Shaap by Munshi Premchand
Shaap by Munshi Premchand

एक सप्ताह गुजर गया। विद्याधरी के चित्त की शांति और प्रसन्नता सुप्त हो गयी थी। यह शब्द कि राजी प्रियंवदा ने दिया है, प्रतिक्षण उसके कानों में गूंजा करते। वह अपने मन में धिक्कारती कि मैंने अपने प्राणधार से क्यों कपट किया। बहुधा रोया करती। एक दिन उसने सोचा कि क्यों न चलकर पति से सारा वृत्तांत सुना दूं। क्या वह मुझे क्षमा न करेंगे? यह सोचकर उठी किन्तु पति के सम्मुख जाते ही उसकी जबान बन्द हो गयी। वह अपने कमरे में आयी और फूट-फूटकर रोने लगी। कंगन पहनकर उसे बहुत आनंद आया था। इसी कंगन ने उसे हंसाया था, अब वही रुला रहा है।

विद्याधरी ने रानी के साथ बागों में सैर करना छोड़ दिया, चौपड़ और शतरंज उसके नाम को रोया करते। वह सारे दिन अपने कमरे में पड़ी रोया करती और सोचती कि क्या करूं। काले वस्त्र पर दाग छिप जाता है, किंतु उज्ज्वल वस्त्र पर कालिमा की एक बूंद भी झलकने लगती है। सोचती, इसी कंगन ने मेरा सुख हर लिया है, यही कंगन मुझे रक्त के आंसू रुला रहा है। सर्प जितना सुंदर होता है उतना ही विषाक्त भी होता है। यह सुंदर कंगन विषधर नाग है, मैं उसका सिर कुचल डालूंगी। यह निश्चय करके उसने एक दिन अपने कमरे में कोयले का अलाव जलाया, चारों तरफ से किवाड़ बंद कर दिए और उस कंगन को, जिसने उसके जीवन को संकटमय बना रखा था, संदूक से निकालकर आग में डाल दिया। एक दिन वह था कि कंगन उसे प्राणों से भी प्यारा था, उसे मखमली संदूक में रखती थी, आज उसे इतनी निर्दयता से आग में जला रही है।

विद्याधरी अलाव के सामने बैठी हुई थी इतने में पंक्ति श्रीधर ने द्वार खटखटाया। विद्याधरी को काटो तो लहू नहीं। उसने ठाकुर द्वार खोल दिया और सिर झुकाकर खड़ी हो गई। पंडितजी ने बड़े आश्चर्य से कमरे में निगाह दौड़ाई, पर रहस्य कुछ समझ में न आया। बोले कि किवाड़ बंद करके क्या हो रहा है? विद्याधरी ने उत्तर न दिया। तब पंडितजी ने छड़ी उठा ली और अलाव कुरेदा तो कंगन निकल आया। उसका पूर्णतः रूपांतर हो गया था न वह चमक थी, न वह रंग, न वह आकार। घबराकर बोले, ‘विद्याधरी तुम्हारी बुद्धि कहां है?’

विद्या – ‘भ्रष्ट हो गयी है।’

पंडित – इस कंगन ने तुम्हारा क्या बिगाड़ा था।’

विद्या – ‘इसने मेरे हृदय में आग लगा रखी है।’

पंडित – ‘ऐसी अमूल्य वस्तु मिट्टी में मिल गयी!’

विद्या – ‘इसने उससे भी अमूल्य वस्तु का अपहरण किया है।’

पंडित – ‘तुम्हारा सिर तो नहीं फिर गया है?’

विद्या – ‘शायद आपका अनुमान सत्य है।’

पंडित ने विद्याधरी की ओर चुभने वाली निगाहों से देखा। विद्याधरी की आंखें नीचे को झुक गयी। वह उनसे आंखें न मिला सकी। भय हुआ कि कहीं यह तीव्र दृष्टि मेरे हृदय में न चुभ जाये। पंडितजी कठोर स्वर में बोले – ‘विद्याधरी तुम्हें, स्पष्ट कहना होगा।’ विद्याधरी से अब न -का रुका गया वह रोने लगी और पंडितजी के सम्मुख धरती पर गिर पड़ी।

विद्याधरी को जब सुध आयी तो पंडितजी का कहीं पता न था। घबराई हुई बाहर के दीवान खाने में आयी, मगर यहां भी उन्हें न पाया। नौकरों से पूछा तो मालूम हुआ कि घोड़े पर सवार होकर ज्ञानसरोवर की ओर गये हैं। यह सुनकर विद्याधरी को कुछ ढाढस हुआ। वह द्वार पर खड़ी होकर उनकी राह देखती रही। दोपहर हुआ, सूर्य सिर पर आया, संध्या हुई, चिड़ियां बसेरा लेने लगी, फिर रात आयी, गगन में तारागण जगमगाने लगे, किन्तु विद्याधरी दीवार की भांति खड़ी पति का इंतजार करती रही। रात बीत गयी, वन-जंतुओं के भयानक शब्द कानों में आने लगे, सन्नाटा छा गया। सहसा उसे घोड़े के टापों की ध्वनि सुनाई दी। उसका हृदय फड़कने लगा। आनन्दोमत्त होकर द्वार के बाहर निकली, किंतु घोड़े पर सवार न था। विद्याधरी को अब विश्वास हो गया कि अब पतिदेव के दर्शन न होंगे। या तो उन्होंने संन्यास ले लिया या आत्मघात कर लिया। उसके कंठ से नैराश्य और विषाद में डूबी हुई ठंडी सांस निकली। वहीं भूमि पर बैठ गयी और सारी रात खून के आंसू बहाती रही। जब उषा की निद्रा भंग हुई और पक्षी आनंदगान गाने लगे, तब वह दुखिया उठी और अन्दर जाकर लेट रही।

जिस प्रकार सूर्य का ताप जल को सोख लेता है, उसी भांति शोक के ताप ने विद्याधरी का रक्त जला दिया। मुख से ठंडी सांस निकलती थी, आंखों से गर्म आंसू बहते थे। भोजन से अरुचि हो गयी और जीवन से घृणा। इसी अवस्था में विद्याधरी की आंखें रक्तवर्ण हो गयी, क्रोध से ओठ कांपने लगे, झल्लाई हुई नागिन की भांति फुफकार कर उठी और राजा के सम्मुख आकर कर्कशा स्वर में बोली, पापी, यह आग तेरी ही लगायी हुई है। यदि मुझमें अब भी कुछ सत्य है, तो तुझे धृष्टता के कड़ुवे फल मिलेंगे। ये तीर के-से शब्द राजा के हृदय में चुभ गये। मुंह से एक शब्द भी न निकला। काल को डराने वाला राजपूत एक स्त्री की आग्नेय दृष्टि से कांप उठा।

एक वर्ष बीत गया। हिमालय पर मनोहर हरियाली छायी, फूलों ने पर्वत की गोद में क्रीड़ा करनी शुरू की। यह ऋतु बीती, जल-थल ने बर्फ की सफेद चादर ओढ़ी, जलपक्षियों की मालाएं मैदानों की ओर उड़ती हुई दिखाई देने लगी। यह मौसम भी गुजरा। नदी-नाली में दूध की धारें बहने लगी। चंद्रमा की स्वच्छ निर्मल ज्योति ज्ञानसरोवर में थिरकने लगी परंतु पंडित श्रीधर की कुछ टोह न लगी। उस दुखिया की दशा कितनी करुणा-जनक थी। उसे देखकर मेरी आंखें भर आती थीं। वह मेरी प्यारी सखी थी। उसकी संगत में मेरे जीवन के कई वर्ष आनंद से व्यतीत हुए थे। उसका यह अपार दुःख देखकर मैं अपना दुःख भूल गई। एक दिन वह था कि उसने अपने पतिव्रत के बल पर मनुष्य को पशु के रूप में परिणत कर दिया था, और आज यह दिन है कि उसका पति भी उसे त्याग रहा है। किसी स्त्री के हृदय पर इससे अधिक लज्जाजनक, इससे अधिक प्राणधातक आघात नहीं लग सकता। उसकी तपस्या ने मेरे हृदय में फिर उसी सम्मान के पद पर बिठा दिया। उसके सतीत्व पर फिर मेरी श्रद्धा हो गयी, किन्तु उससे कुछ पूछते, सांत्वना देते मुझे संकोच होता था। मैं डरती थी कि कहीं विद्याधरी यह न समझे कि मैं उससे बदला ले रही हूं। कई महीनों के बाद जब विद्याधरी ने अपने हृदय का बोझ हलका करने के लिए स्वयं मुझसे यह वृत्तांत कहा तो मुझे ज्ञात हुआ कि यह सब कांटे राजा रणधीर सिंह के बोये हुए थे। उन्हीं की प्रेरणा से रानी जी ने पंडितजी के साथ जाने से रोका। उसके स्वभाव ने जो कुछ रंग बदला वह रानी जी की ही कुसंगति का फल था। उन्हीं की देखा-देखी उसे बनाव श्रृंगार की चाट पड़ी, उन्हीं के मना करने से उसने कंगन का भेद-पंडित जी से छिपाया। ऐसी घटनाएं स्त्रियों के जीवन में नित्य होती रहती हैं और उन्हें जरा भी शंका नहीं होती। विद्याधरी का पतिव्रत आदर्श था। इसलिए यह विचलता उसके हृदय में चुभने लगी। मैं यह नहीं कहती कि विद्याधरी कर्त्तव्यपथ से विचलित नहीं हुई, चाहे किसी के बहकाने से, चाहे अपने भोलेपन से, उसने कर्त्तव्य का सीधा रास्ता छोड़ दिया, परंतु पाप-कल्पना उसके दिल के कोसो दूर थी।

ऐ मुसाफिर! मैंने पंडित श्रीधर का पता लगाना शुरू किया। मैं उनकी मनोवृत्ति से परिचित थी। वह श्रीरामचंद्र के भक्त थे। कौशलपुरी की पवित्र भूमि और सरयू नदी के रमणीक तट उनके जीवन के सुख-स्वप्न थे। मुझे ख्याल आया कि सम्भव है, उन्होंने अयोध्या की राह ली हो। कहीं मेरे प्रयत्न से उनकी खोज मिल जाती और मैं उसे लाकर विद्याधरी के गले से मिला देती, तो मेरा जीवन सफल हो जाता। इस विरहिणी ने बहुत दुःख झेले हैं। क्या अब भी देवताओं को उस पर दया न आएगा। एक दिन मैंने शेर सिंह से कहा और पांच विश्वस्त मनुष्यों के साथ अयोध्या को चली। पहाड़ों से नीचे उतरते ही रेल मिल गई। उसने हमारी यात्रा सुलभ कर दी। बीसवां दिन मैं अयोध्या पहुंच गई और धर्मशाला में ठहरी। फिर सरयू में स्नान करके श्रीरामचंद्र के दर्शन को चली। मंदिर के आंगन में पहुंची ही थी कि पंडित श्रीधर की सौम्यमूर्ति दिखाई दी। वह एक आसन पर बैठे हुए रामायण का पाठ कर रहे थे। और सहस्र नर-नारी बैठे हुए उनकी अमृतवाणी का आनंद उठा रहे थे।

पंडितजी की दृष्टि मुझ पर ज्यों ही पड़ी, वह आसन से उठकर मेरे पास आए और बड़े प्रेम से मेरा स्वागत किया। दो-ढाई घंटे तक उन्होंने मुझे उस मंदिर की सैर कराई। मंदिर के छत पर से सारा नगर शतरंज के बिसात की भांति मेरे पैरों के नीचे फैला हुआ दिखाई देता था। मंदगामिनि वायु सरयू की तरंगों को धीरे-धीरे थपकियां दे रही थी। ऐसा जान पड़ता था मानो स्नेहमयी माता ने इस नगर को अपनी गोद में ले लिया हो। यहां से जब अपने डेरे को चली तब पंडित जी भी मेरे साथ आए। जब वह इत्मीनान से बैठे तो मैंने कहा – ‘आपने तो हम लोगों से नाता ही तोड़ लिया।’

पंडितजी ने दुखित होकर कहा – ‘विधाता की यही इच्छा थी। मेरा क्या वश था। अब तो श्रीरामचंद्र की शरण में आ गया हूं और शेष जीवन उन्हीं की सेवा में भेंट होगा।’

मैं – ‘आप तो श्रीरामचंद्र की शरण में आ गए है, उस अबला विद्याधरी को किसकी शरण में छोड़ दिया है?’

पंडित – ‘आपके मुख से ये सब शोभा नहीं देते।’

मैंने उतर दिया – ‘विद्याधरी को मेरी सिफारिश की आवश्यकता नहीं है। अगर आपने उसके पतिव्रत पर संदेह किया है तो आपसे ऐसा भीषण पाप हुआ है, जिसका प्रायश्चित आप बार-बार जन्म लेकर भी नहीं कर सकते। आपकी यह भक्ति इस अधर्म का निवारण नहीं कर सकती। आप क्या जानते है कि आपके वियोग में उस दुखिया का जीवन कैसे कट रहा है।’

किन्तु पंडितजी ने ऐसा मुंह बना लिया, मानों इस विषय में वह अंतिम शब्द कह चुके। किन्तु मैं इतनी आसानी से उनका पीछा क्यों छोड़ने लगी। मैंने सारी कथा आद्योपांत सुनाई और रणधीर सिंह की कपट नीति का रहस्य खोल दिया तब पंडितजी की आंखें खुली। मैं वाणी में कुशल हूं किन्तु उस समय सत्य और न्याय के पक्ष ने मेरे शब्दों को बहुत ही प्रभावशाली बना दिया था। ऐसा जान पड़ता था, मानो मेरी जिह्वा पर सरस्वती विराजमान हों। अब वह बातें याद आती हैं तो मुझे स्वयं आश्चर्य होता है। आखिर विजय मेरे ही साथ रही। पंडितजी मेरे साथ चलने पर उद्यत हो गए।

यहां आकर मैंने शेरसिंह को यहीं छोड़ा और पंडितजी के साथ अर्जुन नगर को चली। हम दोनों अपने विद्या में मग्न थे। पंडितजी की गर्दन शर्म से झुकी हुई थी क्योंकि अब उनकी हैसियत रूठने वालों की भांति नहीं, बल्कि मनाने वालों की तरह थी।

आज प्रणय के सूखे हुए धान में फिर पानी पड़ेगा, प्रेम की सूखी हुई नदी फिर उमड़ेगी! जब हम विद्याधरी के द्वार पर पहुंचे तो दिन चढ़ आया था। पंडितजी बाहर ही रुक गए थे। मैंने भीतर जाकर देखा तो विद्याधरी पूजा पर थी। किन्तु यह किसी देवता की पूजा न थी। देवता के स्थान पर पंडित की खड़ाऊं रखी हुई थी। पतिव्रत का यह अलौकिक दृश्य देखकर मेरा हृदय पुलकित हो गया। मैंने दौड़कर विद्याधरी के चरणों पर सिर झुका दिया। उसका शरीर सूखकर कांटा हो गया था और शोक ने कमर झुका दी थी।

विद्याधरी ने मुझे उठाकर छाती से लगा लिया और बोली – ‘बहन, मुझे लज्जित न करो। खूब आई, बहुत दिनों से जी तुम्हें देखने के तरस रहा था।’

मैंने उत्तर दिया – ‘जरा अयोध्या चली गई थी। जब हम दोनों अपने देश में थीं तो जब मैं कहीं जाती तो विद्याधरी के लिए कोई-न-कोई उपहार अवश्य लाती। उसे वह बात याद आ गई। सजल-नयन होकर बोली – ‘मेरे लिए भी कुछ लाई।’

मैं – ‘एक बहुत अच्छी वस्तु लाई हूं।’

विद्या – ‘क्या है, देखूं?’

मैं – ‘पहले बुुझाओ।’

विद्या – ‘सुहाग की पिटारी होगी।’

मैं – ‘नहीं उससे अच्छी।’

विद्या – ‘मेरे प्राणाधार का कोई समाचार?’

मैं – ‘उससे भी अच्छी।’

विद्याधरी प्रबल आवेश से व्याकुल होकर उठी कि द्वार पर जाकर पति का स्वागत करे, किन्तु निर्बलता ने मन की अभिलाषा न निकलने दी। तीन बार संभली ओर तीन बार गिरी, तब मैंने उसका सिर अपनी गोद में रख लिया और आंचल से हवा करने लगी। उसका हृदय बड़े वेग से धड़क रहा था और पति दर्शन का आनंद आंखों से बह निकलता था।

जब जरा चित्त शांत हुआ तो उसने कहा, – ‘उन्हें बुला लो, उनका दर्शन मुझे रामबाण हो जाएगा।’

ऐसा ही हुआ। ज्यों ही पंडितजी अंदर आए- विद्याधरी उठकर उनके पैरों से लिपट गई। देवी ने बहुत दिनों के बाद पति के दर्शन पाए हैं। अश्रुधारा से उनके पैर पखार रही है। मैंने यहां ठहरना उचित न समझा। इन दो प्राणियों के हृदय में कितनी ही बातें आ रही होंगी, दोनों क्या-क्या कहना और क्या-क्या सुनना चाहते होंगे, इस विचार से मैं उठ खड़ी हुई और बोली – ‘बहन, अब मैं जाती हूं शाम को फिर आऊंगी। विद्याधरी ने मेरी ओर आंखें उठाई। पुतलियों के स्थान पर हृदय रखा हुआ था। दोनों आंखें आकाश की ओर उठाकर बोली – ‘ईश्वर तुम्हें इस यश का फल दे।’

ऐ मुसाफिर! मैंने दो बार पंडित श्रीधर को मौत के मुंह से बचाया था किंतु आज का सा आनन्द कभी न प्राप्त हुआ था।

जब मैं ज्ञानसरोवर पर पहुंची तो दोपहर हो आया था। विद्याधरी की शुभकामना मुझसे पहले ही पहुंच चुकी थी। मैंने देखा कि कोई पुरुष गुफा से निकल कर ज्ञानसरोवर की ओर चला जाता है। मुझे आश्चर्य हुआ कि इस समय यहां कौन आया। लेकिन जब समीप आ गया तो मेरे हृदय में ऐसी तरंगें उठने लगी मानो छाती से बाहर निकल पड़ेगा। यह मेरे प्राणेश्वर, मेरे पतिदेव थे। मैं चरणों पर गिरना ही चाहती थी कि उनका कर-पाश मेरे गले में पड़ गया।

पूरे दस वर्षों के बाद मुझे यह शुभ दिन देखना नसीब हुआ। मुझे उस समय ऐसा जान पड़ता था कि ज्ञानसरोवर के कमल मेरे ही लिए खिले हैं। गिरिराज ने मेरे लिए ही फूला की शय्या दी है, हवा मेरे लिए झूमती हुई आ रही है।

दस वर्ष के बाद मेरा उजड़ा हुआ घर बसा, गए हुए दिन लौटे। मेरे आनंद का अनुमान कौन कर सकता है।

मेरे पतिदेव ने प्रेम-करुणा-भरी आंखों से देखकर कहा, ‘प्रियंवदा’?