uddhaar by munshi premchand
uddhaar by munshi premchand

हिन्दू, समाज की वैवाहिक प्रथा इतनी दूषित, इतनी चिन्ताजनक, इतनी भयंकर हो गई है कि कुछ समझ में नहीं आता, उसका सुधार क्यों कर हो! बिरले ही ऐसे माता-पिता होंगे, जिनके सात पुत्रों के बाद भी एक कन्या उत्पन्न हो जाये, तो वह सहर्ष उसका स्वागत करें। कन्या का जन्म होते ही उसके विवाह की चिन्ता सिर पर सवार हो जाती है और आदमी उसी में डुबकियाँ खाने लगता है। अवस्था इतनी निराशामय और भयानक हो गई है कि ऐसे माता-पिताओं की कमी नहीं है, जो कन्या की मृत्यु पर हृदय से प्रसन्न होते हैं, मानो सिर से बाधा टली। इसका कारण केवल यही है कि दहेज की दर, दिन दूनी-रात चौगुनी, पावस-काल के जल-वेग के समान बढ़ती चली जा रही है। जहाँ दहेज की सैकड़ों में बातें होती थी, वहाँ अब हजारों तक नौबत पहुँच गई है। अभी बहुत दिन नहीं गुजरे कि एक या दो हजार रुपये दहेज केवल बड़े घरों की बात थी, छोटी-मोटी शादियाँ पाँच सौ से एक हजार तक तय हो जाती थी, पर अब मामूली-मामूली विवाह भी तीन-चार हजार के नीचे नहीं तय होते। खर्च का तो यह हाल है और शिक्षित समाज की निर्धनता और दरिद्रता दिनों-दिन बढ़ती जाती है। इसका अन्त क्या होगा, ईश्वर ही जाने। बेटे एक दर्जन भी हों, तो माता-पिता को चिन्ता नहीं होती। वह अपने ऊपर उनके विवाह-भार को अनिवार्य नहीं समझता, यह उसके लिए ‘कम्पलसरी’ विषय नहीं, ‘ऑप्शनल’ है। होगा तो कर देंगे, नहीं, कह देंगे-बेटा, खाओ कमाओ, समाई हो तो विवाह कर लेना। बेटों की कुचरित्रता कलंक की बात नहीं समझी जाती। लेकिन कन्या का विवाह तो करना ही पड़ेगा, उससे भागकर कहाँ जाएंगे? अगर विवाह में विलम्ब आ और कन्या के पाँव कहीं ऊँचे-नीचे पड़ गए, तो फिर कुटुम्ब की नाक कट जाएगी। वह पतित हो गया, टाट-बाहर कर दिया गया। अगर वह इस दुर्घटना को सज्जनता के साथ गुप्त रख सका, तब तो कोई बात नहीं, उसको कलंकित करने का किसी को साहस नहीं, लेकिन अभाग्यवश यदि वह उसे छिपा न सका, भंडा-फोड़ हो गया, तो फिर माता-पिता के लिए, भाई-बंधुओं के लिए संसार में मुँह दिखाने को स्थान नहीं रहता। कोई अपमान इससे दुस्सह, कोई विपत्ति इससे भीषण नहीं। किसी भी व्याधि की इससे भयंकर कल्पना नहीं की जा सकती।

लुत्फ़ तो यह है कि जो लोग बेटियों के विवाह की कठिनाइयों को भोग चुके होते हैं, वही अपने बेटों के विवाह के अवसर पर बिलकुल भूल जाते हैं कि हमें कितनी ठोकरें खानी पड़ी थीं, जरा भी सहानुभूति नहीं प्रकट करते, बल्कि कन्या के विवाह में जो तावान उठाया था, उसे चक्रवृद्धि ब्याज के साथ बेटे के विवाह में वसूल करने पर कटिबद्ध हो जाते हैं। कितने ही माता-पिता इसी चिन्ता में घुल-घुलकर अकाल मृत्यु को प्राप्त हो जाते हैं, कोई संन्यास ग्रहण कर लेता, कोई बूढ़े के गले कन्या को मढ़कर अपना गला छुड़ाता है, पात्र-कुपात्र के विचार करने का मौका कहाँ ठेलमठेल है।

मुंशी गुलजारीलाल ऐसे ही हतभागे पिताओं में थे। यों उनकी स्थिति बुरी न थी, दो-ढाई सौ-रुपये महीने वकालत से पीट लेते थे, पर खानदानी आदमी थे। उदार हृदय, बहुत किफायत करने पर भी माकूल बचत न हो सकती थी। संबंधियों का आदर-सत्कार न करें तो नहीं बनता, मित्रों की खातिरदारी न करें तो नहीं बनता, फिर ईश्वर के दिये हुए दो-तीन पुत्र थे, उनका पालन-पोषण, शिक्षण का भार था, क्या करते! पहली कन्या का विवाह उन्होंने अपना हैसियत के अनुसार अच्छी तरह किया, पर दूसरी पुत्री का विवाह टेढ़ी खीर हो गया था। यह आवश्यक था कि विवाह अच्छे घराने में हो, अन्यथा लोग हंसेगे और अच्छे घराने के लिए कम-से-कम पाँच हजार का खर्चा था। उधर पुत्री सयानी होती जाती थी। वही अनाज जो लड़के खाते थे, वह भी खाती थी, लेकिन लड़कों को देखो तो जैसे सूखे का रोग लगा हो और लड़की शुक्ल-पक्ष का चाँद हो रही थी। बहुत दौड़- धूप करने पर बेचारे को एक लड़का मिला। बाप आबकारी विभाग में 400 रुपये का नौकर था, लड़का भी सुशिक्षित। स्त्री से आकर बोले, लड़का तो मिला और घर- बार भी काटने योग्य नहीं, पर कठिनाई यही है कि लड़का कहता है, मैं अपना विवाह ही न करूंगा। बाप ने कितना समझाया, मैंने कितना समझाया, औरों ने समझाया, पर वह टस-से-मस नहीं होता। कहता है, मैं कभी विवाह न करूंगा। समझ में नहीं आता, विवाह से क्यों इतनी घृणा करता है। कोई कारण नहीं बतलाता। बस, यही कहता है, मेरी इच्छा। माँ-बाप का इकलौता लड़का है, उनकी परम इच्छा है कि इसका विवाह हो जाये, पर करें क्या? यों उन्होंने फल-दान तो रख लिया है, पर मुझसे कह दिया है कि लड़का स्वभाव का हठीला है, अगर न मानेगा तो फल-दान आपको लौटा दिया जायेगा।

स्त्री ने कहा- तुमने लड़के को एकान्त में बुलाकर पूछा नहीं?

गुलजारीलाल- बुलाया था। बैठा रोता रहा, फिर उठकर चला गया। तुमसे क्या कहूँ उसके पैरों पर गिर पड़ा, लेकिन बिना कुछ कहे उठकर चला गया।

स्त्री- देखो, इस लड़की के पीछे क्या-क्या झेलना पड़ता है।

गुलजारीलाल- कुछ नहीं, आजकल के लौंडे सैलानी होते हैं। अंग्रेजी पुस्तकों में पढ़ते हैं कि विलायत में कितने ही लोग अविवाहित रहना ही पसन्द करते हैं। बस, यही सनक सवार हो जाती है कि निर्द्वन्द्व रहने में ही जीवन का सुख और शान्ति है। जितनी मुसीबतें हैं, यह सब विवाह ही में है। मैं भी कॉलेज में था, तब सोचा करता था कि अकेला रहूँगा और मजे से सैर-सपाटा करूंगा।

स्त्री- है तो वास्तव में बात यही। विवाह ही तो सारी मुसीबतों की जड़ है। तुमने विवाह न किया होता, तो क्यों ये चिन्ताएँ होतीं? मैं भी कुंवारी रहती तो चैन करती।

इसके एक महीना बाद मुंशी गुलजारीलाल के पास वर ने यह पत्र लिखा–

‘पूज्यवर’,

सादर प्रणाम।

मैं आज बहुत असमंजस में पड़ कर यह पत्र लिखने का साहस कर रहा हूँ। इस धृष्टता को क्षमा कीजिएगा।

आपके जाने के बाद से मेरे पिताजी और माताजी, दोनों मुझ पर विवाह करने के लिए नाना प्रकार से दबाव डाल रहे हैं। माताजी रोती हैं, पिताजी नाराज होते-हैं। वह समझते हैं कि मैं केवल अपनी जिद के कारण विवाह से भागता हूँ। कदाचित उन्हें यह भी संदेह हो रहा है कि मेरा चरित्र भ्रष्ट हो गया है। मैं वास्तविक कारण बताते हुए डरता हूँ कि इन लोगों को दुःख होगा और आश्चर्य नहीं कि शोक में उनके प्राणों पर ही बन जाये। इसलिए अब तक मैंने जो बात गुप्त रखी थी, यह आज विवश होकर आपसे प्रकट करता हूं और आपसे आग्रह निवेदन करता हूँ कि आप इसे गोपनीय समझें और किसी दशा में भी उन लोगों के कानों में इसकी भनक न पड़ने दीजिएगा। जो होना है, यह तो होगा ही, पहले ही से क्यों उन्हें शोक में डुबाये। मुझे महीनों से यह अनुभव हो रहा है कि मैं क्षय- रोग से ग्रसित हूं। उसके सभी लक्षण प्रकट होते जाते हैं। डॉक्टरों की भी यही राय है। यहाँ सबसे अनुभवी जो दो डॉक्टर हैं, उन दोनों ही से मैंने अपनी आरोग्य- परीक्षा करायी और दोनों ही ने स्पष्ट कहा कि तुम्हें सिल है। अगर माता-पिता से यह बात कह दूँ तो वह रो-रोकर मर जाएँगे। जब यह निश्चय है कि मैं संसार में थोड़े ही दिनों का मेहमान हूं तो मेरे लिए विवाह की कल्पना करना भी पाप है। संभव है कि मैं विशेष प्रयत्न करके साल-दो-साल जीवित रहूँ पर यह दशा और भी भयंकर होगी, क्योंकि अगर कोई संतान हुई तो वह भी मेरे संस्कार से अकाल मृत्यु पाएगी और कदाचित् स्त्री को भी इसी रोग-राक्षस का भक्षण बनना पड़े। मेरे अविवाहित रहने से जो बीतेगी, मुझ ही पर बीतेगी। विवाहित हो जाने से मेरे साथ और भी कई जीवों का नाश हो जाएगा। इसलिए आपसे मेरी प्रार्थना है कि मुझे इस बंधन में डालने के लिए आग्रह न कीजिए, अन्यथा आपको पछताना पड़ेगा।

सेवक,