naya vivaah by munshi premchand
naya vivaah by munshi premchand

हमारी देह पुरानी है, लेकिन इसमें सदैव नया रक्त दौड़ता रहता है। नए रक्त के प्रवाह पर ही हमारे जीवन का आधार है। पृथ्वी की इस चिरन्तन व्यवस्था में यह नयापन उसके एक-एक अणु में, एक-एक कण में, तार में बसे हुए स्वरों की भांति गूँजता रहता है, और यह सौ साल की बुढ़िया आज भी नवेली दुल्हन बनी हुई है।

जब से लाला डंगामल ने नया विवाह किया है, उनका यौवन नए सिरे से जाग उठा है। जब पहली स्त्री जीवित थी, तब वे घर में बहुत कम रहते थे। प्रात: से दस-ग्यारह बजे तक तो पूजा-पाठ ही करते रहते थे। फिर भोजन करके दुकान चले जाते। वहाँ से एक बजे रात को लौटते और थके-मांदे सो जाते। यदि लीला कभी कहती, जरा और सवेरे आ जाया करो, तो बिगड़ जाते और कहते-तुम्हारे लिए क्या दुकान छोड़ दूँ या रोजगार बंद कर दूँ? यह वह जमाना नहीं है कि एक लोटा जल चढ़ाकर लक्ष्मी प्रसन्न कर ली जाएँ। आज उनकी चौखट पर माथा रगड़ना पड़ता है, तब भी उनका मुँह सीधा नहीं होता। लीला बेचारी चुप हो जाती।

अभी छह महीने की बात है। लीला को ज्वर चढ़ा हुआ था। लालाजी दुकान जाने लगे, तब उसने डरते-डरते कहा था- ‘देखो, मेरा जी अच्छा नहीं है। जरा सवेरे आ जाना।’

डंगामल ने पगड़ी उतारकर खूँटी पर लटका दी और बोले- ‘अगर मेरे बैठे रहने से तुम्हारा जी अच्छा हो जाए, तो मैं दुकान न जाऊंगा।’

लीला हताश होकर बोली- ‘मैं दुकान जाने को तो नहीं मना करती। केवल जरा सवेरे आने को कहती हूँ।’

‘तो क्या मैं दुकान पर बैठा मौज किया करता हूँ?’

लीला इसका क्या जवाब देती? पति का यह स्नेहहीन व्यवहार उसके लिए कोई नई बात न थी। इधर कई साल से उसे इसका कठोर अनुभव हो रहा था कि उसकी इस घर में कद्र नहीं है। वह अकसर इस समस्या पर विचार भी किया करती, पर वह अपना कोई अपराध न पाती। वह पति की सेवा अब पहले से कहीं ज्यादा करती, उनके कार्य-भार को हलका करने की बराबर चेष्टा करती रहती, बराबर प्रसन्नचित्त रहती, कभी उनकी इच्छा के विरुद्ध कोई काम नहीं करती। अगर उसकी जवानी ढल चुकी थी, तो इसमें उसका क्या अपराध था? किसकी जवानी सदैव स्थिर रहती है? अगर अब उसका स्वास्थ्य उतना अच्छा न था तो इसमें उसका क्या दोष? उसे बेकसूर क्यों दण्ड दिया जाता है?

उचित तो यह था कि 25 साल का साहचर्य अब एक गहरी मानसिक और अध्यात्मिक अनुरूपता का रूप धारण कर लेता, जो दोष को भी गुण बना लेता है, जो पके फल की तरह ज्यादा रसीला, ज्यादा मीठा, ज्यादा सुन्दर हो जाता है। लेकिन लालाजी का वाणिज्य-हृदय हर एक पदार्थ को वाणिज्य की तराजू से तौलता था। बूढ़ी गाय जब न दूध दे सकती है न बच्चे, तब उसके लिए गोशाला ही सबसे अच्छी जगह है। उनके विचार में लीला के लिए इतना ही काफी था कि घर की मालकिन बनी रहे, आराम से खाए और पड़ी रहे। उसे अख्तियार है चाहे जितने जेवर बनवाए, चाहे जितना स्नान व पूजा करे, केवल उनसे दूर रहे। मानव-प्रकृति की जटिलता का एक रहस्य यह था कि डंगामल जिस आनंद से लीला को वंचित रखना चाहते थे, जिसकी उसके लिए कोई जरूरत ही न समझते थे, खुद उसी के लिए सदैव प्रयत्न करते रहते थे। लीला 40 वर्ष की होकर ही बूढ़ी समझ ली गई थी, किन्तु वे तैंतालीस के होकर अभी जवान ही थे, जवानी के उन्माद और उल्लास से भरे हुए। लीला से अब उन्हें एक तरह की अरुचि होती थी और वह दुखिया जब अपनी त्रुटियों का अनुभव करके प्रकृति के निर्दय आघातों से बचने के लिए रंग व रोगन की आड़ लेती, तब लालाजी उसके बूढ़े नखरों से और भी घृणा करने लगते। वे कहते-वाह री तृष्णा! सात लड़कों की तो माँ हो गई, बाल खिचड़ी हो गए, चेहरा धुले हुए फलालैन की तरह सिकुड़ गया, अगर आपको अभी महावर, सिंदूर, मेंहदी और उबटन की हवस बाकी ही है। औरतों का स्वभाव भी कितना विचित्र है। न जाने क्यों बनाव-सिंगार पर इतना जान देती हैं? पूछो, अब तुम्हें और क्या चाहिए? क्यों नहीं मन को समझा लेती कि जवानी विदा हो गई और इन उपादानों से वह वापस नहीं बुलाई जा सकती। लेकिन वे खुद जवानी का स्वप्न देखते रहते थे। उनकी जवानी की तृष्णा अभी शान्त न हुई थी। जाड़ों में रसों और पाको का सेवन करते रहते थे। हफ्ते में दो बार खिजाब लगाते और एक डॉक्टर से मकीग्लैंड के विषय में पत्र-व्यवहार कर रहे थे।

लीला ने उन्हें असमंजस में देखकर कातर-स्वर में पूछा- ‘कुछ बतला सकते हो, कितने बजे आओगे?’

लालाजी ने शान्त भाव से पूछा- ‘तुम्हारा जी आज कैसा है?’

लीला क्या जवाब दे? अगर कहती है कि बहुत खराब है, तो शायद ये महाशय वहीं बैठ जाएँ और उसे जली-कटी सुनाकर अपने दिल का बुखार निकालें। अगर कहती है कि अच्छी हूँ तो शायद निश्चिंत होकर दो बजे तक कहीं खबर लें। इस दुविधा में डरते-डरते बोली- ‘अब तक तो हलकी थी लेकिन अब कुछ भारी हो रहा है। तुम जाओ, दुकान पर लोग तुम्हारी राह देखते होंगे। हां, ईश्वर के लिए एक-दो न बजा देना। लड़के सो जाते हैं, मुझे जरा भी अच्छा नहीं लगता, जी घबराता है।

सेठजी ने अपने स्वर में स्नेह की चाशनी देकर कहा- ‘बारह बजे तक आ जाऊंगा जरूर।’

लीला का मुख धूमिल हो गया। उसने कहा- ‘दस बजे तक नहीं आ सकते?’ ‘साढ़े ग्यारह से पहले किसी तरह नहीं।’

‘नहीं साढ़े दस।’

‘ अच्छा, ग्यारह बजे।’

लालाजी वादा करके चले गए, लेकिन दस बजे रात को एक मित्र ने मुजरा सुनने के लिए बुला भेजा। इस निमन्त्रण को कैसे इनकार कर देते? जब एक आदमी आपको खातिर से बुलाता है, तब यह कहीं की भलमनसाहत है कि आप उसका निमन्त्रण अस्वीकार कर दें?

लालाजी मुजरा सुनने चले गए, दो बजे लौटे। चुपके से आकर नौकर को जगाया और अपने कमरे में आकर लेट रहे। लीला उनकी राह देखती, प्रतिक्षण विकल वेदना का अनुभव करती हुई न जाने कब सो गई थी।

अन्त में इस बीमारी ने अभागिनी लीला की जान ही लेकर छोड़ी। लालाजी को उसके मरने का बड़ा दुःख हुआ। मित्रों ने संवेदना के तार भेजे। एक दैनिक पत्र ने शोक प्रकट करते हुए लीला के मानसिक और धार्मिक सद्गुणों का खूब बढ़ाकर वर्णन किया। लालाजी ने इन सभी मित्रों का हार्दिक धन्यवाद दिया और लीला के नाम से बालिका-विद्यालय में पाँच वजीफ़े प्रदान किए तथा मृतक-भोज तो जितने समारोह से किया गया, वह नगर के इतिहास में बहुत दिनों तक याद रहेगा।

लेकिन एक महीना भी न गुजरने पाया था कि लालाजी के मित्रों ने चारा डालना शुरू कर दिया और उसका यह असर हुआ कि छह महीने की विधुरता के तय के बाद उन्होंने दूसरा विवाह कर लिया। आखिर बेचारे क्या करते? जीवन में एक सहचरी की आवश्यकता तो थी ही, और इस उम्र में तो एक तरह से वह अनिवार्य हो गई थी।

जब से लालाजी की नई पत्नी आयी, लालाजी के जीवन में आश्चर्यजनक परिवर्तन हो गया। दुकान से अब उतना प्रेम नहीं था। लगातार हफ्तों न जाने से भी उनके कारोबार में कोई हर्ज नहीं होता था। जीवन के उपभोग की जो शक्ति दिन-दिन क्षीण होती जाती थी, अब वह छींटे पाकर सजीव हो गई थी, सूखा पेड़ हरा हो गया था, उसमें नई-नई कोपलें छाने लगी थीं। मोटर नई आ गई था, कमरे नए फर्नीचर से सजा दिए गए थे, नौकरों की भी संख्या बढ़ गई थी, रेडियो आ पहुँचा था और प्रतिदिन नए-नए उपहार आते रहते थे। लालाजी की बूढ़ी जवानी, जवानों की जवानी से भी प्रखर हो गई थी, उसी तरह, जैसे बिजली का प्रकाश चन्द्रमा के प्रकाश से ज्यादा स्वच्छ और मनोरंजक होता है। लालाजी को उनके मित्र इस रूपान्तर पर बधाइयाँ देते, तब वे गर्व के साथ कहते- ‘भई, हम तो हमेशा जवान रहे और हमेशा जवान रहेंगे। बुढ़ापा यहाँ आये तो उसके मुँह में कालिख लगाकर गधे पर उलटा सवार कराके शहर से निकाल दें। जवानी और बुढ़ापे को न जाने क्यों लोग अवस्था से सम्बद्ध कर देते हैं। जवानी का उम्र से उतना ही संबंध है, जितना धर्म का आचार से, रुपए का ईमानदारी से, रूप का श्रृंगार से। आजकल के जवानों को आप जवान कहते हैं? उनकी एक हजार जवानियों को अपने एक घंटे से भी न बदलूंगा। मालूम होता है, उनकी जिन्दगी में कोई उत्साह ही नहीं, कोई शौक नहीं। जीवन क्या है, गले में पड़ा हुआ एक ढोल है।

यही शब्द घटा-बढ़ाकर वे आशा के हृदय-पटल पर अंकित करते रहते थे। उससे बराबर सिनेमा, थियेटर और दरिया की सैर के लिए आग्रह करते रहते। लेकिन आशा को न जाने क्यों इन बातों में जरा भी रुचि न थी। वह जाती तो थी, मगर बहुत टाल-मटोल करने के बाद। एक दिन लालाजी ने आकर कहा- ‘चलो, आज बजरे पर दरिया की सैर करें।’

वर्षा के दिन थे, दरिया चढ़ा हुआ था, मेघ-मालाएँ अन्तर्राष्ट्रीय सेनाओं की भांति रंग-बिरंगी वर्दियाँ पहने आकाश में कवायद कर रही थी। सड़क पर लोग मलार और बारहमासा गाते चलते थे। बागों में झूले पड़ गए थे।

आशा ने बेदिली से कहा- ‘मेरा जी तो नहीं चाहता।’

लालाजी ने मृदु प्रेरणा के साथ कहा- ‘तुम्हारा मन कैसा है, जो आमोद- प्रमोद की ओर आकर्षित नहीं होता? चलो, जरा दरिया की सैर देखो। सच कहता हूँ बजरे पर बड़ी बहार रहेगी।’

‘आप जाएं, मुझे और कई काम करने हैं।’

‘काम करने को आदमी हैं। तुम क्यों काम करोगी?’

‘महाराज अच्छे सालन नहीं पकाता। आप खाने बैठो., तो यों ही उठ जाएँगे।’ आशा अपने अवकाश का बड़ा भाग लालाजी के लिए तरह-तरह का भोजन पकाने में ही लगाती थी। उसने किसी से सुन रखा था कि एक विशेष अवस्था के बाद पुरुष के जीवन का सबसे बड़ा सुख रसना का स्वाद ही रह जाता है। लालाजी की आत्मा खिल उठी। उन्होंने सोचा कि आशा को उनसे कितना प्रेम है कि वह दरिया की सैर को उनकी सेवा के लिए छोड़ रही है। एक लीला थी कि मान-न-मान’ चलने को तैयार रहती थी। पीछा छुड़ाना पड़ता था, खामख्वाह सिर पर सवार हो जाती थी और सारा मजा किरकिरा कर देती थी।

स्नेह-भरे उलाहने से बोले- ‘तुम्हारा मन भी विचित्र है। अगर एक दिन सालन फीका हो रहा, तो ऐसा क्या तूफान आ जाएगा? तुम तो मुझे बिलकुल निकम्मा बनाए देती हो। अगर तुम न चलोगी, तो मैं भी न जाऊंगा।’

आशा ने जैसे गले से फंदा छुड़ाते हुए कहा- ‘आप भी तो मुझे इधर-उधर घुमा-घुमाकर मेरा मिज़ाज बिगाड़ देते हैं। यह आदत पड़ जाएगी, तो घर का धंधा कौन करेगा।’

‘मुझे घर के धंधे की रत्ती-भर भी परवाह नहीं-बाल की नोक बराबर भी नहीं। मैं चाहता हूँ कि तुम्हारा मिज़ाज बिगड़े और तुम इस गृहस्थी की चक्की से दूर रही। और तुम मुझे बार-बार आप क्यों कहती हो? मैं चाहता हूँ तुम मुझे ‘तुम’ कहो, तू कहो, गालियाँ दो, धौंस जमाओ। तुम तो मुझे आप कहकर जैसे देवता के सिंहासन पर बैठा देती हो। मैं अपने घर में देवता नहीं, चंचल बालक बनना चाहता हूँ।’

‘आशा ने मुस्कराने की चेष्टा करके कहा- ‘भला, मैं आपको ‘तुम’ कहूँगी। तुम बराबर वाले को कहा जाता है कि बड़ों को?’