भादों का महीना था और तीज का दिन। घरों में सफाई हो रही थी। सौभाग्यवती रमणियां सोलहों -श्रृंगार किए गंगा-स्नान करने जा रही थी। अम्बा स्नान करके लौट आयी थी और तुलसी के कच्चे चबूतरे के सामने खड़ी वंदना कर रही थी। पति गृह में उसकी यह पहली ही तीज थी, बड़ी उमंगों से व्रत रखा था। सहसा उसके पति ने अंदर आकर उसे सहास नेत्रों से देखा और बोला- मुंशी दरबारी लाल तुम्हारे कौन होते हैं, यह उनके यहाँ से तुम्हारे लिए तीज पठौनी आयी है। अभी डाकिया दे गया है।
यह कहकर उसने एक पार्सल चारपाई पर रख दिया। दरबारी-लाल का नाम सुनते ही अम्बा की आँखें सजल हो गई। वह लपकी हुई आयी और पार्सल को हाथ में लेकर देखने लगी, पर उसकी हिम्मत न पड़ी कि उसे खोले। पिछली स्मृतियाँ जीवित हो गईं, हृदय में हजारीलाल के प्रति श्रद्धा का एक उद्गार-सा उठ पड़ा। आह! यह उसी देवात्मा के आत्म-बलिदान का पुनीत फल है कि मुझे यह दिन देखना नसीब हुआ। ईश्वर सद्गति दें। वह आदमी नहीं, देवता थे, जिसने मेरे कल्याण के निमित्त अपने प्राण तक समर्पण कर दिए।
पति ने पूछा- दरबारी लाल तुम्हारे चाचा हैं?
अम्बा- हां।
पति- इस पत्र में हजारीलाल का नाम लिखा है, यह कौन है?
अम्बा- यह मुंशी दरबारी लाल के बेटे हैं।
पति- तुम्हारे चचेरे भाई?
अम्बा- नहीं, मेरे परम दयालु उद्धारक, जीवनदाता, मुझे अथाह जल में डूबने से बचाने वाले, मुझे सौभाग्य का वरदान देने वाले।
पति ने इस भाव से कहा, मानो कोई भूली हुई बात याद आ गई हो- अहा? मैं समझ गया। वास्तव में वह मनुष्य नहीं, देवता थे।
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