Ruthin Lakshmi
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Hindi Katha: प्राचीन समय की बात है – पृथ्वी पर भगवान् विष्णु के एक अनन्य उपासक इन्द्रसावर्णि नाम के राजा राज्य करते थे। उनके पुत्र का नाम वृषध्वज था। भगवान् शिव में वृषध्वज की असीम श्रद्धा थी। भगवान् शिव भी वृषध्वज को पुत्र से बढ़कर चाहते थे।

राजा वृषध्वज के हृदय में शिव को छोड़कर अन्य किसी भी देवता के प्रति श्रद्धा नहीं थी। उसने सम्पूर्ण देवताओं का पूजन त्याग दिया था। अभिमान में होकर वह महालक्ष्मी की पूजा में विघ्न उपस्थित किया करता था । जब समस्त देवता महालक्ष्मी की पूजा करते थे, तब राजा वृषध्वज उसमें सम्मिलित नहीं होता था । यज्ञ और विष्णु – पूजा की निंदा करना ही उसका स्वभाव बन गया था। ऐसे स्वभाव वाले राजा वृषध्वज को एक बार भगवान् सूर्य ने क्रोधित होकर निर्धन हो जाने का शाप दे दिया था।

भक्त वृषध्वज पर संकट आया तो आशुतोष शिवजी हाथ में त्रिशूल लेकर सूर्य पर प्रहार करने के लिए टूट पड़े।

अपने प्राण संकट में पड़े देख सूर्यदेव अपने पिता कश्यप के साथ ब्रह्माजी की शरण में गए। ब्रह्मा को भी शिवजी के क्रोध का भय था, अतएव वे सूर्यदेव को लेकर वैकुण्ठ की ओर चल पड़े। उस समय ब्रह्मा, कश्यप और सूर्य तीनों भयभीत थे। उन तीनों ने भगवान् नारायण की शरण ली।

तीनों ने श्रीविष्णु को प्रणाम किया और शिवजी के क्रोध का हाल सुनाया। विष्णु ने उन्हें अभय प्रदान किया और कहा – “हे देवताओ ! भय त्याग दो। मेरे रहते तुम्हें भय नहीं होना चाहिए । विपत्ति के अवसर पर डरे हुए, जो भी व्यक्ति जहाँ कहीं भी मुझे याद करते हैं, मैं शीघ्र वहाँ पहुँचकर उनकी रक्षा करता हूँ। “

इतने में शिव भी वहाँ पहुँच गए। उनकी आँखें क्रोध से लाल सुर्ख हो रही थीं। वहाँ पहुँचकर शिव ने श्रीविष्णु की स्तुति की और एक आसन पर बैठ गए।

भगवान् विष्णु ने उनके क्रोध का कारण पूछा। शिव बोले – ” हे विष्णो ! राजा वृषध्वज मेरा परम भक्त है । मैं उसे प्राणों से भी बढ़कर चाहता हूँ। सूर्य ने उसे शाप दे दिया और अब आपकी शरण में आ छिपा है, यही मेरे क्रोध का कारण है। जो व्यक्ति ध्यान अथवा वचन से भी आपके शरणागत हो जाते हैं, उन पर विपत्ति और संकट कुछ भी प्रभाव नहीं डाल सकते। यह मैं जानता हूँ, किंतु हे प्रभु ! शाप से वृषध्वज की लक्ष्मी नष्ट हो चुकी है। उसकी सोचने-समझने की शक्ति भी समाप्त हो गई है। इस शाप से मुक्ति का अब आप ही कोई उचित उपाय बताइए?”

शिव की बात सुनकर भगवान् विष्णु बोले – ” महादेव ! वैकुण्ठ में इस घटना को बीते अभी कुछ ही क्षण व्यतीत हुए है, जबकि पृथ्वी पर इक्कीस युग बीत गए हैं। वृषध्वज और उसका पुत्र रथध्वज काल का ग्रास बन चुके हैं। उसके पौत्र

धर्मध्वज और कुशध्वज सूर्यदेव के शाप से मुक्ति पाने के लिए महालक्ष्मी की उपासना कर रहे हैं। जब भगवती लक्ष्मी अपने एक अंश से उनकी पत्नियों के उदर से प्रकट होंगी, तब वे दोनों श्रीसम्पन्न हो जाएँगे।”

श्रीविष्णु की यह बात सुनकर देवगण प्रसन्न होकर अपने-अपने लोक को लौट गए। भगवान् शिव भी विष्णु को प्रणाम कर कैलाश की ओर चल पड़े।