रायसाहब के इजलास में एक बड़े मार्के का मुकदमा पेश था। शहर का एक रईस खून के मामले में फंस गया था। उसकी जमानत लेने के लिए रायसाहब की खुशामदें होने लगी। इज्जत की बात थी। रईस साहब का हुक्म था कि चाहे रियासत बिक जाए, पर इस मुकदमें से बेदाग निकल जाऊँ। डालियाँ लगायी गई, सिफारिशें पहुँचाई गई, पर रायसाहब पर कोई असर न हुआ। रईस के आदमियों की प्रत्यक्ष रूप से रिश्वत की चर्चा करने की हिम्मत न पड़ती थी। आखिर जब कोई बस न चला, तो रईस की स्त्री ने रायसाहब की स्त्री से मिलकर सौदा पटाने की ठानी। रात के 10 बजे थे। दोनों महिलाओं में बातें होने लगी। 20 हजार की बातचीत थी। रायसाहब की पत्नी तो इतनी खुश हुई कि उसी वक्त रायसाहब के पास दौड़ी हुई आयीं और कहने लगीं- ले लो! तुम न लोगे, तो मैं ले लूंगी।
रायसाहब ने कहा- इतनी बेसब्र न हो। वह तुम्हें अपने दिल में क्या समझेंगी? अपनी इज्जत का भी खयाल है या नहीं? माना कि रकम बड़ी है और इससे मैं एकबारगी तुम्हारी आये दिन की फरमाइशों से मुक्त हो जाऊंगा, लेकिन एक सिविलियन की इज्जत भी तो कोई मामूली चीज नहीं है। तुम्हें पहले बिगड़ कर कहना चाहिए था कि मुझसे ऐसी बेहूदा बातचीत करनी हो, तो यहाँ से चली जाओ। मैं अपने कानों से नहीं सुनना चाहती।
स्त्री- यह तो मैंने पहले ही किया, बिगड़ कर खूब खरी- खोटी सुनाई। क्या इतना भी नहीं जानती! बेचारी मेरे पैरों पर सर रखकर रोने लगी।
रायसाहब- क्या कहा था कि रायसाहब से कहूंगी, तो मुझे कच्चा ही चबा जाएंगे?
यह कहते हुए रायसाहब ने गदगद होकर पत्नी को गले लगा लिया।
स्त्री- अजी, मैं न जाने ऐसी कितनी बातें कह चुकी, लेकिन किसी तरह टाले न टलती। रो-रोकर जान दे रही है।
रायसाहब – वादा तो नहीं कर दिया।
स्त्री – वादा, मैं तो रुपये लेकर संदूक में रख आयी। नोट थे।
रायसाहब कितनी जबरदस्त अहमक हो। न मालूम ईश्वर तुम्हें कभी समझ भी देगा या नहीं।
स्त्री- अब क्या देगा? देना होता, तो दे न दी होती?
राय साहब—हाँ मालूम तो ऐसा ही होता है। मुझसे कहा तक नहीं और रुपये लेकर सन्दूक में दाखिल कर लिए ! अगर किसी तरह बात खुल जाय, तो कहीं का न रहूँ।
स्त्री—तो भाई, सोच लो। अगर कुछ गड़बड़ हो, तो मैं जाकर रुपये लौटा दूँ।
रायसाहब-फिर वही हिमाकत? अरे, अब तो जो कुछ होना था, हो चुका। ईश्वर पर भरोसा करके जमानत लेनी पड़ेगी।लेकिन तुम्हारी हिमाक़त में शक नहीं। जानती हो, यह सांप के मुंह में उंगली डालना है। यह भी जानती हो कि मुझे ऐसी बालों से कितनी नफरत है, फिर भी बेसब्र हो जाती हो। अब की बार तुम्हारी हिमाक़त से मेरा व्रत टूट रहा है। मैंने दिल में ठान लिया था कि अब इस मामले में हाथ न डालूंगा, लेकिन तुम्हारी हिमाक़त के मारे जब मेरी कुछ चलने भी पाए।
स्त्री- मैं जाकर लौटाएं देती हूँ।
रायसाहब- और मैं जाकर जहर खा लेता हूँ।
इधर तो स्त्री-पुरूष में यह अभिनय हो रहा था, उधर दमड़ी उसी वक्त अपने गांव के मुखिया के खेत में ज्वार काट रहा था। आज वह रात भर की छुट्टी लेकर घर गया था। बैलों के लिए चारे का एक तिनका भी नहीं है। अभी वेतन मिलने में कई दिन की देर थी, मोल ले न सकता था। घरवालों ने दिन को कुछ घास छीलकर खिलायी तो थी, लेकिन वह ऊंट के मुंह में जीरा। इतनी घास से क्या हो सकता था। दोनों बैल भूखे खड़े थे। दमड़ी को देखते ही दोनों पूंछ खड़ी करके पुकारने लगे। जब वह पास गया, तो दोनों उसकी हथेलियां चाटने लगे। बेचारा दमड़ी मन मसोस कर रह गया। सोचा, इस काल सो कुछ हो नहीं सकता, सवेरे किसी से कुछ उधार लेकर चारा लाऊंगा।
लेकिन जब 11 बजे रात उसकी आंखें खुली, तो देखा कि दोनों बैल अभी तक नांद पर खड़े हैं। चाँदनी रात थी, दमड़ी को लगा कि दोनों उसकी ओर अपेक्षा और आशा की दृष्टि से देख रहे हैं। उनकी सुधा-वेदना देखकर उसकी आंखें सजल हो गयी। किसान को अपने बैल अपने लड़कों की तरह प्यारे होते हैं। वह वह उन्हें अपना मित्र और सहायक समझता है। बैलों को भूखे खड़े नींद भाग गई। कुछ सोचता हुआ हंसिया निकाली और चारे की फिक्र में चला।
गाँव के बाहर बाजरे और जुआर के खेत खड़े थे। दमड़ी के हाथ कांपने लगे। लेकिन बैलों की याद में उसे उत्तेजित कर दिया। चाहता तो कई बोझ काट सकता था, लेकिन वह चोरी करते हुए भी चोर न था। उसने केवल इतना ही चारा काटा, जितना बैलों को रात भर के लिए काफी होता अगर किसी ने देख भी लिया तो उससे कह दूंगा, बैल भूखे थे, इसलिए काट लिया। उसे विश्वास था कि इतने-से चारे के लिए कोई मुझे पकड़ नहीं सकता। मैं कुछ बेचने के लिए तो काट नहीं रहा फिर इतना निर्दयी कौन है, जो मुझे पकड़ ले! बहुत करेगा, अपने दाम ले लेगा। उसने बहुत सोचा। चोरी का थोड़ा हिस्सा ही उसे चोरी के अपराध से बचाने को काफी था। चोर उतना काटता, जितना उससे उठ सकता। उसे किसी के फायदे और नुकसान से क्या मतलब! गाँव के लोग दमड़ी को चारा लिये जाते देखकर बिगड़ते जरुर, पर कोई चोरी के इल्जाम में न फँसाता, लेकिन संयोग से हलके के थाने का सिपाही उधर जा निकला। वह पड़ोस में एक बनिए के यहां जुआ होने की खबर पाकर कुछ ऐंठने की टोह में आया था। दमड़ी को चारा सिर पर उठाते देखा, तो संदेह हुआ। इतनी रात गए कौन चारा काट रहा है? कोई चोरी से काट रहा है। डांटकर बोला-कौन चारा लिये जाता है? खड़ा रह! दमड़ी ने चौंक कर पीछे देखा, तो पुलिस का सिपाही! हाथ-पांव फूल गए, काँपते हुए बोला- हुजूर, थोड़ा ही-सा काटा है, देख लीजिए।
सिपाही- थोड़ा काटा हो या बहुत, है तो चोरी। खेत किसका है?
दमड़ी -बलदेव महतो का!
सिपाही ने समझा था, शिकार फंसा, इससे कुछ ऐठूंगा, लेकिन वहां क्या रखा था। पकड़कर गांव में लाया, और जब यहाँ भी कुछ हत्थे चढ़ता न दिखाई दिया तो थाने ले गया। थानेदार ने चालान कर दिया। मुकदमा रायसाहब ही के इजलास में पेश किया।
रायसाहब ने दमड़ी को फंसे हुए देखा, तो हमदर्दी के बदले कठोरता से काम लिया। बोले-यह मेरी बदनामी की बात है। तेरा क्या बिगड़ा, साल-छह महीने की सजा हो जाएगी, शर्मिंदा तो मुझे होना पड़ रहा है। लोग यही तो कहते होंगे कि रायसाहब के आदमी ऐसे बदमाश और चोर हैं। तू मेरा नौकर न होता, तो मैं हलकी सजा देता, लेकिन तू मेरा नौकर है, इसलिए कड़ी-से-कड़ी सजा दूंगा। मैं यह कहीं सुन सकता कि रायसाहब ने अपने नौकर के साथ रियायत की। यह कहकर रायसाहब ने दमड़ी को छह महीने की सख्त कैद का हुक्म सुना दिया।
उसी दिन उन्होंने खून के मुकदमें में जमानत ले ली।
मैंने दोनों वृत्तांत सुने, और दिल में यह ख्याल और भी पक्का हो गया कि सभ्यता केवल हुनर के साथ ऐब करने का नाम है। आप बुरे से बुरा करें, लेकिन अगर आप उस पर परदा डाल सकते हैं, तो आप सभ्य हैं, जेण्टिलमैन हैं। अगर आप में यह सिफत नहीं, तो आप असभ्य हैं, गँवार हैं, बदमाश हैं। यही सभ्यता का रहस्य है।
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