Hindi Kahani: पूजा पंडाल में ढोल की थाप गूंज रही थी।
माँ दुग्गा के विसर्जन से ठीक पहले का दिन!
लाल बॉर्डर की सफेद साड़ी में सजी महिलाएँ माँ की मूर्ति पर सिंदूर चढ़ा कर एक-दूसरे की माँग और फिर गालों में मल रही थी।
भीड़ के बीच खड़ी रितुपर्णा का चेहरा तो चमक रहा था, लेकिन भीतर सन्नाटा पसरा था।
कुछ महीने पहले उसके पति प्रभाष ने शराब के नशे में उसे घर से निकाल दिया। अकेली होती तो कैसे भी कर लेती गुजारा लेकिन बच्चे की परवरिश..! क्या होगा आगे…सोचकर दिल डूब जाता था।
पूरे मोहल्ले की औरतें उत्सव मना रही थी, और एक वो…
“क्या मैं माँ दुग्गा के सामने झूठी मुस्कान ओढ़ पाऊँगी?”
तभी उसकी नजर पंडाल के कोने में गई। वहाँ एक आदमी किसी औरत पर चिल्ला रहा था…
“तू हमेशा उल्टा जवाब देती है…तेरी जैसी औरत को तो…!”
शायद उसकी पत्नी थी…उसने उसका हाथ कसकर पकड़ रखा था और लगातार किसी बात को लेकर डांट रहा था।
भीड़ में शायद ही कोई होगा जिसने ये नहीं देखा,लेकिन उनके लिए ये केवल एक तमाशा था और कुछ नहीं।
औरत ने कुछ बोलने के लिए मुंह खोला ही था कि…
चटाक!
गालों पर जोरदार थप्पड़! आदमी गुस्से में जैसे ये भी भूल गया था कि वो कहां खड़ा है!
रितुपर्णा का दिल कचोट गया!
उसने उस औरत को देखा…अपमानित सी – सिकुड़ी हुई! आँखें झुकाए ,गालों तक ढुलक आए आंसू! होठों पर चुप्पी! वो बार – बार उंगलियों में अपना आंचल लपेटती और छोड़ देती!
उसकी चुप्पी ने रितुपर्णा को अपना अतीत याद दिला दिया!
सालों तक झेला था उसने। उसे लगता था चुप रहेगी तो एक दिन सब ठीक हो जाएगा…बचा रहेगा घर! इस चुप्पी ने तो उससे उसका वजूद ही छीन लिया!”
गलती रितुपर्णा की नहीं है, हम औरतों को लगता है ये चुप्पी इंसान को बदलने का हुनर रखती है कितना गलत सोचतें हैं न हमलोग!
सच तो ये है कि हमारी चुप्पियां गलत को और बढ़ावा देती है ,शह देती है बुराई को! हमारी कमजोरी की निशानी होती है ये चुप्पियां! हमें लगता है चुप रहेंगे तो बचा रहेगा रिश्ता! ऊंह! कितने पागल होते हैं हम… दरकी हुई कश्ती आखिर कब तक टिक पाएगी! डूबना उसकी नियति है। बेहतर होता है कोई किनारा देखकर उतर जाना!
ढोलक की तेज थाप से रितुपर्णा का ध्यान टूटा। औरत अब भी सिर झुकाए खड़ी थी, आदमी उसकी बाजू जबरन पकड़े कुछ बड़बड़ाए जा रहा था।
पंडाल में घोषणा हुई!
“सब महिलाएँ माँ के चरणों में सिंदूर अर्पित करें।”
रितुपर्णा ने थरथराते हाथों से सिंदूर उठाया। उसकी आँखें माँ की प्रतिमा पर टिक गई!
अष्टभुजा, शेर पर आरूढ़ रूप, और कदमों के नीचे लहूलुहान राक्षस!
उसके भीतर आवाज़ गूँजी…
“या देवी सर्वभूतेषु शक्तिरूपेण संस्थिता…”
उसके कदम खुद-ब-खुद उस झगड़े की ओर बढ़ गए। उसने उस औरत का हाथ छुड़ाया और उसकी हथेली पर सिंदूर रख दिया-
“लाल रंग सिर्फ माथे की शोभा नहीं है,यह शक्ति का प्रतीक है। कोई इसे डर से धुंधला नहीं कर सकता।”
भीड़ ठिठकी। आदमी ने पलटकर गुस्से से रितुपर्णा को देखा। इससे पहले कि वह कुछ कहता, बाकी औरतें भी आगे बढ़ आई।
किसी ने उसके माथे पर भी सिंदूर लगा दिया, किसी ने गाल पर। लाल रंग से सनी हथेलियां हवा में उठी और वो नज़ारा किसी क्रांति से कम न था!
रितुपर्णा की आवाज़ गूँजी—
“जिस तरह माँ दुर्गा महिषासुर का संहार करती हैं, उसी तरह हर औरत अपने भीतर की ताक़त से अन्याय को कुचल सकती है। गलत का विरोध करना हमें सीखना होगा।”
भीड़ तालियों से गूँज उठी। उस आदमी का सिर शर्म से झुक गया और धीरे से वहाँ से खिसक गया।
रितुपर्णा ने देखा जिस औरत का हाथ उसने छुड़ाया था, उसकी आँखों में डर की जगह साहस चमक रहा था। वह बोली-
“दीदी, ऐसा लग रहा आज साक्षात् मां मुझे राह दिखाने आई है।”
ढोलक की थाप तेज़ हो गई। चारों तरफ़ सिंदूर की लाल धूल उड़ रही थी।
माँ दुर्गा की मुस्कुराती आँखें जैसे बता रही हो… मैं केवल प्रतिमा में नहीं बसती, हर औरत के भीतर भी हूं!
चारों ओर उलूलि का तेज स्वर गुंजायमान हो उठा!
दुग्गा मां ने बता दिया था…ये सिंदूर खेला सिर्फ रस्म नहीं, शक्ति का विशाल उत्सव भी है!
जॉय माँ!
