पूछा तो जवाब दिया कि कल बताएंगे। वैसे भी एनालिस्ट की जॉब है। बिलों स्टैंडर्ड। मायूसी में उसने एक चपाती निगली।
उसे नौकरी मिलने की उम्मीद नहीं थी पर मिल गई तो क्या उसे कर लेनी चाहिए? बाकी यार दोस्त सुनेंगे तो क्या कहेंगे कि डिग्री होल्डर होकर आम स्नातक के स्तर की नौकरी कर रहा है। ‘हुंह–कहने दो। कुछ न करने से तो अच्छा है। कुछ रुपए तो आएंगे हाथ में। बार-बार पैसे के लिए मम्मी के सामने हाथ पसारना अच्छा नहीं लगता। पर मिले तो–।’
इसी उहापोह में दो दिन गुजर गए। वह कंप्यूटर पर बैठा मेल चेक कर रहा था कि फोन की घंटी बज उठी। मरे कदमों से उसने फोन उठाया। वहाँ से रिसेप्शनिस्ट की खनखनाती आवाज ने उसे खुशखबरी सुनाई कि वह कंपनी में चुन लिए गया है और कल से कार्यभार संभालना है।
‘थेंक यू’ उछाल कर उसने फोन रख दिया। एक पल के लिए उसे लगा किसी ने मजाक तो नहीं किया उसके साथ। कौन करेगा उसके साथ? किसी को पता नहीं कि उसने आवेदन किया है।
सच ही है यह। नौकरी लगने की बात याद करके उसके कान गरम हो गए। उसमें से भाप निकलती महसूस हुई। आँखें लाल हो गई। दिल की धड़कनों की गति कुछ तेज हुई जो संभाले नहीं संभल रही थी। किसको सुनाए यह खबर? मम्मी तो घंटे बाद आएगी।
सोच-कर वह पागल हुआ जा रहा था। भागकर कमरे में गया और शीशे के सामने खड़ा हो गया। ‘कुछ स्मार्टनेस तो है मुझेमें। कुछ तो देखा होगा मुझमें, सभी चुन लिया। हूँ-तो मिस्टर सौरभ कुलकर्णी, अब से आप बेकार नहीं है। नौकरी वाले हो गए हो। कुछ बन गए हैं आप। अभी तो शुरुआत है। तनख्वाह कम सही फिर आगे बढ़ती जाएगी। क्या क्या खरीदना है, हाँ, मोबाइल, बाइक, नए जूते, नए कपड़े और–और–।’
इतने में बेल बज उठी। वह टेलीफोन की तरह दौड़ा पर यह क्या, फोन की घंटी तो नहीं बज रही। करी-कर्र दुबारा घंटी बजी तो ध्यान आया कि मुख्य द्वार की घंटी है। वह भागकर दरवाजा खोलने गया। दरवाजे पर मम्मी खड़ी थी। ओह, छः बज गए पता ही नहीं चला।
मम्मी को पानी लाकर दिया और नौकरी के विषय में बताया। उसकी आँखें रात में जुगनुओं की तरह चमक रही थी जो सहज आकर्षित कर रहीं थी।
मम्मी उसे बढ़ावा देने की गर्ज से बोली-चलो एनालिस्ट ही सही। कंपनी में अड़ गए तो भविष्य में अच्छे अवसर मिलेंगे।
वह खुश, मम्मी भी खुश। पापा को फोन पर मम्मी ने खुशखबरी सुना दी थी।
अगले दिन से बेरोजगार सौरभ कमाऊ पूत हो गया। अब उसके ठाठ हैं। उसने धीरे धीरे काम सीख लिया। वह सबह आठ बजे कंपनी की बस में जाता और नौ बजे वहां पहुंचता। सात बजे वहाँ से छूटता तो आठ-सवा आठ तक ही घर पहुंचता। रात को थक कर चूर हो जाता। खाना खाकर पलंग पर जो बिछता तो सुबह छः बजे ही आँख खुलती।
समर का भी तीसरा साल चल रहा था। कभी-कभी छुट्टियों में दोनों भाई बैठते तो कैरियर की बातें करते। सौरभ उसे बड़े भाई की तरह समझाता, साक्षात्कार के लिए टिप्स देता। खुशी उसके चेहरे से टपकती। उसका सपना साकार हो गया था।
दिन कब निकल जाता और रात कब दबे पांव सरक आती उसे पता ही न चलता। छुट्टी के दिन कंप्यूटर पर बैठता या दोस्तों के पास चला जाता। चार महीने तनख्वाह के रंग में रंगा रहा। हरे-हरे नोट माँ के हाथ पर धर देता और ‘कमाऊ पूत’ के अहसास से उसके कंधे स्वतः ही चौड़े हो जाते। उसने पापा की चुभती निगाहों को गर्वीली निगाहों में तब्दील होते देखा। उनसे संवाद वैसे भी न के बराबर था। जो बातचीत होती मा को मध्यस्थ रखकर होती।
रोज की तरह रात आठ बजे वह घर लौटा। उसका बदन हल्का गर्म था। उसकी आँखें लाल थी। वह आते ही लेट गया। मम्मी ने उसे छुआ तो हल्के ज्वर की आशंका हुई। वह चुपचाप लेटा रहा। ‘भूख नहीं है’ कहकर खाना भी नहीं खाया। शायद थक गया होगा। ऑफिस में काम ज्यादा होगा। मम्मी ने उस पर खाने के लिए दबाव नहीं डाला और उसे सोने दिया। अगली सुबह उठा तो मम्मी ने उसका माथा छुआ। अब उसका शरीर गर्म नहीं था, एकदम सामान्य था पर जाने क्यों वह असामान्य लग रहा था। उसकी खोई खोई आंखें, एक दम से चौक जाना, अनमने भाव से तैयार होना। मम्मी ने मम्मी ने सब नोट किया। पूछा तो टाल गया।
हर शाम वह घर आता, एक-आध निवाला तोड़ता और सो जाता।
तीन दिन हो गए उसे ऐसा करते-करते। इतवार को मम्मी से रुका न गया। उससे पूछ ही लिया। पहले तो वह टालता रहा पर मम्मी ने कहा“हम तेरे दुश्मन तो नहीं। तू बता क्या बात है? क्या परेशानी है? ऑफिस में कोई परेशानी है? किसी ने कुछ कहा? कोई परेशानी है तो लात मार दे नौकरी को। बतेरी मिल जाएंगी। फालतू टेंशन मत ले। जब तक हम बैठे हैं तुझे चिंता कोई जरूरत नहीं।’
मम्मी का इतना कहना था कि वह वह फूट-फूटकर रो पड़ा। हिचक-हिचक कर रोते-रोते मम्मी की गोद में सिर रख दिया। मम्मी उसे चुप कराती रही। उसे समझाती रही। बिना उसकी परेशानी जाने। पानी पीकर जब थोड़ा संयत हुआ तो उद्वेलित स्वर में बोला-
“मैं जब से इस दफ्तर में आया हूँ परेशान ही रहा। सबसे पहले तो मेरी योग्यता से कमतर है यह जॉब। मैं चुप रहा, चलो कोई बात नही, जॉब तो है। न से तो अच्छा। मैं काम सीखता रहा। अब काम सीख गया हूँ तो मेरा टीम लीडर बात-बात पर मुझे धमकाता है कि काम ठीक न हुआ तो नौकरी से निकलवा दंगा। उसके अंदर एक डर बैठा हआ है कि कल को मैं उससे आगे न बढ़ जाऊं। उसकी योग्यता मुझसे कम है इस कारण वह बात-बात पर मुझे जलील करता है। मुझे धमकियां देता है। मेरे काम में नुक्स निकालता है। एकाध बार मुझसे गलती हुई थी पर वह तो पूरी दुश्मनी निकाल रहा है। बहुत परेशान कर रखा है।”
कहकर वे हाँफ गया। अचानक उसकी सांस तेज चलने लगी। उसे पसीना आने लगा। आँखें लाल हो गई। मम्मी उसकी यह दशा देख घबरा गई। वे उसे पीठ पर जोर जोर से सहलाने लगी। उसे पलंग पर लिटाकर भागकर रसोई में गई और नींबू पानी बना लाई। पानी पिलाया और सांत्वना देती रही।
“भाड़ में जाए यह नौकरी। पहले सेहत है। तू टेंशन मत ले। दूसरी नौकरी मिल जाएगी। नहीं तो कोई बात नहीं। हम बैठे हैं। तू चिंता मत कर।”
पानी पीकर वह सामान्य हुआ। मम्मी उसकी हालत देखकर घबरा गई। उसके सामने तो कुछ नहीं बोली पर मन-ही-मन चिंतित अवश्य हो गई।
सौरभ दफ्तर से घर लौटता तो मम्मी को अपनी ओर सवालिया निगाहों से तकता पाता। इससे पहले कि मम्मी कोई सवाल करे वह मुस्कुरा देता। उसकी मुस्कुराहट से मम्मी निश्चिंत हो गई।
अगले शुक्रवार को उसने ऑफिस के दोस्तों के साथ मसूरी जाने का प्रोग्राम बनाया। बहुत खुश था। सारी तैयारी कर ली।
शुक्रवार को वह बैग साथ ले गया। वहीं दफ्तर से निकल जाएगा। मम्मी भी खुश थी। चलो, बच्चा बाहर जा रहा है। थोड़ा बदलाव हो जाएगा।
शाम अभी पूरी तरह दस्तक भी नहीं दी थी कि यह क्या–। दोस्त उसे वापिस घर ले आए। मम्मी हैरान-परेशान। दोस्तों ने बताया- ‘सुबह उसकी टीम लीडर से झड़प हुई थी। तब तो यह चुप रहा। थोड़ी देर बाद वहीं हाथ-पैर फेंकने लगा। सांस तेज चलने लगी। इसे पास के नर्सिंग होम में दफ्तर वालों ने भर्ती कराया। वहां से हम इसे घर ले आए हैं। इस हाल में पिकनिक पर ले जाना ठीक नहीं। कहीं रास्ते में कुछ हो गया तो?’
उस समय समर भी घर पर था। दोस्त उसे छोड़कर चले गए। घबराए हुए दोनों उसके पास बैठ गए। सलाह मशवरा करके उसे स्थानीय अस्पताल ले गए। आखिर बार-बार ऐसा क्यों हो रहा है? क्या बीमारी है इसे? अस्पताल वालों ने उसकी हालत देखी तो उसे भर्ती कर लिया। उसे ग्लूकोज चढ़ाया। साथ ही उन्हें सलाह दी कि इसके सारे टेस्ट करवा लो। बीमारी की जड़ का तभी पता चलेगा।
पापा को फोन करके पहले ही सूचित कर दिया था। रात तक वे भी आ गए। एक युवा लड़का और इतना तनाव–? इस उम्र में खून वैसे ही गर्म होता है, जोश होता है, भिड़ने की ताकत होती है, चिंता करके घुल घुल कर जीने की नहीं। चार दिन वह अस्पताल में रहा। उसके सारे टेस्ट हो गए। रिपोर्ट रिपोर्ट में आया कि ब्लड प्रेशर हाई है और तनाव के कारण ऐसा हो जाता है। डॉक्टर ने बताया कि वह आत्मविश्वास खो चुका है। उसे लगता है कि वह किसी लायक नहीं।
मम्मी के आंसू टपक पड़े। पापा खामोश बैठे रहे। मम्मी उसके सामने रोती तो शायद वह और टूट जाता।
अस्पताल से उसे घर ले आए। दवाइयां तो अब चलनी ही थी। मम्मी ने उसे साफ कह दिया-‘अब तुम यह नौकरी नहीं करोगे। यह तुम्हारे लायक ही नहीं है। तुम ठीक हो जाओ। कोई और नौकरी तलाश लेना।’ वे आंसू छिपाने लगी।
“क्यों झूठ बोल रही हो मम्मी। तुम्हारा बेटा इतना कमजोर नहीं है। मुझे मालूम है कि कंपनी ने मुझे निकाल दिया है। सच भी है, एक बीमार लड़का उनके किस काम का। तुम चिंता मत करो मैं ठीक हूँ।” वह सांत्वना देते हुए बोला।
मम्मी हतप्रभ रह गई। जो सच वे उस पर जाहिर नहीं करना चाहती थीं उस सच से वह वाकिफ है और उन्हें सांत्वना दे रहा है।
एक दूसरे की आंखों में गम की परछाई देख दोनों अपना-अपना गम एक दूसरे से छिपाने लगे।
उसका अस्तित्व एक बार फिर उसी छोर पर आ खड़ा हुआ जहाँ से उसने सफर शुरू किया था। वह फिर से पीछे आ गया। शायद भाग्य में यही बदा हो। अब वह घर में अकेला रहता, पहले की तरह। कई दिन हो गए घर में पड़े-पड़े। उल्टे-सीधे विचार उसके मन में आते। उसे अपने भीतर गंध का एहसास हुआ। वह अपना कुर्ता पकड़कर सूंघने लगा। पता नहीं उसे क्या हो गया था। उस दिन स्कूटर से आ रहा था तो दूसरे स्कूटर के साथ भिड़ गया। हाथ पर चोट लगी। फिर वही तेज तेज सांसों का सिलसिला। थोड़े दिन बाद लाइसेंस न होने पर पुलिस वाले ने चालान किया तो वह घबराया हुआ घर पर आया और हांफने लगा। दिन-ब-दिन है घुलने लगा।
उसे सब कुछ अजीब लगता। उसे हर वस्तु से गंध आती। गंद भी विषैली. खट्री जलने की। वह आईने के सामने कंघी कर रहा था कि उसे अपनी आंखों से धुंआ निकलता दिखाई दिया। उसका अंतस जलने लगा। वहीं से धुआं आंखों के रास्ते बाहर निकल रहा था। उसके सपने जल रहे थे। उसकी आकांक्षाओं का आकाश भरभरा कर गिर रहा था। गंध, विचित्र गंध, मृत देह के जलने की गंध। वह अपने आप को सूंघता, नाक फुलाकर यहां वहां हर जगह हवा में गंध सूंघने का प्रयास करता। रसोई में जाने से डर लगता। उसे वहां रखे कूड़ेदान से निकलती दुर्गध बेचौन कर देती। वह भाग कर लॉबी में आ जाता। घर से बाहर निकलता तो रबड़ जलने की गंध आती। कभी कूड़ा जलने की गंध उसे उत्तेजित कर देती। वह माथा पकड़ कर बैठ जाता. कभी सिर पर हाथ मारता, कभी नाक पर हाथ रख लेता। उसे दूध से गंध आती, रोटी से गंध आती। मम्मी से उसने कहा तो वे चिंतित हो गई। अच्छा भला लड़का कहीं मानसिक रोगी की ही न बन बैठे।
वह गंध से इतना बेचौन हो गया कि नहाने के बाद पाउडर लगाता, कई बार इत्र लगाता तो कई बार कमरे में भी फ्रेशनर का छिड़काव करता हूँ। हर काम में सूंघता फिरता। कहीं से कोई गंध आ रही है। कहाँ से आ रही है? कुर्ते में नाक घुसा कर सूंघता। गंध, सड़न, बदबू, मितली आने लगती। कभी मितली की बू तो कभी पेट में बदबू। चारों ओर की हवा जहरीली हो गई है। उसके सपने स्याह हो चके हैं। राख बिखर गई है चारों ओर। राख के ढेर पर बैठे उसे कई दिन हो गए।
मम्मी ने उसकी हालत देखी तो तड़प कर रह गई। क्या करें? किसे दिखाएं? किसी मनोचिकित्सक से राय ले? कई बार वह दो-दो दिन तक नहाता नहीं था। दाढ़ी अक्सर बढ़ी रहती। असमय बूढ़ा हो रहा था। जिम्मेदारी न होते हए भी जिम्मेदारियों के बोझ से लदा झके कंधों वाला खोया सा बुढ़ाता लड़का। यहाँ-वहाँ गंध को खोजता फिरता। फिर उससे छुटकारा पाने की कोशिश करता। कैसा सूखकर कांटा हो गया है मेरा फूल सा बच्चा। मुस्कुराहट तो जाने कहाँ खो गई है? कैसे ठीक होगा? कब मिलेगी इसे नौकरी? अब तो यह आस ही छोड़ बैठा है।
मम्मी उसे लेकर बेहद चिंतित थी। जवान बेटे को अपने सामने घुल घुलकर जीते देखती तो दिल से उठती हूक आंखों के रास्ते जर्जर बहती। हारकर उन्होंने उसके पापा से उसकी अजीब हालत के बारे में बात की।
वह कमरे में पलंग पर बैठा कुछ सूंघने का प्रयास कर रहा था। शायद तनहा होने की गंध। पापा अंदर आए और उसके पास बैठ गए। वे संवाद का पुल बनाकर उसके पास पहुंचने का प्रयास करने लगे।
“बेटा! हार जाने का नाम जीवन नहीं। इस युद्ध क्षेत्र में तुम अकेले लड़के नहीं हो। कई है तुम्हारे जैसे। पलायन कायर करते हैं। तुम कायर नहीं हो। तुम तो मेरे बहादुर बेटे हो। मैं तुम्हारे साथ हूँ। तुम जो निर्णय लोगे मुझे स्वीकार है। यह हार्डवेयर के कोर्स का आवेदन पत्र है। उचित समझो तो भरना। नहीं तो मत भरना। मुझे कोई आपत्ति नहीं। बेटा, मैं हमेशा तुम्हारे साथ हूँ।” स्नेहिल स्वर में कह कर बाहर चले गए।
उसे पापा के हाथ का नर्म-नर्म अहसास अभी भी हो रहा था। पर पापा के हाथ की थपथपाहट थी, छाप थी। ‘पहली बार पापा मेरे इतने करीब आए हैं। पापा मेरे साथ हैं। पापा को मैंने हमेशा दूर से जाना है। आज बाप होने का फर्ज निभा गए पापा। मैं क्यों खो गया था अपने स्वार्थ में? मेरी स्थिति से पापा पर क्या बीती होगी, यह मैंने पहले क्यों नहीं सोचा? पापा इतने कड़क नहीं जितना मैं उन्हें समझता हूँ। कमरे में पापा के संवाद अभी तक गूंज रहे हैं। मैं हमेशा तुम्हारे साथ हूँ।’
सोचकर उसके मन में मीठी चुभन उठी। स्नेह वर्षा में भीगने लगा। उसने फार्म को उलट-पलट कर देखा। फिर नाक से लगा लिया। कोई गंध नहीं। उसने दो-तीन बार सूंघा। कोई गंध नहीं। यहाँ-वहाँ, इधर-उधर, कहीं कोई गंध नहीं। कहाँ सो गई तमाम गंध? ठंडी सांस छोड़ कर वह बैठ गया और फार्म को उलट-पुलट कर पढ़ने लगा।
भारत की आजादी के 75 वर्ष (अमृत महोत्सव) पूर्ण होने पर डायमंड बुक्स द्वारा ‘भारत कथा मालाभारत की आजादी के 75 वर्ष (अमृत महोत्सव) पूर्ण होने पर डायमंड बुक्स द्वारा ‘भारत कथा माला’ का अद्भुत प्रकाशन।’
