Rasik Sampaadak by Munshi Premchand
Rasik Sampaadak by Munshi Premchand

‘नवरस’ के सम्पादक पं. चोखेलाल शर्मा की धर्मपत्नी का जब से देहांत हुआ है, आपको स्त्रियों से विशेष अनुराग हो गया है और रसिकता की मात्रा भी कुछ बढ़ गयी है। पुरुषों के अच्छे-अच्छे लेख रद्दी में डाल दिये जाते हैं, पर देवियों के लेख कैसे भी हों, तुरन्त स्वीकार कर लिये जाते हैं और बहुधा लेख की प्रशंसा कुछ इन शब्दों में की जाती है-आपका लेख पढ़कर दिल थाम कर रह गया, अतीत जीवन आँखों के सामने मूर्तिमान हो गया, अथवा आपके भाव साहित्य-सागर के उज्ज्वल रत्न हैं जिसकी चमक कभी कम न होगी। और कविताएँ तो हृदय की हिलोरें, विश्व-वीणा की अमर तान, अनन्त की मधुर वेदना, निशा का नीरव गान होती थीं। प्रशंसा के साथ दर्शनों की उत्कट अभिलाषा भी प्रकट की जाती थी-यदि आप कभी इधर से गुजरें, तो मुझे न भूलियेगा। जिसने ऐसी कविता की सृष्टि की है, उसके दर्शनों का सौभाग्य हमें मिला, तो अपने को धन्य मानूँगा।

लेखिकाएं अनुराग-मय प्रोत्साहन से भरे हुए पत्र पाकर फूली न समाती। जो लेख अभागे भिक्षुक की भांति कितनी ही पत्र-पत्रिकाओं के द्वार से निराश लौट आये थे, उनका यहाँ इतना आदर। पहली ही बार ऐसा सम्पादक जन्मा है, जो गुणों का पारखी है, और सभी सम्पादक अहम्मन्य हैं। अपने आगे किसी को समझते ही नहीं। जरा-सी सम्पादकी क्या मिल गयी मानो कोई राज्य मिल गया। इन सम्पादकों को कहीं सरकारी पद मिल जाय तो अंधेर मचा दें। वह तो कहो कि सरकार इन्हें पूछती नहीं, उसने बहुत अच्छा किया, जो आर्डिनेन्स पास कर दिये। और स्त्रियों से द्वेष करो! यह उसी का दंड है! यह भी सम्पादक ही हैं, कोई घास नहीं छीलते और सम्पादक भी एक जगत् विख्यात पत्र के ‘नवरस’ सब पत्रों में राजा है।

चोखेलालजी के पत्र की ग्राहक-संख्या बड़े वेग से बढ़ने लगी। हर डाक से धन्यवाद की एक बाढ़-सी आ जाती, और लेखिकाओं में उनकी पूजा होने लगी। ब्याह, गौना, मुंडन, जन्म-मरण के समाचार आने लगे। कोई आशीर्वाद माँगती, कोई उनके मुख से सांत्वना के दो शब्द सुनने की अभिलाषा करती, कोई उनसे घरेलू संकटों में परामर्श पूछती। और महीने में दस-पाँच महिलाएँ उन्हें दर्शन भी दे जातीं। शर्मा जी उनकी अवाई का तार या पत्र पाते ही स्टेशन पर जाकर उनका स्वागत करते, बड़े आग्रह से उन्हें एक-आधा दिन ठहराते, उनकी खूब खातिर करते। सिनेमा के फ्री पास मिले हुए थे ही, खूब सिनेमा दिखाते। महिलाएँ उनके सद्भाव से मुग्ध होकर विदा होतीं। मशहूर तो यहाँ तक है कि शर्मा जी का कई लेखिकाओं से बहुत ही घनिष्ठ संबंध हो गया है, लेकिन इस विषय में हम निश्चित पूर्वक कुछ नहीं कह सकते। हम तो इतना ही जानते हैं कि जो देवियाँ एक बार यहाँ आ जाती, वह शर्मा जी की अलब्ध भक्त हो जातीं। बेचारा साहित्य की कुटिया का तपस्वी है। अपने विधुर जीवन की निराशाओं को अपने अन्तस्तल में संचित रखकर कर वेदना में प्रेम-माधुर्य का रस-पान कर रहा है। संपादक जी के जीवन में जो कमी आ गयी थी, उनकी कुछ पूर्ति करना महिलाओं ने अपना धर्म-सा मान लिया। उनके भरे हुए भंडार में से अगर एक क्षुधित प्राणी को थोड़ी-सी मिठास दी जा सके, तो उससे भंडार की शोभा है। कोई देवी पार्सल से अचार भेज देती, कोई लड्डू। एक ने पूजा का ऊनी आसन अपने हाथों बनाकर भेज दिया। एक देवी महीने में एक बार आकर उनके कपड़ों की मरम्मत कर देती थीं। दूसरी देवी महीने में दो-तीन बार आकर उन्हें अच्छी-अच्छी चीजें बनाकर खिला जाती थी। अब वह किसी एक के न होकर सबके हो गये थे। स्त्रियों के अधिकारों का उनसे कड़ा रक्षक शायद ही कोई मिले। पुरुषों से तो शर्मा जी को हमेशा तीव्र आलोचना ही मिलती थी। श्रद्धामय सहानुभूति का आनंद तो उन्होंने स्त्रियों में ही पाया ।

एक दिन सम्पादक जी को एक ऐसी कविता मिली, जिसमें लेखिका ने अपने उग्र प्रेम का रूप दिखाया था। अन्य सम्पादक उसे अश्लील कहते, लेकिन चोखेलाल इधर बहुत उदार हो गये थे। कविता इतने सुन्दर अक्षरों में लिखी थी, लेखिका का नाम इतना मोहक था कि सम्पादक जी के सामने उसका एक कल्पना-चित्र- सा आकर खड़ा हो गया। भावुक प्रकृति, कोमल गीत, याचना भरे नेत्र, बिम्ब- अधर, चंपई रंग, अंग-अंग में चपलता भरी हुई, पहले गोंद की तरह शुष्क और कठोर, आर्द्र होते हुए ही चिपक जाने वाली। उन्होंने कविता दो-तीन बार पढ़ी और हर बार उनके मन में सनसनी दौड़ी-

क्या तुम समझते हो, मुझे छोड़कर भाग जाओगे?

भाग सकोगे?

मैं तुम्हारे गले में हाथ डाल दूँगी,

मैं तुम्हारी कमर में करपाश कस दूँगी,

मैं तुम्हारा पाँव पकड़कर रोक लूंगी,

तब उस पर सर रख दूंगी।

क्या तुम समझते हो? मुझे छोड़कर भाग जाओगे?

छोड़ सकोगे?

मैं तुम्हारे अधरों पर अपने कपोल चिपका दूँगी,

उस प्याले में जो मादक सुधा है,

उसे पीकर तुम मस्त हो जाओगे।

क्या तुम समझते हो, मुझे छोड़कर भाग जाओगे?

-कामाक्षी

शर्मा जी को हर बार इस कविता में एक नया रस मिलता था। उन्होंने उसी क्षण कामाक्षी देवी के नाम नाम यह पत्र लिखा-

‘आपकी कविता पढ़कर, मैं नहीं कह सकता, मेरे चित्त की क्या दशा हुई। हृदय में एक ऐसी तृष्णा जाग उठी है, जो मुझे भस्म किये डालती है। नहीं जानता, इसे कैसे शान्त करूँ? बस यही आशा है कि इसको शीतल करने वाली सुधा भी वहीं मिलेगी, जहाँ से यह तृष्णा मिली है। मन पतंग की भांति जंजीर तुड़कर भाग जाना चाहता है। जिस हृदय से यह भाव निकले हैं, उसमें प्रेम का कितना अक्षय भंडार है, उस प्रेम का, जो अपने को समर्पित कर देने में ही आनंद पाता है। मैं आपसे सत्य कहता हूं, ऐसी कविता मैंने आज तक नहीं सुनी थी और इसने मेरे अंदर जो तूफान उठा दिया है, वह मेरी विधुर शांति को छिन्न-भिन्न किये डालता है। आपने एक गरीब की फूस की झोंपड़ी में आग दी है, लेकिन मन यह स्वीकार नहीं करता कि वह केवल विनोद-क्रीड़ा है। इन शब्दों में मुझे एक ऐसा हृदय छिपा हुआ ज्ञात होता है, जिसने प्रेम की वेदना सही है, जो लालसा की आग में तपा है। मैं इसे परम सौभाग्य समझूँगा, यदि आपके दर्शनों का सौभाग्य पा सका। यह कुटिया अनुराग की भेंट के लिए आपका स्वागत करने को तड़प रही है।’

तीसरे ही दिन उत्तर आ गया। कामाक्षी ने बड़े भावुकतापूर्ण शब्दों में कृतज्ञता प्रकट की थी और अपने आने की तिथि बतायी थी।

आज कामाक्षी का शुभागमन है।

शर्मा जी ने प्रातःकाल हजामत बनवायी, साबुन और बेसन से स्नान किया, महीन खद्दर की धोती, कोकटी का ढीला चुन्नटदार कुरता, मलाई के रंग की रेशमी चादर-ठाठ से कार्यालय में बैठे, तो सारा दफ्तर चमक उठा। दफ्तर की भी खूब सफाई कर दी गयी थी। बरामदे में गमले रखवा दिये गये थे, मेज़ पर गुलदस्ते सजा दिये गये थे। गाड़ी नौ बजे आती है, अभी साढ़े आठ बजे हैं, साढ़े नौ बजे तक यहाँ आ जायेगी। इस परेशानी में कोई काम नहीं हो रहा है। बार-बार घड़ी की ओर ताकते हैं, फिर आइने में अपनी सूरत देखकर कमरे में टहलने लगते हैं। मूँछों से दो-चार बाल पके हुए नजर आ रहे हैं, उन्हें उखाड़ फेंकने का इस समय कोई साधन नहीं है, कोई हर्ज नहीं। इससे रंग कुछ और ज्यादा ही जमेगा। प्रेम जब श्रद्धा के साथ आता है, तब वह ऐसा मेहमान हो जाता है, जो उपहार लेकर आया हो। युवकों का प्रेम खर्चीली वस्तु है लेकिन महात्माओं या महात्मापन के समीप पहुँचे हुए लोगों का प्रेम-उलटे और कुछ ले आता है। युवक जो रंग बहुमूल्य उपहारों से जमाता है, ये महात्मा या अर्द्ध-महात्मा लोग केवल आशीर्वाद से जमा लेते हैं।

ठीक साढ़े नौ बजे चपरासी ने आकर कार्ड दिया। लिया था-कामाक्षी। शर्मा जी ने उसे देवीजी को लाने की अनुमति देकर एक बार फिर आइने में अपनी सूरत देखी और एक मोटी-सी पुस्तक पढ़ने लगे, मानो स्वाध्याय में तन्मय हो गये हैं। एक क्षण में देवीजी ने कमरे में कदम रखा। शर्मा जी को उनके उगने की खबर न हुई।

देवीजी डरते-डरते समीप आ गयीं, तब शर्मा जी ने चौंक कर सिर उठाया मानो समाधि से जाग पड़े हों, और खड़े होकर देवीजी का स्वागत किया, मगर यह वह मूर्ति न थी, जिसकी उन्होंने कल्पना कर रखी थी।

एक काली, मोटी, अधेड़, चंचल औरत थी, जो शर्मा जी को इस तरह घूर रही थी, मानो उसे पी जायेगी। शर्मा जी का सारा उत्साह, सारा अनुराग ठंडा पड़ गया। वह सारी मन की मिठाइयाँ जो वह महीनों से खा रहे थे, पेट में शूल की भांति चुभने लगीं। कुछ कहते-सुनते न बना। केवल इतना बोले-सम्पादकों का जीवन बिलकुल पशुओं का जीवन है। सिर उठाने का समय नहीं मिलता। उस पर कार्याधिक्य से इधर मेरा स्वास्थ्य भी बिगड़ रहा है। रात ही से सिर-दर्द से बेचैन हूँ। आपकी क्या खातिर करूँ?

कामाक्षी देवी के हाथ में एक बड़ा-सा पुलिंदा था। उसे मेज़ पर पटककर रूमाल से मुँह पोंछकर मृदु-स्वर में बोलीं- ‘यह तो आपने बड़ी बुरी खबर सुनाई। मैं तो एक सहेली से मिलने जा रही थी। सोचा रास्ते में आपके दर्शन करती चलूँ लेकिन जब आपका स्वास्थ्य ठीक नहीं है, तो मुझे कुछ दिन रहकर आपका स्वास्थ्य सुधारना पड़ेगा। मैं आपके सम्पादन- कार्य में भी आपकी मदद करूँगी। आपका स्वास्थ्य स्त्री-जाति के लिए बड़े महत्त्व की वस्तु है। आपको इस दशा में छोड़कर अब मैं जा ही नहीं सकती।’

शर्मा जी को ऐसा जान पड़ा, जैसे उनका रक्त-प्रवाह रुक गया है, नाड़ी टूटी जा रही है। उस चुड़ैल के साथ रहकर तो जीवन ही नरक हो जायेगा। चली हैं कविता करने, और कविता भी कैसी? अश्लीलता में डूबी हुई। अश्लील तो है ही। बिलकुल सड़ी हुई, गंदी। एक सुन्दरी युवती की कलम से वह कविता काम-बाण थी। इस डायन की कलम से तो यह परनाले का कीचड़ है। मैं कहता हूँ इसे ऐसी कविता लिखने का अधिकार ही क्या है? वह क्यों ऐसी कविता लिखती है? क्यों नहीं किसी कोने में बैठकर राम-भजन करती? आप पूछती हैं- मुझे छोड़कर भाग सको? मैं कहता हूँ आपके पास कोई आयेगा ही क्यों? दूर से ही देखकर न लम्बा हो जायेगा। कविता क्या है, जिसका न सिर, न पैर, मात्राओं तक का तो इसे ज्ञान नहीं है। और कविता करती है? कविता अगर इस काया में निवास कर सकती है, तो फिर गधा भी गा सकता है। ऊंट भी नाच सकता है। इस रांड को इतना भी नहीं मालूम कि कविता करने के लिए रूप और यौवन चाहिए, नजाकत चाहिए। भूतनी-सी तो आपकी सूरत है, रात को कोई देख ले, तो डर जाय और आप उत्तेजक कविता लिखती हैं। कोई कितना ही क्षुधातुर हो, तो क्या गोबर खा लेगा? और चुड़ैल इतना बड़ा पोथा लेती आयी है। इसमें भी वही परनाले का गंदा कीचड़ होगा।

उस मोटी पुस्तक की ओर देखते हुए बोले- ‘नहीं, नहीं, मैं आपको कष्ट नहीं देना चाहता। वह ऐसी कोई बात नहीं है। दो-चार दिन के विश्राम से ठीक हो जायेगा। आपकी सहेली आपकी प्रतीक्षा करती होंगी।’

‘आप तो महाशयजी संकोच कर रहे हैं। मैं दस-पाँच दिन के बाद भी चली जाऊंगी, तो कोई हानि न होगी।’

‘इसकी कोई आवश्यकता नहीं है देवीजी।’

‘आपके मुँह पर तो आपकी प्रशंसा करना खुशामद होगी, पर जो सज्जनता मैंने आप में देखी, वह कहीं नहीं पायी। आप पहले महानुभाव हैं, जिन्होंने मेरी रचना का आदर किया, नहीं, मैं तो निराश हो चुकी थी। आपके प्रोत्साहन का यह शुभ फल है कि मैंने इतनी कविताएँ रच डालीं। आप इनमें से जो चाहें रख लें। मैंने एक ड्रामा भी लिखना शुरू कर दिया है। उसे भी शीघ्र ही आपकी सेवा में भेजूँगी। कहिए तो दो-चार कविताएँ सुनाऊँ? ऐसा अवसर मुझे कब मिलेगा? यह तो नहीं जानती कि कविताएँ कैसी हैं, पर आप सुनकर प्रसन्न होंगे। बिलकुल उसी रंग की हैं।’

उसने अनुमति की प्रतीक्षा न की। तुरंत पोथा खोलकर एक कविता सुनाने लगी। शर्मा जी को ऐसा मालूम होने लगा, जैसे कोई भिगो-भिगोकर जूते मार रहा है। कई बार उन्हें मतली आ गयी, जैसे एक हजार गधे कानों के पास खड़े अपना स्वर अलाप रहे हों। कामाक्षी के स्वर में कोयल का माधुर्य था। पर शर्मा जी को इस समय वह भी अप्रिय लग रहा था। सिर में सचमुच दर्द होने लगा। यह गधी टलेगी भी, या यों ही बैठी सिर खाती रहेगी? इसे मेरे चेहरे से भी मेरे मनोभावों का ज्ञान नहीं हो रहा है। उस पर आप कविता करने चली है? इस मुँह से महादेवी या सुभद्रा कुमारी की कविताएँ भी घृणा ही उत्पन्न करेगी।

आखिर न रहा गया। बोले- ‘आपकी रचनाओं का क्या कहना, आप यह संग्रह यही छोड़ जायें। मैं अवकाश में पढ़ूंगा। इस समय तो बहुत-सा काम है।’

कामाक्षी ने दयार्द्र होकर कहा- ‘आप इतना दुर्बल स्वास्थ्य होने पर भी इतने व्यस्त रहते हैं? मुझे आप पर दया आती है।’

‘आपकी कृपा है।’

‘आपको कल अवकाश रहेगा? जरा मैं ड्रामा सुनाना चाहती थी?’

‘खेद है, कल मुझे जरा प्रयाग जाना है।’

‘तो मैं भी आपके साथ चलूँ? गाड़ी में सुनाती चलूँगी?’

‘कुछ निश्चय नहीं, किस गाड़ी से जाऊँ।’