tyaagee ka prem by munshi premchand
tyaagee ka prem by munshi premchand

लाला गोपीनाथ को युवावस्था में ही दर्शन से एम हो गया था। अभी वह इंटरमीडिएट क्लास में थे, कि मिल और वर्कले के वैज्ञानिक विचार उनको कंठस्थ हो गये थे। उन्हें किसी प्रकार के विनोद-प्रमोद से रुचि न थी। यहां तक कि कॉलेज के क्रिकेट-मैचों से भी उनको उत्साह न होता था। हास-परिहास से कोसों भागते और उनसे प्रेम की चर्चा करना तो मानो बच्चे को जू-जू से डराना था। प्रातःकाल घर से निकल जाते और शहर से बाहर किसी सघन वृक्ष की छांह में बैठकर दर्शन का अध्ययन करने में निरत हो जाते। काव्य-अलंकार, उपन्यास सभी को त्याज्य समझते थे। शायद ही अपने जीवन में उन्होंने कोई किस्से-कहानी की किताब पढ़ी हो। इसे केवल समय का दुरुपयोग ही नहीं, वरन मन और बुद्धि विकार के लिए घातक ख्याल कहते थे। इसके साथ ही वह उत्साहहीन न थे। सेवा-समितियों में बड़े उत्साह से भाग लेते। स्वदेश- वासियों की सेवा के किसी अवसर को हाथ से न जाने देते। बहुधा मुहल्ले के छोटे-छोटे दुकानदारों की दुकान पर जा बैठते और उनके घाटे-टोटे, मंदे-तेजे की राम कहानी सुनते।

शनैः-शनैः कॉलेज से उन्हें घृणा हो गयी। उन्हें अब अगर किसी विषय से प्रेम था, तो वह दर्शन था। कॉलेज की बहु-विषयक शिक्षा उनके दर्शनानुराग में बाधक होती। अतएव उन्होंने कॉलेज छेड़ दिया और एकाग्रचित्त होकर विज्ञानोपार्जन करने लगे। किन्तु दर्शन-पुराण के साथ-ही-साथ उनका देशानुराग भी बढ़ता गया और कॉलेज छोड़ने के पश्चात वह अनिवार्य जाति-सेवकों के दल में सम्मिलित हो गये। दर्शन में भ्रम था, अविश्वास था, अंधकार था, जाति-सेवा में सम्मान था, यश था, और दोनों ही सदिच्छाएं थीं। उनका वह सदनुराग जो बरसों से वैज्ञानिक वादों के नीचे दबा हुआ था, वायु के प्रचंड वेग के साथ निकल पड़ा। नगर के सार्वजनिक क्षेत्र में कूद पड़े। देखा, तो मैदान खाली था, जिधर आंख उठाते, सन्नाटा दिखाई देता। ध्वजा-धारियों की कमी न थी, पर सच्चे हृदय कहीं नजर न आते थे। चारों ओर से उनकी खींच होने लगी। किसी संस्था के मंत्री बने, किसी के कुछ। इसके आवेश में दर्शनानुराग भी विदा हुआ। पिंजरे में गाने वाली चिड़िया विस्तृत पर्वत-राशियों में आकर अपना राग भूल गयी। अब भी वह समय निकालकर दर्शन ग्रंथों के पन्ने उलट-पुलट लिया करते थे, पर विचार और अनुशीलन का अवकाश कहां। नित्य मन में यह संग्राम होता रहता कि किधर जाऊं? इधर या उधर? विज्ञान अपनी ओर खींचता, देश अपनी ओर खींचता।

एक दिन वह उलझन में नदी के तट पर बैठे हुए थे। जलधारा तट के दृश्यों और वायु के प्रतिकूल झोंकों की परवाह न करते हुए बड़े वेग के साथ अपने लक्ष्य की ओर बढ़ी चली जाती थी, पर लाला गोपीनाथ का ध्यान इस तरफ न था। वह अपने स्मृति-भंडार से किसी ऐसे तत्त्वज्ञानी पुरुष को खोज निकालना चाहते थे, जिसने जाति-सेवा के साथ विज्ञान-सागर में गोते लगाये हों। सहसा उनके कॉलेज के एक अध्यापक पंडित अमरनाथ अग्निहोत्री आकर समीप बैठ गये और बोले – ‘कहिए लाला गोपीनाथ, क्या खबरें हैं?’

गोपीनाथ ने अन्यमनस्क होकर उत्तर दिया – ‘कोई नयी बात तो नहीं हुई। पृथ्वी अपनी गति से चली जा रही है।

अमरनाथ – ‘म्युनिसिपल बोर्ड नम्बर 21 की जगह खाली है, उनके लिए किसे चुनना निश्चित किया है?’

गोपी – ‘देखिए, कौन होता है। आप भी खड़े हुए हैं?’

अमर – ‘अजी, मुझे तो लोगों ने जबरदस्ती घसीट लिया। नहीं तो मुझे इतनी फुर्सत कहां।’

गोपी – ‘मेरा भी यही विचार है। अध्यापकों का क्रियात्मक राजनीति में फंसना बहुत अच्छी बात नहीं।’

अमरनाथ इस व्यंग्य से बहुत लज्जित हुए। एक क्षण के बाद प्रतिकार के भाव से बोले – ‘तुम आजकल दर्शन का अभ्यास करते हो या नहीं।’

गोपी – ‘बहुत कम। दुविधा में पड़ा हुआ हूं कि राष्ट्रीय-सेवा का मार्ग ग्रहण करूं या सत्य की खोज में जीवन व्यतीत करूं?’

अमर – ‘राष्ट्रीय संस्थाओं में सम्मिलित होने का समय अभी तुम्हारे लिए नहीं आया। अभी तुम्हारी उम्र ही क्या है? जब तक विचारों में गांभीर्य और सिद्धांतों पर दृढ़ विश्वास न हो जाये, उस समय तक केवल क्षणिक आवेशों के वशवर्ती होकर किसी काम में कूद पड़ना अच्छी बात नहीं। राष्ट्रीय-सेवा बड़े उत्तरदायित्व का काम है।’

गोपीनाथ ने निश्चय कर लिया कि मैं जाति-सेवा से जीवनक्षेप करूंगा। अमरनाथ ने भी यही फैसला किया कि मैं म्युनिसिपैलिटी में अवश्य जाऊंगा। दोनों का परस्पर विरोध उन्हें कर्म-क्षेत्र की ओर खींच ले गया। गोपीनाथ की साख पहले ही से जम गयी थी। घर के धनी थे। शक्कर और सोने-चांदी की दलाली होती थी। व्यापारियों में उनके पिता का बड़ा मान था। गोपीनाथ के दो बड़े भाई थे। वह भी दलाली करते थे। परस्पर मेल था, धन था, संतानें थीं। अगर न थी तो शिक्षा और शिक्षित समुदाय में गणना। यह बात गोपीनाथ की बदौलत प्राप्त हो गयी। इसलिए उनकी स्वच्छंदता पर किसी ने आपत्ति नहीं की, किसी वे उन्हें धनोपार्जन के लिए मजबूर नहीं किया। अतः गोपीनाथ निश्चिंत और निर्द्वंद्व होकर राष्ट्र-सेवा में कहीं किसी अनाथालय के लिए चंदे जमा करते, कभी किसी कन्या-पाठशाला के लिए भिक्षा मांगते फिरते। नगर की कांग्रेस कमेटी ने उन्हें अपना मंत्री नियुक्त किया। उस समय तक कांग्रेस ने कर्मक्षेत्र में पदार्पण नहीं किया था। उनकी कार्यशीलता में इस जीर्ण संस्था का मानो पुनरुद्धार कर दिया। प्रात: संध्या से बहुधा प्रहर रात तक इन्हीं कामों में लिप्त रहते थे। चंदे का रजिस्टर हाथ में लिये उन्हें नित्यप्रति सांझ सवेरे धनी और रईसों के द्वार पर खड़े देखना एक साधारण दृश्य था। धीरे-धीरे कितने ही युवक उनके भक्त हो गये। लोग कहते, कितना निस्वार्थ, कितना आदर्शवादी, त्यागी, जाति-सेवक है। कौन सुबह से शाम तक निस्वार्थ भाव से केवल जनता का उपकार करने के लिए यों दौड़-धूप करेगा। उनका आत्मोत्सर्ग प्रायः द्वेषियों को भी अनुरक्त कर देता था। उन्हें बहुधा रईसों की अभद्रता, असज्जनता, यहां तक कि उनके कटु शब्द भी सहने पड़ते थे। उन्हें अब विदित हो गया था कि जाति-सेवा बड़े अंशों तक केवल चंदे मांगना है। इसके लिए धनिकों की दरबारदारी या दूसरे शब्दों में खुशामद भी करनी पड़ती थी, दर्शन के उस गौरवयुक्त अध्ययन और इस दान-लोलुपता में कितना अंतर था! कहां मिल और कैंट, स्पेन्सर और किड के साथ एकांत में बैठे हुए जीत और प्रकृति के गहन-गूढ़ विषय पर वार्तालाप और कहां इन अभिमानी, असभ्य, मूर्ख व्यापारियों के सामने सिर झुकाना। वह अंत:करण में उनसे घृणा करते थे। वह धनी थे और केवल धन कमाना चाहते थे। इसके अतिरिक्त उनमें और कोई विशेष गुण न था। उनमें अधिकांश ऐसे थे जिन्होंने कपट-व्यापार से धनोपार्जन किया था पर गोपीनाथ के लिए यह सभी पूज्य थे। क्योंकि उन्हीं की कृपादृष्टि पर उनकी राष्ट्र-सेवा अवलंबित थी।

इस प्रकार कई वर्ष व्यतीत हो गये। गोपीनाथ नगर में मान्य पुरुषों में गिने जाने लगे। वह दीनजनों के आधार और दुखियारों के मददगार थे। अब वह बहुत कुछ निर्भीक हो गये थे और कभी-कभी रईसों को भी कुमार्ग पर चलते देखकर फटकार दिया करते थे। उनकी तीव्र आलोचना भी अब चंदे जमा करने में उनकी सहायक हो जाती थी।

अभी तक उनका विवाह न हुआ था। वह पहले ही से ब्रह्मचर्य-व्रत धारण कर चुके हैं। विवाह करने से साफ इंकार किया। मगर जब पिता और अन्य बंधुओं ने बहुत आग्रह किया, और उन्होंने स्वयं कई विज्ञान-ग्रंथों में देखा कि इन्द्रिय-दामन स्वास्थ्य के लिए हानिकारक है, तो असमंजस में पड़े। कई हफ्ते सोचते हो गये और वह मन में कोई बात पक्की न कर सके। स्वार्थ और परमार्थ में संघर्ष हो रहा था। विवाह का अर्थ था अपनी उदारता की हत्या करके, अपने विस्तृत हृदय को संकुचित करना, न कि राष्ट्र के लिए जीना। वह अब इतने ऊंचे आदर्श का त्याग करना निंद्य और उपहासजनक समझते थे। इसके अतिरिक्त अब वह अनेक कारणों से अपने को पारिवारिक जीवन के अयोग्य पाते थे। जीविका के लिए उद्योगशील, जिस अनवरत परिश्रम और जिस मनोवृत्ति की आवश्यकता है, वह उनमें न थी। जाति-सेवा में भी उद्योगशीलता और अध्यवसाय कम जरूरत न थी, लेकिन उनमें आत्म-गौरव का हनन न होता था। परोपकार के लिए भिक्षा मांगना दान है, अपने लिए पान का एक बीड़ा भी भिक्षा है। स्वभाव में एक प्रकार स्वच्छंदता आ गयी थी। इन त्रुटियों पर परदा डालने के लिए जाति-सेवक का बहाना बहुत अच्छा था।

एक दिन वह सैर करने जा रहे थे, कि रास्ते में अध्यापक अमरनाथ से मुलाकात हो गयी। यह महाशय अब म्युनिसिपल बोर्ड के मंत्री हो गये थे और आज-कल इस दुविधा में पड़े हुए थे कि शहर में मादक वस्तुओं के बेचने का ठेका लूं या न लूं। लाभ बहुत था, पर बदनामी भी कम न थी। अभी तक यह निश्चय न कर सके थे। इन्हें देखकर बोले – ‘कहिए लाला जी, मिज़ाज अच्छे हैं न? आपके विवाह के विषय में क्या हुआ।’

गोपीनाथ ने दृढ़ता से कहा – ‘मेरा इरादा विवाह करने का नहीं है।’

अमरनाथ – ‘ऐसी भूल न करना। तुम अभी नवयुवक हो, तुम्हें संसार का कुछ अनुभव नहीं है। मैंने ऐसी कितनी मिसालें देखी हैं, जहां अविवाहित रहने के लाभ के बदले हानि ही हुई है। विवाह मनुष्य को सुमार्ग पर रखने का सबसे उत्तम साधन है, जिसे अब तक मनुष्य ने आविष्कृत किया है। उस व्रत से क्या फायदा जिसका परिणाम छिछोरापन हो।’

गोपीनाथ ने प्रत्युत्तर दिया – ‘आपने मादक वस्तुओं के ठेके के विषय में क्या निर्णय किया?’

अमर – ‘अभी तक कुछ नहीं। जी हिचकता है। कुछ-न-कुछ बदनामी तो होगी ही।’

गोपी – ‘एक अध्यापक के लिए मैं इस पेशे को अपमान समझता हूं।’

अमर – ‘कोई पेशा खराब नहीं है, अगर ईमानदारी से किया जाये।’

गोपी – ‘यहां मेरा आपसे मतभेद है। कितने ही ऐसे व्यवसाय है जिन्हें एक सुशिक्षित व्यक्ति कभी स्वीकार नहीं कर सकता। मादक वस्तुओं का ठेका उनमें एक है।

गोपीनाथ ने आकर अपने पिता से कहा – ‘मैं कदापि विवाह न करूंगा। आप लोग मुझे विवश न करें, वरना पछताना पड़ेगा।’

अमरनाथ ने उसी दिन ठेके के लिए प्रार्थना-पत्र भेज दिया और वह स्वीकृत भी हो गया।

दो साल हो गये हैं। लाला गोपीनाथ ने एक कन्या-पाठशाला खोली है और उसके प्रबंधक हैं। शिक्षा की विभिन्न पद्धतियों का उन्होंने खूब अध्ययन किया है और इस पाठशाला में वह उनका व्यवहार कर रहे हैं। शहर में यह पाठशाला बहुत ही सर्वप्रिय है। उसने बहुत अंशों में उस उदासीनता का परिशोध कर दिया है जो माता-पिता की पुत्रियों की शिक्षा की ओर देती है। शहर के गणमान्य पुरुष अपनी लड़कियों को सहर्ष पढ़ने भेजते हैं। वहां की शिक्षा-शैली कुछ ऐसी मनोरंजक है कि बालिकाएं एक बार जाकर मानों मंत्रमुग्ध हो जाती हैं। फिर उन्हें घर पर चैन नहीं मिलता। ऐसी व्यवस्था की गयी है कि तीन चार वर्षों में ही कन्याओं का गृहस्थी के मुख्य कामों से परिचय हो जाय। सबसे बड़ी बात यह है कि यहां धर्म-शिक्षा का भी समुचित प्रबंध किया गया है। अब की साल में प्रबंधक महोदय ने अंग्रेजी की कमाई भी खोल दी है। एक सुशिक्षित गुजराती महिला को बम्बई से बुला कर पाठशाला उनके हाथ में दे दी है। इस महिला का नाम है आनंदी बाई। विधवा हैं। हिंदी भाषा से भली-भांति परिचित नहीं हैं, किंतु गुजराती में कई पुस्तकें लिख चुकी हैं। कई कन्या-पाठशालाओं में काम कर चुकी हैं। शिक्षा-संबंधी विषयों में अच्छी गति है। उनके आने से मदरसे में और भी रौनक आ गयी है। कई प्रतिष्ठित सज्जनों ने, जो अपनी बालिकाओं को मंसूरी और नैनीताल भेजना चाहते थे, अब उन्हें यही भरती करा दिया है। आनंदी रईसों के घरों में जाती है और स्त्रियों में शिक्षा का प्रचार करती हैं। उनके वस्त्राभूषणों से सुरुचि का बोध होता है। हैं भी उच्चकुल की, इसलिए शहर में उनका बड़ा सम्मान होता है। लड़कियां उन पर जान देती हैं, उन्हें मां कहकर पुकारती हैं। गोपीनाथ पाठशाला की उन्नति देख-देखकर फूले नहीं समाते। जिससे मिलते है, आनंदी बाई का ही गुणगान करते हैं। बाहर से कोई सुविख्यात पुरुष आता है, तो उससे पाठशाला का निरीक्षण अवश्य कराते हैं। आनंदी की प्रशंसा से उन्हें वहीं आनंद प्राप्त होता है, जो स्वयं अपनी प्रशंसा से होता है। बाई जी का भी दर्शन से प्रेम है, और सबसे बड़ी बात यह है कि उन्हें गोपीनाथ पर असीम श्रद्धा है। वह हृदय से उनका सम्मान करती हैं। वह मुंह पर तो उनकी बड़ाई नहीं करती, पर रईसों के घरों में बड़े प्रेम से उनका यशोगान करती हैं। ऐसे सच्चे सेवक आजकल कहां? लोग कीर्ति पर जान देते हैं। जो थोड़ी-बहुत सेवा करते है, दिखावे के लिए। सच्ची लगन किसी में नहीं है। मैं लालाजी को पुरुष देवता समझती हूं। कितना सरल, संतोषमय जीवन है। न कोई व्यसन, न विलास। भोर से सायंकाल तक दौड़ते रहते हैं, न खाने का कोई समय, न सोने का समय। उस पर कोई ऐसा नहीं, जो उनके आराम का ध्यान रखे। बेचारे घर गये, जो कुछ किसी ने सामने रख दिया, चुपके से खा लिया, फिर छड़ी उठायी और किसी तरफ चल दिये। दूसरी औरत कदापि अपनी पत्नी की भांति सेवा-सत्कार नहीं कर सकती।

दशहरे के दिन थे। कन्या-पाठशाला में उत्सव मनाने की तैयारियां हो रही थी। एक नाटक खेलने का निश्चय किया गया था। भवन खूब सजाया गया था। शहर के रईसों को निमंत्रण दिये गये थे। यह कहना कठिन है कि किसका उत्साह बढ़ा हुआ था, बाई जी का या लाला गोपीनाथ का। गोपीनाथ सामग्रियां एकत्र कर रहे थे। उन्हें अच्छे ढंग से सजाने का भार आनंदी ने ले लिया था, नाटक इन्हीं ने रचा था। नित्य प्रति उसका अभ्यास करती थी और स्वयं एक पार्ट ले रखा था।

विजयदशमी आ गयी। दोपहर तक गोपीनाथ दरी और कुर्सियों का इंतजाम करते रहे। जब एक बज गया और अब भी वह वहां से न टले तो आनंदी न कहा – ‘लालाजी, आपको भोजन करने को देर हो रही है। अब सब काम हो गया है। जो कुछ बच रहा है, मुझ पर छोड़ दीजिए।’

गोपीनाथ ने कहा – ‘खा लूंगा। मैं ठीक समय पर भोजन करने का पाबंद नहीं हूं। फिर घर तक कौन जाये। घंटों लग जायेंगे। भोजन के उपरांत आराम करने को जी चाहेगा। शाम हो जायेगी।’

आनंदी – ‘भोजन तो मेरे यहां तैयार है, ब्राह्मणी ने बजाया है। चलकर खा लीजिए और यहीं जरा देर आराम भी कर लीजिए।’

गोपीनाथ – ‘यहां क्या खा लूं! एक वक्त न खाऊंगा तो ऐसी कौन-सी हानि हो जायेगी?

आनंदी – ‘जब भोजन तैयार है, तो उपवास क्यों कीजिएगा।’

गोपीनाथ – ‘आप जायें। आपको अवश्य देर हो रही है। मैं काम में ऐसा भूला कि आपकी सुधि ही न रही।’

आनंदी – ‘मैं भी एक जून उपवास कर लूंगी तो क्या हानि होगी?’

गोपीनाथ – ‘नहीं-नहीं, इसकी क्या जरूरत है? मैं आपसे सच कहता हूं बहुधा एक ही जून खाता हूं।’

आनंदी – ‘अच्छा, मैं आपके इंकार का माने समझ गयी। इतनी मोटी बात अब तक मुझे न सूझी।’

गोपीनाथ – ‘क्या समझ गयीं। मैं छुआछूत को नहीं मानता। यह तो आपको मालूम ही है।’

आनंदी – ‘इतना जानती हूं जिस कारण से आप मेरे यहां भोजन करने से इंकार कर रहे हैं, उसके विषय में केवल इतना निवेदन है कि मुझे आपसे केवल स्वामी और सेवक का संबंध नहीं है। मुझे आपसे आत्मीयता का संबंध है। आपका मेरे पान-फूल को अस्वीकार करना अपने एक सच्चे भक्त के मर्म को आघात पहुंचाना है। मैं आपको इसी दृष्टि से देखती हूं।’

गोपीनाथ को अब कोई आपत्ति न हो सकी। जाकर भोजन कर लिया। वह जब तक आसन पर बैठे रहे, आनंदी धैर्य पंखा झलती रही।

इस घटना की लाला गोपीनाथ के मित्रों ने यों आलोचना की, ‘महाशय जी अब तो वहीं (वहीं पर खूब जोर देकर) भोजन भी खाते हैं।’

शनैः शनैः परदा हटने लगा। लाला गोपीनाथ को अब परवशता ने साहित्य-सेवी बना दिया था। घर से उन्हें-आवश्यक सहायता मिल जाती थी, किन्तु पत्रों और पत्रिकाओं तथा अन्य अनेक कामों के लिए उन्हें घरवालों से कुछ मांगते हुए बहुत संकोच होता था। उनका आत्म-सम्मान जरा-जरा सी बातों के लिए भाइयों के सामने हाथ फैलाना अनुचित समझता था। वह अपनी जरूरतें आप पूरी करना चाहते थे। घर पर भाइयों के लड़के इतना कोलाहल मचाते थे कि उनका जी कुछ लिखने में न लगता था। इसलिए जब उनकी कुछ लिखने की इच्छा होती तो वे खटके पाठशाला में आ जाते। आनंदी बाई वहीं रहती थीं। वहां न कोई शोर था न गुल। एकांत में काम करने में जी लगता था। भोजन का समय आ जाता तो वहीं भोजन भी कर लेते। कुछ दिनों के बाद उन्हें बैठकर लिखने में असुविधा होने लगी (आंखें कमजोर हो गयी थीं) तो आनंदी लिखती थी। गोपीनाथ की प्रेरणा से उन्होंने हिन्दी सीखी और थोड़े ही दिनों में इतनी अभ्यस्त हो गयी थी कि लिखने में जरा भी हिचक न होती। लिखते समय कभी-कभी उन्हें ऐसे शब्द और मुहावरे सूझ जाते थे कि गोपीनाथ फड़क-फड़क उठते। उनके लेख में जान-सी पड़ जाती। वह कहते यदि तुम स्वयं कुछ लिखो तो मुझसे बहुत अच्छा लिख लोगी। मैं तो बेगारी करता हूं। तुम्हें परमात्मा की ओर से यह शक्ति प्रदान हुई है। नगर के लाल-बुझकड़ों में इस सहकारिता पर टीका-टिप्पणी होने लगी पर विद्वज्जन अपनी आत्मा की शुचिता के सामने ईर्ष्या के व्यंग्य की कब परवाह करते हैं। आनंदी कहती,’यह तो संसार है, जिसके मन में जो आये कहे, पर मैं उस पुरुष का निरादर नहीं कर सकती जिस पर मेरी श्रद्धा है।’ पर गोपीनाथ इतने निर्भीक न थे। उनकी सुकृति का आधार लोकमत था। वह उनकी भर्त्सना न कर सकते थे। इसलिए वह दिन के बदले रात को रचना करने लगे। पाठशाला में इस समय कोई देखने वाला न होता था। रात की नीरवता में खूब जी लगता। आराम-कुर्सी पर लेट जाते। आनंदी मेज़ के सामने कलम हाथ में लिए उनकी ओर देखा करती। जो कुछ उनके मुख से निकलता, तुरंत लिख लेती। उनकी आंखों से विनय और शील, श्रद्धा और प्रेम की किरण-सी निकलती हुई जान पड़ती। गोपीनाथ जब किसी भाव को मन में व्यक्त करने के बाद आनंदी की ओर ताकते कि वह लिखने के लिए तैयार है या नहीं, तो दोनों व्यक्तियों की निगाहें मिलती और आप ही झुक जाती। गोपीनाथ को इस तरह काम करने की ऐसी आदत पड़ती जाती थी कि जब किसी कार्यवश यहां आने का अवसर न मिलता तो वह विकल हो जाते थे।

आनंदी से मिलने के पहले गोपीनाथ को स्त्रियों का जो कुछ ज्ञान था, वह केवल पुस्तकों पर अवलम्बित था। स्त्रियों के विषय में प्राचीन और अर्वाचीन, प्राच्य और पाश्चात्य, सभी विद्वानों का एक ही मत था – यह मायावी, आत्मिक उन्नति की बाधक, परमार्थ की विरोधी, वृत्तियों को कुमार्ग की ओर ले जाने वाली, हृदय को संकीर्ण बनाने वाली होती हैं। इन्हीं कारणों से उन्होंने इस मायावी जाति से अलग रहना ही श्रेयस्कर समझा था, किन्तु यह अनुभव बतला रहा था कि स्त्रियां सन्मार्ग की ओर भी ले जा सकती हैं, उनमें सद्गुण भी हो सकते हैं। वह कर्तव्य और सेवा के भावों को जाग्रत भी कर सकती हैं। तब उसके मन में प्रश्न उठता कि यदि आनंदी से मेरा विवाह होता तो मुझे क्या आपत्ति हो सकती थी। उसके साथ तो मेरा जीवन आनंद से कट जाता। एक दिन वह आनंदी के यहां गये तो सिर में दर्द हो रहा था। कुछ लिखने की इच्छा न हुई। आनंदी को इसका कारण मालूम हुआ तो उसने उनके सिर में धीरे-धीरे तेल मलना शुरू किया। गोपीनाथ को उस समय अलौकिक सुख मिल रहा था। मन में प्रेम की तरंगें उठ रही थी – नेत्र, मुख, वाणी – सभी प्रेम में पगे जाते थे। उसी दिन से उन्होंने आनंदी के यहां जाना छोड़ दिया। एक सप्ताह बीत गया और न आये। आनंदी ने लिखा – ‘आपसे पाठशाला संबंधी कई विषयों में राय लेनी है। अवश्य आइए।’ तब भी न गये। उसने फिर लिखा – ‘मालूम होता है आप मुझसे नाराज हैं। मैंने जान बूझकर तो कोई ऐसा काम नहीं किया, लेकिन यदि वास्तव में आप नाराज हैं तो मैं यहां रहना उचित नहीं समझती। अगर आप अब भी न आये तो मैं द्वितीय अध्यापिका को चार्ज देकर चली जाऊंगी। गोपीनाथ पर इस धमकी का भी कुछ असर न हुआ। अब भी न गये। अंत में दो महीने तक खिंचे रहने के बाद उन्हें ज्ञात हुआ कि आनंदी बीमार है और दो दिन से पाठशाला नहीं आ सकी। तब वह किसी तर्क या युक्ति से अपने को न रोक सके। पाठशाला में आये और कुछ झिझकते, कुछ सकुचाते, आनंदी के कमरे में कदम रखा। देखा तो चुपचाप पड़ी हुई थी। मुख पीला था, शरीर घुल गया था। उसने उनकी ओर दया-प्रार्थी नेत्रों से देखा उठना चाहा पर अशक्ति ने उठने न दिया। गोपीनाथ ने आर्द्र कंठ से कहा – ‘लेटी रहो, लेटी रहो। उठने की जरूरत नहीं? मैं बैठ जाता हूं। डॉक्टर साहब आये थे?’

मिश्राइन ने कहा – ‘जी हां, -दो बार आये थे। दवा दे गये हैं।’

गोपीनाथ ने नुस्खा देखा। डॉक्टरी का साधारण ज्ञान था। नुस्खे से ज्ञात हुआ – हृदयरोग है। औषधियां सभी पुष्टिकर और बलवर्धक थीं। आनंदी की ओर फिर देखा। उसकी आंखों से अश्रुधारा बह रही थी। उनका गला भी भर आया। हृदय मसोसने लगा। गदगद होकर बोले – ‘आनंदी, तुमने मुझे पहले इसकी सूचना न दी, नहीं तो रोग इतना न बढ़ने पाता।’ आनंदी – ‘कोई बात नहीं है, अच्छी हो जाऊंगी, जल्दी ही अच्छी हो जाऊंगी। मर भी जाऊंगी तो कौन रोने वाला बैठा हुआ है?’ यह कहते-कहते वह फूट-फूटकर रोने लगी।

गोपीनाथ दार्शनिक थे, पर अभी तक उनके मन के कोमल भाव शिथिल न हुए थे। कम्पित स्वर से बोले – ‘आनंदी, संसार में कम-से-कम एक ऐसा आदमी है जो तुम्हारे लिए अपने प्राण तक दे देगा।’ यह कहते-कहते वह रुक गये। उन्हें अपने शब्द और भाव कुछ भद्दे और उच्छृंखल से जान पड़े। अपने मनोभावों को प्रकट करने के लिए वह इन सारहीन शब्दों की अपेक्षा कहीं अधिक काव्यमय, रसपूर्ण अनुरक्त शब्दों का व्यवहार करना चाहते थे, पर वह इस वक्त याद न पड़े।

आनंदी ने पुलकित होकर कहा – ‘दो महीने तक किस पर छोड़ दिया था।’

गोपीनाथ – ‘इन दो महीनों में मेरी जो दशा थी, वह मैं ही जानता हूं। यही समझ लो कि मैंने आत्महत्या नहीं की, यह बड़ा आश्चर्य है। मैंने न समझा था कि अपने व्रत पर स्थिर रहना मेरे लिए इतना कठिन हो जायेगा।

आनंदी ने गोपीनाथ का हाथ धीरे से अपने हाथ में लेकर कहा – ‘अब तो कभी इतनी कठोरता न कीजिएगा?’

गोपीनाथ – (संकुचित होकर) ‘अंत क्या है?’

आनंदी – ‘कुछ भी हो।’

गोपी – ‘कुछ भी हो? अपमान, निंदा, उपहास, आत्म-वेदना।’

आनंदी – ‘कुछ भी हो, मैं सब कुछ सह सकती हूं और आपको भी मेरे हेतु सहना पड़ेगा।’

गोपी – ‘आनंदी, मैं अपने को प्रेम पर बलिदान कर सकता हूं लेकिन अपने नाम को नहीं। इस नाम को अकलंकित रखकर मैं समाज की बहुत कुछ सेवा कर सकता हूं।’

आनंदी – ‘न कीजिए। आपने सब कुछ त्यागकर यह कीर्ति लाभ की है, मैं आपके यश को नहीं मिटाना चाहती। (गोपीनाथ का हाथ हृदयस्थल पर रखकर), इसको चाहती हूं। इससे अधिक त्याग की आकांक्षा नहीं रखती?’

गोपी – ‘दोनों बातें एक साथ संभव हैं?’

आनंदी – ‘संभव है। मैं प्रेम पर अपनी आत्मा को भी न्यौछावर कर सकती हूं।’

इसके पश्चात् लाला गोपीनाथ ने आनंदी की बुराई करनी शुरू की। मित्रों से कहते, उसका जी अब काम में नहीं लगता। पहले की-सी तनदेही नहीं है। किसी से कहते, उनका जी अब यहां से उचाट हो गया है, अपने घर जाना चाहती हैं। उनकी इच्छा है कि मुझे प्रति वर्ष तरक्की मिला करे और उसकी यहां गुंजाइश नहीं। पाठशाला को कई बार देखा और अपनी आलोचना में काम को असंतोषजनक लिखा। शिक्षा, संगठन, उत्साह, सुप्रबंध-सभी बातों में निराशाजनक क्षति पायी। वार्षिक अधिवेशन में जब कई सदस्यों ने आनंदी की वेतन-वृद्धि का प्रस्ताव उपस्थित किया तो लाला गोपीनाथ ने उसका विरोध किया। उधर आनंदी बाई भी गोपीनाथ के दुखड़े रोने लगी। यह मनुष्य नहीं है, पत्थर का देवता है। उन्हें प्रसन्न करना दुष्कर है, अच्छा ही हुआ कि उन्होंने विवाह नहीं किया, नहीं तो दुखिया इनके नखरे उठाते-उठाते सिधार जाती। कहां तक कोई सफाई और सुप्रबंध पर ध्यान दे! दीवार पर एक धब्बा भी पड़ गया, किसी कोने-खुतरे में एक जाला भी लग गया, बरामदों में कागज का एक टुकड़ा भी मिल गया, तो आपके तेवर बदल जाते हैं। दो साल, मैंने ज्यों-त्यों करके निबाहा, लेकिन देखती हूं तो लाला साहब की निगाह दिनों-दिन कड़ी होती जाती है। ऐसी दशा में यहां अधिक नहीं ठहर सकती। मेरे लिए नौकरी में कल्याण नहीं है, जब जी चाहेगा, उठ खड़ी हूंगी। यहां आप लोगों से मेल मोहब्बत हो गयी है। कन्याओं से ऐसा प्यार हो गया है कि छोड़कर जाने को जी नहीं चाहता। आश्चर्य था कि और किसी को पाठशाला की दशा में अवनति न दीखती थी, वरन हालत पहले से अच्छे थे।

एक दिन पंडित अमरनाथ की लालाजी से भेंट हो गयी। उन्होंने पूछा – ‘कहिए, पाठशाला खूब चल रही है न?’

गोपी – ‘कुछ न पूछिए? दिनों-दिन दशा गिरती जाती है।’

अमर – ‘आनंदी बाई की ओर से ढील है क्या?’

गोपी – ‘जी हां, सरासर। अब काम करने में उनका जी ही नहीं लगता। बैठी हुई योग और ज्ञान के ग्रंथ पढ़ा करती हैं। कुछ कहता हूं तो कहती हैं, मैं अब इससे और अधिक कुछ नहीं कर सकती। कुछ परलोक की भी चिंता करूं कि चौबीस घंटे पेट के धंधे में ही लगी रहूं? पेट के लिए पांच घंटे बहुत हैं। पहले कुछ दिनों तक बारह घंटे करती, पर यह दशा स्थायी नहीं रह सकती थी। यहां आकर मैंने स्वास्थ्य को खो दिया। एक बार कठिन रोग से ग्रस्त हो गयी। क्या कमेटी ने मेरा दवा-दर्पन का खर्च दे दिया? कोई बात पूछने भी न आया? फिर अपनी जान क्यों दूं? सुना है, घरों में मेरी बदगोई भी किया करती हैं।’ अमरनाथ मार्मिक भाव से बोले – ‘यह बातें मुझे पहले ही मालूम थी।’

दो साल गुजर गये। रात का समय था। कन्या-पाठशाला के ऊपर वाले कमरे में लाला गोपीनाथ मेज़ के सामने कुरसी पर बैठे हुए थे, सामने आनंदी कोच पर लेटी हुई थी। मुख बहुत म्लान हो रहा था। कई मिनट तक दोनों विचार में मग्न थे। अंत में गोपीनाथ बोले – ‘मैंने पहले ही महीने में तुमसे कहा था कि मथुरा चली जाओ।’

आनंदी ‘वहां दस महीने क्यों कर रहती। मेरे पास इतने रुपये कहां थे और न तुम्हीं ने कोई प्रबंध का आश्वासन दिया। मैंने सोचा, तीन-चार महीने यहां और रहूं। तब तक किफायत करके कुछ बचा लूंगी, तुम्हारी किताब से भी कुछ मिल जायेंगे। तब मथुरा जाऊंगी, मगर यह क्या मालूम था कि बीमारी भी इसी अवसर की ताक में बैठी हुई है। मेरी दशा दो-चार दिन के लिए भी संभली और मैं चली। इस दशा में तो मेरे लिए यात्रा करना असम्भव है।’ गोपी – ‘मुझे भय है कि कहीं बीमारी तूल न खींचे। संग्रहणी असाध्य रोग है। महीने-दो महीने यहां और रहने पड़ गये तो बात खुल जायेगी।’

आनंदी – (चिढ़ कर) ‘खुल जायेगी, खुल जाये। अब इससे कहां तक डरूं।’