Shaap by Munshi Premchand
Shaap by Munshi Premchand

बर्लिन नगर का निवासी हूँ। मेरे पूज्य पिता भौतिक विज्ञान के सुविख्यात ज्ञाता थे। भौगोलिक अन्वेषण का शौक मुझे भी बाल्यावस्था ही से था। उनके स्वर्गवास के बाद मुझे यह धुन सवार हुई कि पैदल पृथ्वी के समस्त देश-देशान्तरों की सैर करूँ। मैं विपुल धन का स्वामी था। वे सब रुपये एक बैंक में जमा कर दिये और उससे शर्त कर ली कि मुझे यथासमय रुपये भेजता रहे इस कार्य से निवृत्त हो कर मैंने सफर का सामान पूरा किया। आवश्यक वैज्ञानिक यंत्र साथ लिये और ईश्वर का नाम ले कर चल खड़ा हुआ। उस समय यह कल्पना मेरे हृदय में गुदगुदी पैदा कर रही थी कि मैं वह पहला प्राणी हूँ जिसे यह बात सूझी है कि पैरों से पृथ्वी को नापे। अन्य यात्रियों ने रेल जहाज और मोटरकार की शरण ली है। मैं पहला ही वह वीर-आत्मा हूँ जो अपने पैरों के बूते पर प्रकृति के विराट् उपवन की सैर के लिए उद्यत हुआ है। अगर मेरे साहस और उत्साह ने यह कष्टसाध्य यात्रा पूरी कर ली तो भद्रसंसार मुझे सम्मान और गौरव के मसनद पर बैठावेगा और अनंत काल तक मेरी कीर्ति के राग अलापे जायेंगे। उस समय मेरा मस्तिष्क इन्हीं विचारों से भरा हुआ था। और ईश्वर को धन्यवाद देता हूँ कि सहर्षों कठिनाइयों का सामना करने पर भी धैर्य ने मेरा साथ न छोड़ा और उत्साह एक क्षण के लिए भी निरुत्साह न हुआ।

मैं वर्षों ऐसे स्थानों में रहा हूं जहां निर्जनता के अतिरिक्त कोई दूसरा साथी न था। वर्षों ऐसे स्थानों में रहा हूं जहां की पृथ्वी और आकाश हिम की शिलाएं थी। मैं भयंकर जंतुओं के पहलू में सोया हूं। पक्षियों के घोंसलों में रातें काटी हैं, किंतु ये सारी बाधाएं कट गयीं और वह समय अब दूर नहीं है कि साहित्य और विज्ञान-संसार मेरे चरणों पर शीश नवाये।

मैंने इस यात्रा में बड़े-बड़े अद्भुत दृश्य देखे और कितनी ही जातियों के आहार-व्यवहार रहन-सहन का अवलोकन किया। मेरा यात्रा-वृत्तांत, विचार अनुभव और निरीक्षण का एक अमूल्य रत्न होगा। मैंने ऐसी-ऐसी आर्श्चयजनक घटनाएं आंखों से देखी हैं, जो आलिफ-लैला की कथाओं से कम मनोरंजक न होगी। परंतु वह घटना जो मैंने ज्ञान-सरोवर के तट पर देखी, उसका उदाहरण मुश्किल से मिलेगा, मैं उसे कभी न भूलूंगा। यदि मेरे इस तमाम परिश्रम का उपहार यही एक रहस्य होता तो मैं उसे पर्याप्त समझता। मैं यह बता देना आवश्यक समझता हूं कि मैं मिथ्यावादी नहीं और न सिद्धियों तथा विभूतियों पर मेरा विश्वास है। मैं उस विद्वान का भक्त हूं जिनका आधार तर्क और न्याय पर है। यदि कोई दूसरा प्राणी यही घटना मुझसे बयान करता तो मुझे विश्वास करने में बहुत संकोच होता, किन्तु मैं जो कुछ बयान कर रहा हूं वह सत्य घटना है। यदि मेरे इस आश्वासन पर भी कोई उस पर अविश्वास करे, तो उसकी मानसिक दुर्बलता और विचारों की संकीर्णता है।

यात्रा का सातवां वर्ष था और ज्येष्ठ का महीना। मैं हिमालय के दामन में ज्ञान-सरोवर के तट पर हरी-हरी घास पर लेटा हुआ था, ऋतु अत्यन्त सुहावनी थी। ज्ञान-सरोवर के स्वच्छ निर्मल जल में आकाश और पर्वत श्रेणी के प्रतिबिंब, जलपक्षियों का पानी पर तैरना, शुभ्र हिमश्रेणी का सूर्य के प्रकाश से चमकना आदि अमेरिका के बहुत प्रशंसित दृश्य देखे हैं, पर उनमें यह शांतिप्रद शोभा कहां! मानव-बुद्धि ने उनके प्राकृतिक सौंदर्य को अपनी कृत्रिमता से कलंकित कर दिया है। मैं तल्लीन होकर इस स्वर्गीय आनंद का उपभोग कर रहा था कि सहसा मेरी दृष्टि एक सिंह पर जा पड़ी, जो मंदगति से कदम बढ़ाता हुआ मेरी ओर आ रहा था। उसे देखते ही मेरा खून सूख गया, होश उड़ गये। ऐसा वृहदाकार भयंकर जन्तु मेरी नजर से न गुजरा था। वहां ज्ञान-सरोवर के अतिरिक्त कोई ऐसा स्थान नहीं था जहां भागकर अपनी जान बचाता। मैं तैरने में कुशल हूं पर मैं ऐसा भयभीत हो गया कि अपने स्थान से हिल न सका। मेरे अंग-प्रत्यंग मेरे काबू से बाहर थे। समझ गया कि मेरी जिन्दगी यहीं तक थी। इस शेर के पंजे से बचने की कोई आशा न थी। अकस्मात् मुझे स्मरण हुआ कि मेरी जेब में एक पिस्तौल गोलियों से भरी हुई रखी है, जो मैंने आत्मरक्षा के लिए चलते समय साथ ले ली थी, और अब तक प्राणपण से इसकी रक्षा करता आया था। आश्चर्य है कि इतनी देर तक मेरी स्मृति कहां सोई रही। मैंने तुरंत ही पिस्तौल निकाली और सोचा था कि शेर पर वार करूं कि मेरे कानों में यह शब्द सुनाई दिए, ‘मुसाफिर, ईश्वर के लिए वार न करना अन्यथा मुझे दुख होगा। सिंहराज से तुझे हानि न पहुंचेगी।’

मैंने चकित होकर पीछे की ओर देखा तो एक युवती रमणी आती हुई दिखाई दी। उसके एक हाथ में सोने का लोटा था और दूसरे में एक तश्तरी। मैंने जर्मनी की हूरें और कोहकाफ़ की परियां देखी हैं, पर हिमाचल पर्वत की यह अप्सरा मैंने एक ही बार देखी और उसका चित्र आज तक हृदय-पट पर खिंचा हुआ है। मुझे स्मरण नहीं कि ‘रफल’ या ‘कोरजियो’ ने भी कभी ऐसा चित्र खींचा हो। ‘वैंडाइक’ और ‘रेमब्राड’ के आकृति-चित्रों में भी ऐसी मनोहर छवि नहीं देखी। पिस्तौल मेरे हाथ से गिर पड़ी। कोई दूसरी शक्ति इस समय मुझे अपनी भयावह परिस्थिति से निश्चिंत न कर सकती थी।

मैं उस सुंदरी की ओर देख ही रहा था कि वह सिंह के पास आई। सिंह उसे देखते ही खड़ा हो गया और मेरी ओर सशंक नेत्रों से देखकर मेघ की भांति गरजा। रमणी ने एक रूमाल निकालकर उसका मुंह पोंछा और फिर लोटे से दूध उंड़ेल कर उसके सामने रुख दिया। सिंह दूध पीने लगा। मेरे विस्मय की अब कोई सीमा न थी। चकित था कि यह कोई तिलस्म है या जादू। व्यवहार-लोक में हूं अथवा विचार-लोक में। सोता हूं या जागता। मैंने बहुधा सरकस में पालतू शेर देखे हैं, किन्तु उन्हें काबू में रखने के लिए किन-किन रक्षा-विधानों से काम लिया जाता है! उसके प्रतिकूल यह मांसाहारी पशु उस रमणी के सम्मुख इस भांति लेटा हुआ है मानो वह सिंह की योनि में कोई मृग-शावक है। मन में प्रश्न हुआ, सुंदरी में कौन-सी चमत्कारिक शक्ति है जिसने सिंह को इस भांति वशीभूत कर लिया? क्या पशु भी अपने हृदय में कोमल और रसिक भाव छिपाए रखते हैं? कहते हैं कि महुअर का अलाप काले नाग को भी मस्त कर देता है। जब जीव में यह सिद्धि है तो सौंदर्य की शक्ति का अनुमान कौन कर सकता है। रूप-लालित्य संसार का सबसे अमूल्य रत्न है, प्रकृति के रचना-नैपुण्य का सर्वश्रेष्ठ अंश है।

जब सिंह दूध पी चुका तो सुंदरी ने रूमाल से उसका मुंह पोंछा और उसका सिर अपने जांघ पर रख उसे थपकियां देने लगी। सिंह पूंछ हिलाता था और सुंदरी की अरुणवर्ण हथेलियों को चाटता था। थोड़ी देर के बाद दोनों एक गुफा में अन्तर्हित हो गये। मुझे भी धुन सवार हुई कि किसी प्रकार इस तिलस्म को खोलूं, इस रहस्य का उद्घाटन करूं। जब दोनों अदृश्य हो गये तो मैं भी उठा और दबे पांव उस गुफा के द्वार तक जा पहुंचा। भय से मेरे शरीर की बोटी-बोटी कांप रही थी, मगर इस रहस्यपट को खोलने की उत्सुकता भय को दबाए हुए थी। मैंने गुफा के भीतर झांका तो क्या देखता हूं कि पृथ्वी पर जरी का फर्श बिछा हुआ है और कारचोबी गावत किये लगे हुए हैं। सिंह मसनद पर गर्व से बैठा हुआ है। सोने-चांदी के पात्र, सुंदर चित्र, फूलों के गमले सभी अपने-अपने स्थान पर सजे हुए हैं, वह गुफा राजभवन को भी लज्जित कर रही है।

द्वार पर मेरी परछाई देखकर वह सुंदरी बाहर निकल आई और मुझसे कहा, ‘यात्री, तू कौन है और इधर क्यों कर आ निकला?’

कितनी मनोहर ध्वनि थी। मैंने अबकी बार समीप से देखा तो सुंदरी का मुख कुम्हलाया हुआ था। उसके नेत्रों से निराशा झलक रही थी, उसके स्वर में भी करुणा और व्यथा की खटक थी। मैंने उत्तर दिया, ‘देवी, मैं यूरोप का निवासी हूं यहां देशाटन करने आया हूं। मेरा परम सौभाग्य है कि आप से सम्भाषण करने का गौरव प्राप्त हुआ।’ सुंदरी के गुलाब से ओठों पर मधुर मुस्कान की झलक दिखाई दी उसमें कुछ जटिल हास्य का भी अंश था। कदाचित यह मेरे इस अस्वाभाविक वाक्य प्रणाली का द्योतक था। ‘तू विदेश से यहां आया है। आतिथ्य-सत्कार हमारा कर्तव्य है। मैं आज तेरा निमंत्रण करती हूं स्वीकार कर।’

मैंने अवसर देखकर उत्तर दिया, ‘आपकी यह कृपा मेरे लिए गौरव की बात है, पर इस रहस्य ने मेरी भूख-प्यास बंद कर दी है। क्या मैं आशा करूं कि आप इस पर कुछ प्रकाश डालेंगी।’

सुंदरी ने ठंडी सांस लेकर कहा, ‘मेरी रामकहानी विपत्ति की एक बड़ी कथा है, तुझे सुनकर दुःख होगा।’ किन्तु मैंने जब बहुत आग्रह किया तो उसने मुझे फर्श पर बैठने का संकेत किया और अपना वृतांत सुनाने लगी।

मैं काश्मीर देश की रहनेवाली राजकन्या हूँ। मेरा विवाह एक राजपूत योद्धा से हुआ था। उनका नाम नृसिंहदेव था। हम दोनों बड़े आनंद से जीवन व्यतीत करते थे। संसार का सर्वोत्तम पदार्थ रूप है दूसरा स्वास्थ्य और तीसरा धन। परमात्मा ने हमको ये तीनों ही पदार्थ प्रचुर परिमाण में प्रदान किये थे। खेद है कि मैं उनसे मुलाकात नहीं कर सकती। ऐसा साहसी ऐसा सुन्दर ऐसा विद्वान् पुरुष सारे काश्मीर में न था। मैं उनकी आराधना करती थी। उनका मेरे ऊपर अपार स्नेह था। कई वर्षों तक हमारा जीवन एक जलश्रोत की भाँति वृक्ष-पुंजों और हरे-भरे मैदानों में प्रवाहित होता रहा।

मेरे पड़ोस में एक मंदिर था। पुजारी एक पंडित श्रीधर थे। हम दोनों प्रातःकाल तथा संध्या समय उस मंदिर में उपासना के लिए जाते। मेरे स्वामी कृष्ण के भक्त थे। मंदिर एक सुरम्य सागर के तट पर बना हुआ था। वहां की परिष्कृत मंद समीर चित्त को पुलकित कर देती थी। इसीलिए हम उपासना के पश्चात भी वहां घंटों वायु-सेवन करते रहते थे। श्रीधर बड़े विद्वान, वेदों के ज्ञाता, शास्त्रों के जानने वाले थे। कृष्ण पर उनकी धी अविचल भक्ति थी। समस्त कश्मीर में उनके पांडित्य की चर्चा थी। वह बड़े संयमी, संतोषी, आत्मज्ञानी पुरुष थे। उनके नेत्रों से शांति की ज्योति-रेखाएं निकलती हुई मालूम होती थीं। सदैव परोपकार में मग्न रहते थे। उनकी वाणी ने भी किसी का हृदय नहीं दुखाया। उनका हृदय नित्य परवेदना से पीड़ित रहता था। पंडित श्रीधर मेरे पतिदेव से लगभग दस वर्ष बड़े थे, पर उनकी धर्म पत्नी विद्याधरी मेरी समवयस्क थी। हम दोनों सहेलियां थी। विद्याधरी अत्यंत गंभीर शांत प्रकृति की स्त्री थी। यद्यपि रंग-रूप में वही रानी थी, पर वह अपनी अवस्था से संतुष्ट थी। अपने पति को वह देवतुल्य समझती थी।

श्रावण का महीना था। आकाश पर काले-काले बादल मंडरा रहे थे, मानो काजल के पर्वत उड़े जा रहे हैं। झरनों से दूध की धारें निकल रही थीं और चारों तरफ हरियाली छाई हुई थी। नन्ही-नन्ही फुहारें पड़ रही थी, मानो स्वर्ग से अमृत की बूंदें टपक रही हैं। जल की बूंदें फूलों और पत्तियों के गले में चमक रही थी। चित्त को अभिलाषाओं से उभारने वाला समा छाया हुआ था। यह वह समय है जब रमणियों को विदेशगामी प्रियतम की याद रुलाने लगती है, जब हृदय किसी से आलिंगन करने के लिए व्यग्र हो जाता है। जब सूनी सेज देखकर कलेजे में हूक-सी उठती है। इसी ऋतु में विरह की मारी वियोगिनियां अपनी बीमारी का बहाना करती हैं, जिससे उसका पति उसे देखने आवे। इसी ऋतु में माली की कन्या धानी साड़ी पहनकर क्यारियों में इठलाती हुई चम्पा और बेले के फूलों से आंचल भरती हैं, क्योंकि हार और गजरों की मांग बहुत बढ़ जाती है। मैं और विद्याधरी ऊपर छत पर बैठी हुई वर्षा ऋतु की बहार देख रही थी, और कालिदास का ऋतुसंहार पढ़ती थी कि इतने में मेरे पति ने आकर कहा, ‘आज बड़ा सुहावना दिन है। झूला झूलने में बड़ा आनंद आयेगा।’ सावन में झूला झूलने का प्रस्ताव क्यों कर रद्द किया जा सकता था। इन दिनों प्रत्येक रमणी का चित्त आप ही झूला झूलने के लिए विकल हो जाता है।

जब वन के वृक्ष झूला झूलते हों जब सारी प्रकृति आंदोलित हो रही हो तो रमणी का कोमल हृदय क्यों न चंचल हो जाय ! विद्याधरी भी राजी हो गयी। रेशम की डोरियाँ कदम की डाल पर पड़ गयीं चंदन का पटरा रख दिया गया और मैं विद्याधरी के साथ झूला झूलने चली। जिस प्रकार ज्ञानसरोवर पवित्र जल से परिपूर्ण हो रहा है उसी भाँति हमारे हृदय पवित्र आनंद से परिपूर्ण थे। किन्तु शोक ! वह कदाचित् मेरे सौभाग्यचंद्र की अंतिम झलक थी। मैं झूले के पास पहुँच कर पटरे पर जा बैठी किंतु कोमलांगी विद्याधरी ऊपर न आ सकी। वह कई बार उचकी परंतु पटरे तक न आ सकी। तब मेरे पतिदेव ने सहारा देने के लिए उसकी बाँह पकड़ ली ! उस समय उनके नेत्रों में एक विचित्र तृष्णा की झलक थी और मुख पर एक विचित्र आतुरता। वह धीमे में मल्हार गा रहे थे किंतु विद्याधरी जब पटरे पर आयी तो उसका मुख डूबते हुए सूर्य की भाँति लाल हो रहा था नेत्र अरुणवर्ण हो रहे थे। उसने पतिदेव की ओर क्रोधोन्मत्त हो कर कहा:

“तूने काम के वश हो कर मेरे शरीर में हाथ लगाया है। मैं अपने पातिव्रत के बल से तुझे शाप देती हूँ कि तू इसी क्षण पशु हो जा।

यह कहते ही विद्याधरी ने अपने गले से रुद्राक्ष की माला निकाल कर मेरे पतिदेव के ऊपर फेंक दिया और तत्क्षण ही पटरे के समीप मेरे पतिदेव के स्थान पर एक विशाल सिंह दिखलायी दिया।

ऐ मुसाफिर! अपने प्रिय पति देवता की यह गति देखकर मेरा रक्त सूख गया और कलेजे पर बिजली-सी आ गिरी। मैं विद्याधरी के पैरों से लिपट गयी और फूट-फूट कर रोने लगी। उस समय अपनी आंखों से देखकर अनुभव हुआ कि पतिव्रत की महिमा कितनी प्रबल है। ऐसी घटनाएं मैंने पुराणों में पढ़ी थी परन्तु मुझे विश्वास न था कि वर्तमान काल में, जबकि स्त्री-पुरुष के संबंध में स्वार्थ की मात्रा दिनों-दिन अधिक होती जाती है, पतिव्रत धर्म में यह प्रभाव होगा, परन्तु यह नहीं कह सकती कि विद्याधरी के विचार कहां तक ठीक थे। मेरे पति विद्याधरी को सदैव बहिन कहकर संबोधित करते थे। यह अत्यन्त रूपवान थे और रूपवान पुरुष की स्त्री का जीवन कभी सुखमय नहीं होता, पर मुझे उन पर संशय करने का अक्सर कभी नहीं मिला। वह स्त्री-व्रत धर्म का वैसा ही पालन करते थे जैसे सती अपने धर्म का। उनकी दृष्टि में कुचेष्टा न थी और विचार अत्यंत उज्ज्वल और प्रतिज्ञ थे। यहां तक कि कालिदास की श्रृंगारमय कविता भी उन्हें प्रिय न थी, मगर काम के मर्मभेदी बाणों से कौन बचा है! जिस काम ने शिव, ब्रह्म, जैसे तपस्वियों की तपस्या भंग कर दी, जिस काम ने नारद और विश्वामित्र जैसे ऋषियों के माथे पर कलंक का टीका लगा दिया, वह काम सब कुछ कर सकता है। संभव है कि सुरापान ने उद्दीपक ऋतु के साथ मिलकर उनके चित्त को विचलित कर दिया हो। मेरा गुमान तो यह है कि यह विद्याधरी को केवल भ्रांति थी। जो कुछ भी हो, उसने शाप दे दिया। उस समय मेरे मन में भी उत्तेजना हुई कि जिस शक्ति का विद्याधरी को गर्व है, क्या वह शक्ति मुझमें नहीं है? क्या मैं पतिव्रत नहीं हूं। किन्तु हां! मैंने कितना ही चाहा कि शाप के शब्द मुंह से निकालूं, पर मेरी जवान बंद हो हो गयी। अखंड विश्वास जो विद्याधरी को अपने पतिव्रत पर था। मुझे न था? विमाता ने मेरे प्रतिकार के आवेग को शांत कर दिया। मैंने बड़ी दीनता के साथ कहा – ‘बहिन, तुमने यह क्या किया?’

विद्याधरी ने निर्दय होकर कहा – ‘मैंने कुछ नहीं किया। यह उसके कर्मों का फल है।’

मैं – ‘तुम्हें छोड़कर और किसी शरण जाऊं, क्या तुम इतनी दया न करोगी?’

विद्याधरी – ‘मेरे किये अब कुछ नहीं हो सकता।’

मैं – ‘देवी, तुम पति व्रतधारिणी हो, तुम्हारे वाक्य की महिमा अपार है। तुम्हारा क्रोध यदि मनुष्य को पशु बना सकता है, तो क्या तुम्हारी दया पशु से मनुष्य न बना सकेगी?’ ऐ मुसाफिर! मैं राजपूत की कन्या हूं। मैंने विद्याधरी से अधिक अनुबंध-विनय नहीं की। उसका हृदय दया का आगार था। यदि मैं उसके चरणों पर शीश रख देती तो कदाचित उसे मुझ पर दया आ जाती, किन्तु राजपूत की कन्या इतना अपमान नहीं सह सकती। वह घृणा के घाव सह सकती है, क्रोध की अग्नि सह सकती है, पर दया का बोझ उससे नहीं उठाया जाता। मैंने पटरे से उतरकर पतिदेव के चरणों पर सिर झुकाया और उन्हें साथ लिये दूर अपने मकान चली आयी।

कई महीने गुजर गये। मैं पतिदेव की सेवा-शुश्रूषा में तन-मन से व्यस्त रहती। यद्यपि उनकी जिह्वा वाणी विहीन हो गयी थी, पर उनकी आकृति से स्पष्ट प्रकट होता है कि वह अपने कर्म से लज्जित थे। यद्यपि उनका रूपांतर हो गया था, पर उन्हें मांस से अत्यंत घृणा थी। मेरी पशुशाला में सैकड़ों गायें-भैंसें थीं किन्तु शेरसिंह ने कभी किसी की ओर आंख उठाकर भी न देखा। मैं उन्हें दोनों बेला दूध पिलाती और संध्या समय उन्हें साथ लेकर पहाड़ियों की सैर कराती। मेरे मन में न जाने क्यों धैर्य और साहस का इतना संचार हो गया था कि मुझे अपनी दशा असह्य न जान पड़ती थी। मुझे निश्चय था कि शीघ्र ही इस विपत्ति का अंत भी होगा।

इन्हीं दिनों हरिद्वार में गंगा-स्नान का मेला लगा। मेरे नगर से यात्रियों का एक समूह हरिद्वार चला। मैं भी उनके साथ हो ली। दीन-दुखी जनों को दान देने के लिए रुपयों और अशर्फियों की थैलियां साथ ले लीं। मैं प्रायश्चित्त करने जा रही थी, इसलिए पैदल ही यात्रा करने का निश्चय कर लिया। लगभग एक महीने में हरिद्वार जा पहुंची। यहां भारतवर्ष के प्रत्येक प्रांत से असंख्य यात्री आये हुए थे। संन्यासियों और तपस्वियों की संख्या गृहस्थों से कुछ ही कम होगी। धर्मशालाओं में रहने का स्थान न मिलता था। गंगातट पर, पर्वतों की गोद में, मैदानों के वक्ष-स्थल पर, जहां देखिए आदमी-ही-आदमी नजर आते थे। दूर से वह छोटे-छोटे खिलौने की भांति दिखायी देते थे। मीलों तक आदमियों का फर्श-सा बिछा हुआ था। भजन और कीर्तन की ध्वनि नित्य कानों में आती रहती थी। हृदय में असीम शुद्धि गंगा की लहरों की भांति लहरें मारती थी। वहां का जल, वायु आकाश सब शुद्ध था।

मुझे हरिद्वार आये तीन दिन व्यतीत हुए थे। प्रभात का समय था। मैं गंगा में खड़ी स्नान कर रही थी। सहसा मेरी दृष्टि ऊपर की ओर उठी तो मैंने किसी आदमी को पुल की ओर झांकते देखा। अकस्मात् उस मनुष्य का पांव ऊपर उठ गया और सैकड़ों ही गज की ऊंचाई से गंगा में गिर पड़ा। सहस्रों आंखें यह दृश्य देख रही थीं पर किसी का साहस न हुआ कि उस अभागे मनुष्य की जान बचाये। भारतवर्ष के अतिरिक्त ऐसा संवेदना शून्य और देश होगा और यह वह देश है जहां परमार्थ मनुष्य का कर्तव्य बताया गया है। लोग बैठे हुए अपंगुओं की भांति तमाशा देख रहे थे। सभी हतबुद्धि से हो रहे थे। धारा प्रबल वेग से प्रवाहित थी और जल बर्फ से भी शीतल। मैंने देखा कि यह धारा के साथ बहता चला जाता था। यह हृदय-विदारक दृश्य मुझसे न देखा गया। मैं तैरने में अभ्यस्त थी। मैंने ईश्वर का नाम लिया और मन को दृढ़ करके धारा के साथ तैरने लगी। ज्यों-ज्यों मैं आगे बढ़ती थी। वह मनुष्य मुझसे दूर होता जाता था। यहां तक कि मेरे सारे अंग ठंड से शून्य हो गये।

मैंने कई बार चट्टानों को पकड़ कर दम लिया, कई बार पत्थरों से टकरायी। मेरे हाथ ही न उठते थे। सारा शरीर बर्फ का ढांचा-सा बना हुआ था। मेरे अंग गतिहीन हो गये कि मैं धारा के साथ बहने लगी और मुझे विश्वास हो गया कि गंगा माता के उदर ही में मेरी जल-समाधि होगी। अकस्मात् मैंने उस पुरुष की लाश को एक चट्टान पर रुकते देखा। मेरा हौसला बंध गया। शरीर में एक विचित्र स्फूर्ति का अनुभव हुआ। मैं जोर लगाकर प्राणपण से उस चट्टान पर जा पहुंची और उसका हाथ पकड़कर खींचा। मेरा कलेजा धक हो गया। यह श्रीधर पंडित थे।

ऐ मुसाफिर! मैंने यह काम प्राणों को हथेली पर रखकर पूरा किया। जिस समय मैं पंडित श्रीधर की अर्ध मृत देह लिए तट पर आयी तो सहस्रों मनुष्यों की जयध्वनि से आकाश गूंज उठा। कितने ही मनुष्यों ने चरणों पर सिर झुकाये। अभी लोग श्रीधर को होश में लाने के उपाय कर ही रहे थे कि विद्याधरी मेरे सामने आकर खड़ी हो गयी। उसका मुख, प्रभात के चंद्र की भांति कांतिहीन हो कहा था, होंठ सूखे हुए, बाल बिखरे हुए। आंखों से आंसुओं की झड़ी टूटी हुई थी। वह जोर से हांफ रही थी, दौड़कर मेरे पैरों से चिपट गयी, किन्तु दिल खोलकर नहीं, निर्मल भाव से नहीं। एक की आंखें गर्व से भरी हुई थी और दूसरे की ग्लानि से झुकी हुई। विद्याधरी के मुंह से बात न निकलती थी। केवल इतना बोली – ‘बहिन, ईश्वर तुमको इस सत्कार्य का फल दें।’