uddhaar by munshi premchand
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हजारी लाल।

पत्र पढ़कर गुलजारीलाल ने स्त्री की ओर देखा और बोले- इस पत्र के विचार में तुम्हारा क्या विचार है।

स्त्री- मुझे तो ऐसा मालूम होता है कि उसने बहाना रचा है।

गुलजारीलाल- बस-बस, ठीक यही मेरा भी विचार है। उसने समझा है कि बीमारी का बहाना कर लूंगा तो लोग आप ही हट जाएँगे। असल में बीमारी कुछ नहीं। मैंने तो देखा ही था, चेहरा चमक रहा था, बीमार का मुँह छिपा नहीं रहता।

स्त्री- राम का नाम लेकर विवाह करो, कोई किसी का भाग्य थोड़े ही पढ़े बैठा है।

गुलजारीलाल- यही तो मैं भी सोच रहा हूँ।

स्त्री- न हो, किसी डॉक्टर को लड़के को दिखाओ। कहीं सचमुच यह बीमारी हो, तो बेचारी अम्बा कहीं की न रहे।

गुलजारीलाल- तुम भी पागल हुई हो क्या? सब हीले-हवाले हैं। इन छोकरों के दिल का हाल मैं खूब जानता हूँ। सोचता होगा, अभी सैर-सपाटा कर रहा हूँ, विवाह हो जायेगा तो यह गुलछर्रे कैसे उड़ेंगे।

स्त्री -तो शुभ मुहूर्त देखकर लग्न भिजवाने की तैयारी करो।

हजारीलाल बड़े धर्म-संकट में था। उसके पैरों में जबरदस्ती विवाह की बेड़ी डाली जा रही थी और वह कुछ न कर सकता था। उसने ससुर को अपना कच्चा चिट्ठा भिजवाया मगर किसी ने उसकी बातों पर विश्वास न किया। माँ-बाप से अपनी बीमारी का हाल कहने का उसे साहस न होता था। न जाने उनके दिल पर क्या गुजरे, व जाने क्या कर बैठें? कभी सोचता, किसी डॉक्टर की शहादत लेकर ससुर के पास भेज दूँ, मगर फिर ध्यान आता, यदि उन लोगों को उस पर भी विश्वास न आया, तो? आजकल डॉक्टरों से सनद ले लेना कौन-सा मुश्किल काम है। सोचेंगे, किसी डॉक्टर को कुछ दे-दिलाकर ले लिया होगा। शादी के लिए तो इतना आग्रह हो रहा था, उधर डॉक्टरों ने स्पष्ट कह दिया था कि अगर तुमने शादी की, तो तुम्हारा जीवन-सूत्र और भी निर्बल हो जायेगा। महीनों की जगह दिनों में वारा-न्यारा हो जाने की सम्भावना है।

लग्न आ चुकी थी। विवाह की तैयारियाँ हो रही थी। मेहमान आते-जाते थे और हजारीलाल घर से भागा-भागा फिरता था। कहाँ चला जाऊं? विवाह की कल्पना ही से उसके प्राण सूखे जाते थे। आह! उस अबला की क्या गति होगी? जब उसे यह बात मालूम होगी, तो वह मुझे अपने मन में क्या कहेगी? कौन इस पाप का प्रायश्चित्त करेगा? नहीं, उस अबला पर घोर अत्याचार न करूंगा, उसे वैधव्य की आग में न जलाऊ। मेरी जिंदगी ही क्या, आज न मरा, कल मरूंगा, कल नहीं तो परसों, तो क्यों न आज ही मर जाऊँ? आज ही जीवन का और उसके साथ सारी चिन्ताओं का, सारी विपत्तियों का अन्त कर दूँ। पिताजी रोएंगे, अम्मा प्राण त्याग देंगी, लेकिन एक बालिका का जीवन तो सफल हो जायेगा, मेरे बाद कोई अभागा अनाथ तो न होगा।

क्यों न चलकर पिताजी से कह दूँ? यह एक-दो दिन दुःखी रहेंगे, अम्मा जी दो-एक रोज शोक से निराहार रह जाएँगी, कोई चिन्ता कहीं। अगर माता-पिता के इतने कष्ट से एक युवती की प्राण रक्षा हो जाये, तो क्या छोटी बात है।

यह सोचकर वह धीरे से उठा और आकर पिता के सामने खड़ा हो गया।

रात के दस बज गए थे। बाबू दरबारी लाल चारपाई पर लेटे हुए हुक्का पी रहे थे। आज उन्हें सारा दिन दौड़ते गुजरा था। शामियाना तय किया, बाजे वालों को बयाना दिया, आतिशबाजी, फुलवारी आदि का प्रबंध किया, घंटों ब्राह्मणों के साथ सिर मारते रहे, इस वक्त जरा कमर सीधी कर रहे थे कि सहसा हजारी लाल को सामने देखकर चौंक पड़े। उसका उतरा हुआ चेहरा, सजल आँखें और कुंठित मुख देखा, तो चिन्तित होकर बोले- क्यों लालू तबीयत तो अच्छी है न? कुछ उदास मालूम होते हो।

हजारी लाल- मैं आपसे कुछ कहना चाहता हूँ। पर भय होता है कि कहीं आप अप्रसन्न न हों।

दरबारी लाल- समझ गया, वही पुरानी बात है न? उसके सिवा कोई दूसरी बात हो तो शौक से कहो।

हजारी लाल- खेद है कि मैं उसी विषय में कुछ कहना चाहता हूँ।

दरबारी लाल- यही कहना चाहते हो न कि मुझे इस बंधन में न डालिए। मैं इसके अयोग्य हूँ। मैं यह भार सह नहीं सकता, यह बेड़ी मेरी गर्दन को तोड़ देगी, आदि-आदि या और कोई नई बात?

हजारी लाल- जी नहीं, नई बात है। मैं आपकी आज्ञा पालन करने के लिए सब प्रकार से तैयार हूँ, पर एक ऐसी बात है, -जिसे मैंने अब तक छिपाया था, उसे भी प्रकट कर देना चाहता हूँ। इसके बाद आप जो कुछ निश्चय करेंगे, उसे मैं शिरोधार्य करूंगा।

दरबारी लाल – कहो, क्या कहते हो?

हजारीलाल ने बड़े विनीत शब्दों में अपना आशय कहा, डॉक्टरों की राय भी बयान की और अन्त में बोला- ऐसी दशा में मुझे फ्टी आशा है कि आप मुझे विवाह करने के लिए बाध्य न करेंगे ।

दरबारी लाल ने पुत्र के मुख की ओर गौर से देखा, कहीं जर्दी का नाम न था, इस कथन पर विश्वास न आया, पर अपना अविश्वास छिपाने और अपना हार्दिक शोक प्रकट करने के लिए वह कई मिनट तक गहरी चिंता में मग्न रहे। इसके बाद पीड़ित कंठ से बोले- बेटा, इस दशा में तो विवाह करना और भी आवश्यक है। ईश्वर न करे कि हम बुरा दिन देखने के लिए जीते रहें, पर विवाह हो जाने से तुम्हारी कोई निशानी तो रह जायेगी। ईश्वर ने कोई औलाद दे दी, तो यही हमारे बुढ़ापे की लाठी होगी, उसी का मुँह देख-देखकर दिल को समझाएंगे, जीवन का कुछ आधार तो होगा। फिर आगे क्या होगा, यह कौन कह सकता है? डॉक्टर भी कर्म-रेखा तो नहीं पढ़े होते, ईश्वर की लीला अपरम्पार है, डॉक्टर उसे नहीं समझ सकते। तुम निश्चिन्त होकर बैठो, हम जो कुछ करते हैं, करने दो। भगवान् चाहेंगे तो सब कल्याण ही होगा।

हजारीलाल वे इसका कोई उत्तर न दिया! आँखें डबडबा आयी, कंठावरोध के कारण तक न खोल सका। चुपके, से आकर अपने कमरे में लेट रहा।

तीन दिन और गुजर गए, पर हजारीलाल कुछ निश्चय न कर सका। विवाह की तैयारियाँ पूरी हो गयी थीं। आँगन में मंडप पड़ गया था, डाल, गहने संदूक में रखे जा चुके थे। मैत्रेयी की पूजा हो चुकी थी और द्वार पर बाजों का शोर मचा हुआ था। मुहल्ले के लड़के जमा होकर बाजा सुनते थे और उल्लास में इधर-उधर दौड़ते थे।

संध्या हो गई थी। बारात आज रात की गाड़ी से जाने वाली थी। बारातियों ने अपने वस्त्राभूषण पहनने शुरू किए। कोई नाई से बाल बनवाना चाहता था और चाहता था कि खेत ऐसा साफ हो जाये, मानो यहाँ बाल कभी थे ही नहीं, बूढ़े अपने पके बाल उखाड़कर जवान बनने की चेष्टा कर रहे थे। तेल, साबुन, उबटन की धूम मची हुई थी और हजारीलाल बगीचे में एक वृक्ष के नीचे उदास बैठा हुआ सोच रहा था, क्या करूँ!

अंतिम निश्चय की घड़ी सिर पर खड़ी थी। अब एक क्षण भी विलम्ब करने का मौका न था। अपनी वेदना किससे कहे, कोई सुनने वाला न था।

उसने सोचा, हमारे माता-पिता कितने अदूरदर्शी हैं, अपनी उमंग में इन्हें इतना भी नहीं सूझता कि वधू पर क्या गुजरेगी। वधू के माता-पिता भी इतने अंधे हो रहे हैं कि देखकर भी नहीं देखते, जानकर नहीं जानते।

क्या यह विवाह है? कदापि नहीं। यह तो लड़की को कुएँ में डालना है, भाड़ में झोंकना है, कुंद छुरे से रेतना है। कोई यातना इतनी दुस्सह, इतनी हृदयविदारक नहीं हो सकती जितनी वैधव्य। और ये लोग जान-बूझकर अपनी पुत्री को वैधव्य के अग्नि-कुण्ड में डाल देते हैं। यह माता-पिता हैं? कदापि नहीं। यह लड़की के शत्रु हैं, कसाई हैं, बधिक हैं, हत्यारे हैं। क्या इनके लिए कोई दण्ड नहीं? जो जान-बूझकर अपनी प्रिय सन्तान के खून से अपने हाथ रंगते हैं, उनके लिए कोई दण्ड नहीं? समाज भी उन्हें दण्ड नहीं देता, कोई कुछ नहीं कहता, हाय!

यह सोचकर हजारीलाल उठा और एक ओर चुपचाप चल दिया। उसके मुख पर तेज छाया हुआ था। उसने आत्मबलिदान से इस कष्ट का निवारण करने का दृढ़ संकल्प कर लिया था। उसे मृत्यु का लेश मात्र भी भय न था। वह उस दशा को पहुँच गया था, जब सारी आशाएँ मृत्यु पर ही अवलंबित हो जाती हैं। उस दिन से फिर किसी ने हजारीलाल की सूरत नहीं देखी। मालूम नहीं, जमीन खा गई या आसमान। नदियों में जाल डाले गए, कुओं में बाँस पड़ गए, पुलिस में हुलिया गया, समाचार-पत्रों में विज्ञप्ति निकाली गई, पर कहीं पता न चला।

कई हफ्तों के बाद, छावनी रेलवे स्टेशन से एक मील पश्चिम की ओर सड़क पर कुछ हड्डियाँ मिलीं। लोगों को अनुमान हुआ कि हजारीलाल ने गाड़ी के नीचे दबकर जान दी, पर निश्चित रूप से कुछ न मालूम हुआ।