Hindi kahani: कालदेवी को उत्पन्न करने के बाद त्र्यम्बक देव के चले जाने पर उपमन्यु ने अभ्यर्चना करके फल की प्राप्ति थी। किसी समय में बालक उपमन्यु ने अपने मामा के यहां थोड़ा-सा दुग्ध पान कर लिया था। पुनः उसको पान की इच्छा से उसने अपनी मां से जिद की। मां अपनी निर्धनता के कारण बच्चे की जिद पुरी नहीं कर सकी। किसी भी प्रकार उसको चुप होता न देखकर मां ने कुछ अन्न के दानों को पीसकर उसे पानी में घोलकर अपने पुत्र को पिला दिया।
पुत्र ने उसे बनावटी कहकर छोड़ दिया, तब मां ने दुखित होकर बेटे का मस्तक सूंघकर उसे बताया कि हे पुत्र-रत्न! परिपूर्ण स्वर्ग तथा पाताल में गोचर होने वाली शिव की भक्ति में रत रहने पर ही उसके प्रसाद रूपी यह क्षीर प्राप्त होती है, जिन पर शिव प्रसन्न रहते, उनके लिए राज्य, स्वर्ग, मोक्ष और दूध से बनने वाला भोजन दुर्लभ होता है। हे पुत्र! हम दूध कैसे प्राप्त कर सकते हैं क्योंकि हमने कभी शिव का पूजन नहीं किया। माता से ये वचन सुनकर दृढ़ निश्चयी उपमन्यु ने अपनी मां से कहा-यदि कहीं पर भी महादेव हैं तो तू अपना शोक त्याग दे। मैं देर-सबेर दुग्ध का अवश्य साधन करूंगा। ऐसा कहते हुए वह बालक अपनी मां से विदा लेकर, उन्हें प्रणाम करता हुआ तपस्या के लिए चल दिया। हिमालय की पर्वत श्रेणियों में जाकर केवल वायु का भक्षण करके उसने कठोर तप किया। उसके तप से असल जगत विभूषित हो गया। उस समय सब देवताओं ने प्रणाम करके हरि से कहा था और ऐसा जानकर स्वयं भगवान् महेश्वर मन्द्राचल पर्वत की ओर चले गए। विष्णु ने देवताओं का सारा समाचार शंकर को दिया और कहा कि हे प्रभु! उपमन्यु नाम का ब्राह्मण तपस्यालीन है। उसका निवारण कीजिए।
भगवान् शिव ने इन्द्र का रूप धारण करके उपमन्यु के आश्रम में उस पर अनुग्रह करने के लिए पदार्पण किया। अपने साक्षात् इष्ट परमेश्वर को इन्द्र के रूप में उपस्थित देखकर उपमन्यु ने उन्हें प्रणाम किया और कहा हे देव! आज मेरा यह आश्रम उपकृत्य हो गया है। जगत् के स्वामी स्वयं शंकर यहां उपस्थित हुए हैं। ऐसा सुनकर शंकर ने उपमन्यु से कहा-मैं तुम्हारी तपस्या से प्रसन्न हूं-तुम वरदान मांग लो। धौम्य, अग्रज, हे महान् गति वाले! मैं तुमको समस्त अभीष्ट देता हूं। इस पर उसने हाथ जोड़कर कहा-हे देव! मैं शिव में परम भक्ति का वरदान चाहता हूं। मुनि के इस वचन को सुनकर इन्द्र रूप धारी प्रभु ने कुपित की भांति व्यग्रता से कहा-क्या तुम नहीं जानते-मैं त्रैलोक्य का स्वामी और समस्त देवों द्वारा पूज्य हूं। तुम मेरे भक्त बन जाओ। निर्गुण रुद्र की भक्ति को त्याग दो। तुम्हारा कल्याण होगा। इन्द्र रूपधारी भव से ऐसा सुनकर विप्र उपमन्यु ने पंचाक्षर मन्त्र का जाप किया और कहा मैं इस तथ्य को अच्छी तरह जानता हूं कि आप ही इन्द्र का रूप धारण करके यहां आए हैं। किसी अधम दैत्य ने धर्म में विघ्न पैदा करने के लिए ऐसा किया है। मुझे लगता है निश्चय ही मेरी किसी पूर्व जन्म का पाप है जिसके कारण मुझे शिव की निन्दा सुननी पड़ी। जो शिव की निन्दा सुनकर शीघ्र ही उसका हनन करके अपनी देह त्यागता है, वह पुरुष त्रिलोक का वासी होता है और जो निन्दा करने वाली जीभ को खींचकर उखाड़ फेंकता है वह पुरुष अपने इक्कीस कुलों का उद्धार करके शिवलोक गामी होता है। मेरी क्षीर के प्रति जो इच्छा है उसे छोड़कर मैं तुम्हें देवताओं में अधम मानकर अपने शरीर का त्याग किए देता हूं। इस तरह उपमन्यु ने निडरता से अपने मन्त्र के प्रभाव से देवराज इन्द्र को मान देने का विचार किया। अपने हाथ में भस्म लेकर उस मन्त्र पूरित भस्म को उस पर फेंकने का उपक्रम किया। तभी शिव अपने वास्तविक रूप में आ गए और क्षीर की धारा बहाते हुए मुस्कराहट के साथ कहा-हे वत्स उपमन्यु! देखो यह पार्वती तेरी अम्बा है। मैंने आज यहां तुझे अपना पुत्र बना लिया है। समस्त जगतों का पिता महादेव आज से तेरा पिता है और जगत् जननी से महाभागा पार्वती तेरी मां हैं। मैं तुझे शाश्वत गणपत्य और अमरत्व प्रदान करता हूं। पार्वती ने पुत्र को अपना सामीप्य देते हुए उसे योग, ऐश्वर्य और ब्रह्म विद्या प्रदान की।
उपमन्यु द्वारा कृष्ण को शैव दीक्षा के कथन का वर्णन करते हुए सूतजी ने बताया कि सनातन वासुदेव ब्रह्म अपनी ही इच्छा से अवतीर्ण होकर और मनुष्य की निन्दा करते हुए देह की शुद्धि की तथा पुत्र-प्राप्ति के लिए तपस्या की। तप करते हुए प्रभु ने वहां मुनि का आश्रम देखा तथा समक्ष धौम्यग्रज मुनि को देखकर प्रणाम किया। कृष्ण ने उन्हें बहुत मानते हुए उनकी तीन प्रदक्षिणाएं कीं। मुनि के दृष्टि मात्र से ही कृष्ण का कायज तथा कर्मज मन नष्ट हो गए तब महान् द्युति वाले मुनि उपमनु ने भस्म से उद्धूलित करके कृष्ण को परम दिव्य पाशुपत अस्त्र ज्ञान प्रदान किया। मुनि के आशीर्वाद से ही कृष्ण उसमें पारंगत हो सके। इसके एक वर्ष पश्चात् तप की समाप्ति पर उन्हें भगवान् महेश्वर का दर्शन लाभ हुआ। प्रभु उस समय देवी पार्वती तथा अपने गणों के साथ थे। शिव के दर्शन के कृष्ण को पुत्र की भी प्राप्ति हुई। इसके अतिरिक्त भी समस्त दान करने वाले पुरुष अपने सम्पूर्ण कुल से युक्त पापों से निर्युक्त परम दिव्य रुद्र भगवान् के पद की प्राप्ति किया करते है। ऐसा फल प्राप्त करना विनिश्चय ही होता है। दान करने से गृहस्थ में रहने वाला पुरुष संसार के बंधन से मुक्त हो जाया करता है। योगियों के लिए ऐसा दान देने से भगवान् शिव बहुत ही शीघ्र प्रसन्न हो जाया करते है। यदि कोई मोक्ष प्राप्त करने की इच्छा रखता है तो उसे राज्य, धन, वैभव, अश्व, यान एवं सर्वत्र का दान कर देना चाहिए। यह शरीर तो अनित्य है, इसके द्वारा प्रयत्नपूर्वक नित्य एवं ध्रुव वस्तु की साधना करनी चाहिए। पाशुपत परम भव्य नित्य और संसार रूपी समुद्र से तारण करने वाला व्रत होता है। जो पुरुष इस व्रत का विधान करता है वह विष्णु लोक का अधिकारी होता है।
भगवान् श्रीकृष्ण की प्रसन्नता का विधान बताते हुए सूतजी ने बताया कि राजा अम्बरीश ने भी मार्कण्डेय मुनि से एक बार यही प्रश्न किया था। मार्कण्डेय मुनि ने जो कहा वह इस प्रकार है कि त्रेता युग में कौशिक नाम का एक बाह्मण था। वह नित्य सत्य में प्रवृत्त वसुदेव परायण था। भोजन, आसन और शय्या के समय भी वह सदा वासुदेव में ही मन रखता था। वह सदा विष्णु का ही ध्यान किया था। भगवान् विष्णु के पूजा-स्थल पर ही वह हरि के गुण कीर्तन को लय से गायन करता था। मूर्च्छवा स्वर के योग श्रुति के भेद भक्ति योग का वह साधक बन गया। वह वहीं भिक्षा ग्रहण कर लेता था। उसकी भिक्षा ग्रहण कर लेता था। उसकी भिक्षा की वृत्ति बन गई थी। एक बार इस ब्राह्मण को वहां विष्णु के मंदिर में किसी पद्मारक नामक द्विज ने देख लिया। उसने इनको भोजनान्त भी भेंट किया। यह ब्राह्मण उस प्राप्त अन्न से ही संतुष्ट हो गया और प्रभु का भजन-कीर्तन करता रहा। पद्मारक समय-समय पर जब भी उधर आता, उसके गायन को श्रवण अवश्य करता था। समय का कुछ ऐसा योग हुआ कि कौशिक के अन्य शिष्य भी वहां आ गए। वे बाह्मण, क्षत्रिय तथा वैश्य कुल में जन्मे थे। ज्ञान विद्या में पारंगत थे तथा वासुदेव की भक्ति में परायण और निष्ठा से लगे थे। उन सबको भी पद्मारक ने भोजनादि स्वयं भेंट किया। शिष्यों के साथ कौशिक भी नित्यप्रति प्रभु वासुदेव के लीला-गायन में व्यस्त रहता था। विष्णु के मंदिर में मालव नामक एक वैश्य भी आया करता था। वह नित्य ही हरि का दीपमाला से पूजन किया करता था। मालवी नाम की उसकी भार्या पतिव्रता भी थी और हरिभक्त भी। वह नित्य ही उस देवालय को गोमय से लीपकर स्वच्छ पवित्र बना देती थी।
एक बार कहीं दूर देश से पचास बाह्मण भी उस मंदिर में आ गए ये सभी हरि गायन में सर्वश्रेष्ठ थे। महात्मा कौशिक के कार्यों में सहयोग करते हुए ज्ञान विद्या तथा अर्थ तत्त्वों के ज्ञाता ये सभी भी वहीं पर रहने लगे। कौशिक का गायन सभी मण्डली में पूर्ण प्रसिद्धि पर था। उसकी चर्चा सुनकर स्वयं कलिगराज वहां पधारे थे। उन्होंने कहा था कि अब तक तुम धनुदेव का गायन करते रहो, आज अपने गणों के साथ मेरा गायन करो। इस गायन को यहां सभी लोग सुनेंगे। राजा से यह सुनकर कौशिक ब्राह्मण ने उनसे कहा, हे राजन! मेरी जिह्वा और वाणी सर्वदा हरि के प्रति समर्पित है। इसने कभी इन्द्र का भी स्तवन नहीं किया न अन्य कुछ कभी बोला है आपका गायन कैसे हो सकता है। कौशिक के ऐसा कहने पर उसके शिष्य वशिष्ठ, गौतम, हरि सारस्वत, चित्र, चित्रमाल्य और शिशु ने भी राजा को कौशिक ब्राह्मण की भांति ही उत्तर दिया। सभी श्रोता भी हरि गान का श्रवण ही करने के इच्छुक थे। विष्णु-भक्ति परायण थे। इसलिए उनका भी यही मत था कि हरिभक्ति में ही उनकी रुचि है। वे वासुदेव का ही गुण-कीर्तन सुनने यहां आए हैं और उनके कान भी हरि-कीर्तन के अतिरिक्त कुछ भी श्रवण नहीं करते है। उन्होंने राजाओं से स्पष्ट कह दिया कि हम केवल भगवान् की कीर्ति का ही गायन सुना करते हैं। यह सुनकर राजा बहुत रुष्ट हो गया। उसने गाने वालों से कहा कि मेरे भृत्य मेरी कीर्ति का गान करें ताकि ये ब्राह्मण श्रवण कर सकें। देखते हैं ये मेरी कीर्ति को कैसे नहीं सुनेंगे। उस समय राजा के आदेश पर उसके भृत्य उसी के अनुसार उसकी कीर्ति का गान करने लगे। इस गायन से ब्राह्मण बड़े दुःखी हुए। उन्होंने काठ की खूंटियों से एक-दूसरे के कान बन्द कर दिए। कौशिक आदि से राजा की मनोवृत्ति को जानकर अपने ही हाथों से अपनी जिह्वा का अग्र छिन्न कर दिया। इस प्रकार वे निर्वासित ब्राह्मण अपना सामान बटोरकर उत्तर दिशा की ओर चले गए। यहां स्थूल देह के वियोग से जब वे योजित हुए तो यमराज ने उन्हें देखकर यह विचार किया कि क्या करना चाहिए? वह निर्णय नहीं कर पा रहा था।
ब्रह्मा ने उनकी समस्या को जानकर सुरादित्यों से कहा कि इन्हें उचित सम्मान तथा सुविधाजनक स्थान दिया जाए। ये भगवान् जनार्दन के प्रिय भक्त हैं। यदि आप देवता की इच्छा रखते हैं तो आपका कल्याण होगा। आप उन्हें यहां स्वर्ग में ले आएं। ब्रह्मा द्वारा ब्राह्मणों के अत्यन्त समादर करने पर देवलोकपाल में बड़ा कोलाहल मच गया। वे बार-बार कौशिक का आह्वान कर रहे थे। कुछ मालव को पुकार रहे थे और पद्माकर नाम ले रहे थे। इस तरह उन्हें साथ लेकर आकाश मार्ग से देवता पल भर में सुरलोक ले आए। ब्रह्मा ने कौशिकादि के आने पर उनका यथाविधि स्वागत किया और अर्चना की। उनके इस गौरव को देखकर वहां एक अचम्भा-सा हो गया। देवताओं को बड़ा विस्मय हुआ। हिरण्यगर्म भगवान् ने उन देवताओं की समस्या का निवारण करके कौशिकादि को साथ लेकर विष्णु लोक को गमन किया। यहां परम पवित्र भद्रपीठ आसन पर श्रीविष्णु विराजमान थे। ब्रह्मा ने उनका स्तवन किया और इस पर विष्णु ने उन्हें कौशिकादि की सारी कथा सुनाई। ये सभी विप्र मेरी भक्ति से ओत-प्रोत रहे। अत: मेरे सानिध्य में रहेंगे। मालव ने अपनी पत्नी के साथ मेरी दीपमाला से सेवा की और कीर्ति का श्रवण किया। पद्माकर ने महात्मा और उसके सभी शिष्यों को भोजन दिया। अत: ये सभी मेरे सनातन लोक में रहेंगे। तभी वहां मन्द हंसी वाली लक्ष्मी पधारीं और विष्णु के समीप विराजमान हो गई। अत: हे ऋषि-मुनियों, जो सदा भगवान् हरिकीर्तन का श्रवण करता है। वह कौशिकादि की भांति विष्णु का सायुज्य प्राप्त करता है।
रत्ना अम्बरीश के प्रश्न पर मार्कण्डेय मुनि ने उन्हें बताया कि स्वयं नारद ने एक हजार वर्ष तक भली भांति तपस्या करके तुम्बरू गन्धर्व के महान गौरव का स्मरण किया। उन्हें आकाशवाणी से ज्ञात हुआ कि गानविद्या के लिए मानसोत्तर शैल पर जाकर उलूक के दर्शन करें तो वे गान विद्या में प्रवीण हो जाएंगे। ऐसा करने पर नारद मुनि ने देखा वहां सभी के बड़े स्निग्ध कंठ थे, बहुत ही मधुर स्वर लहरी निकल रही थी। वहां उस गान बन्धु ने नारद से कहा, हे महामुनि! आप किस अभिलाषा से यहां आए है। आज्ञा कीजिए? मैं आपकी क्या सेवा करूं, तो इस पर नारद ने सारी घटना को यथार्थ रूप में उलूक बन्धु को कह सुनाया।
नारदजी ने उन्हें बताया कि श्रीविष्णु ने मेरा तिरस्कार करके तुम्बरू से उत्तम गान सुना। मैं इससे अत्यन्त दुःखी होकर यहां तपस्या करने आ गया। मुझे आकाशवाणी से ज्ञात हुआ कि गान बन्धु उलूक मेरी समस्या का समाधान कर देंगे। इसी कारण अंतरिक्ष प्रेरणा स्वरूप मैं आपकी शरण में आया हूं। आप मुझे अपना शिष्य स्वीकार करें और शिक्षा दें। नारद से ऐसा सुनकर गानबन्धु उलूक ने उन्हें बताया कि पूर्वजन्म में राजा भुवनेश हुए हैं। उन्होंने एक हजार अश्वमेध यज्ञ तथा दस हजार वाजपेय यज्ञ किए थे। एक अर्वुद गौ, सुवर्ण वस्त्र, रथ, हाथी, कन्या और अश्व विप्रो को दान में दे दिया था। मेदिनी का परिपालन करके राजा ने अपने राज्य में गायन द्वारा केशव की उपासना पर रोक लगा दी थी। यदि कोई गेय विधि से केशव की उपासना करता पाया गया तो वह राजा के द्वारा बाध्य हो जाएगा । सभी लोग मेरा गायन करें । वहीं राजा के पुत्र का एक हरिमित्र नाम का एक पड़ोसी भी था । यह परम विष्णु-भक्त था । उसकी इस भक्ति का राजा को पता चला तो उसके अनुचर हरिमित्र को राजा के पास ले गए । दुष्ट बुद्धि राजा ने उसकी सारी सम्पत्ति का हरण कर लिया और उसे अपने राज्य से निकाल दिया । उसकी प्रिय विष्णु प्रतिमा भी म्लेच्छ चुराकर ले गए। कुछ समय बाद राजा की मृत्यु हो गई ।
देवलोक में राजा को हमेशा भूख-प्यास ही सताती रहती, कारण पूछने पर यमराज ने उसे बताया कि राजन्! तुमने विष्णु-भक्त हरिमित्र के साथ बड़ा अन्याय किया है। इसी कारण तुम्हारे साथ यह कष्ट जुड़ गया है । तुम्हारे पुण्य इस अपराध के सामने नष्टप्राय हो गए हैं। गेय योग में गान न करने की आज्ञा निर्गत करना ही तुम्हारा बड़ा पाप था। अब पर्वत कोटर में जाकर अपने देह को काटकर खाओ । मन्वंतर की समाप्ति तक ऐसा ही करते रहोगे । मन्वंतर की समाप्ति पर तुम फिर पृथ्वी पर आओगे । पशु योनि में जीवन जीते हुए अन्त में तुम्हें मनुष्य योनि मिलेगी । ऐसा कहकर यमराज अन्तर्धान हो गए । हरिमित्र अपने पुण्य से विष्णु चला गया । उलूक ने नारदजी से कहा कि हे मुनि! राजा को देखा था और हरिमित्र को विमान द्वारा विष्णु लोक देखा। मैं भी गान का अभ्यास करने लगा। हे मुनि!यह विद्या तपस्या से नहीं अभ्यास से आती है। तुम्हें भी सीखने के लिए अभ्यास करना होगा। लज्जा त्याग देना होगा। नारदजी ने वह गान विद्या एक सहस्र दिव्य वर्ष तक अध्यास से सीखी थी । सब जाकर नारद मुनि छत्तीस हजार सौ स्वरों के भेद योग के ज्ञाता हो सके थे । गान बन्धु उलूक का आचार्यवत् प्रणाम करके नारद ने उनसे कहा, अब मुझे आज्ञा दें कि आपकी सेवा करूं। दक्षिणा में उलूक ने कहा-ब्रह्मा के दिन में चौदह मनु होते हैं । उसके बाद प्रलय होती है । तब तक मेरी आयु हों। नारद ने कहा, अतीत से जो कल्प संयोग होगा उसमें आप गरुड़ होंगे । ऐसा कहकर देवर्षि नारद जनार्दन के पास पहुंचे । वहां नारद ने अपने संगीत का परिचय दिया । माधव ने उनसे कहा कि आप तुम्बरू से अभी भी श्रेष्ठ नहीं हो सके । द्वापर में मैं वसुदेव देवकी के यहां कृष्ण रूप में जन्मांग । वहां मैं आपको गीतों से सम्पन्न कर दूंगा । तब तक आप देवों या गंधर्वों की योनियों में अभ्यास करें ।
वासुदेव में भक्ति परायण जन वैष्णव कहलाते हैं । उनके लक्षणों का उल्लेख करते हुए मार्कण्डेयजी ने बताया कि जहां विष्णु का भक्त रहता है वहीं साक्षात् विष्णु का वास होता है। उनके नाम, गुण, संकीर्तन से रोमांच हो आता है कान में कम्पन हो जाता है, शरीर में पसीना और आंखों में प्रेमाश्रु झलक उठते है । श्रौत तथा स्मार्त धर्म के प्रवर्तक तथा विष्णु की युक्त पुरुष भक्तों का दर्शन कर जिसे अत्यन्त प्रसन्नता होती है वही वैष्णव कहा जाता है । वह विष्णु भक्त का आदर करता है । हमेशा शांत मधुरभाषी, पुण्यकर्मा, भगवान् की प्रतिमा का पूजक, महाबली, परम भक्त वैष्णव कहलाता है । ऐसे भक्त पुरुष का अन्न जो प्रीतियुक्त मन वाला खाता है उस अन्न को हरि का भोग ही मानना चाहिए। वैष्णव भक्त को दग्ध देखकर यमराज आदि देवता भी भयभीत होकर सम्मान में आसन छोड़कर खड़े हो जाते हैं । इसलिए वैष्णव भक्तों का विष्णु के समान ही आदन करना चाहिए। उसमें अन्य भक्तों से विशिष्ट विष्णु-भक्त होता है। सैकड़ों विष्णु-भक्तों से विशिष्ट रुद्र-भक्त होता है। भगवान् रुद्र के भक्त से बड़ा लोक में अन्य कोई नहीं होता है। इसलिए हर किसी को विष्णु के भक्त वैष्णव का तथा रुद्र के भक्त का पूर्ण प्रयत्नों के साथ धर्म, अर्थ, काम, मुक्ति की सिद्धि के लिए भली भांति पूजन-अर्चन करना चाहिए । इसी से साधारण जन की मुक्ति भी होती है और सद्गति भी।
