naya vivaah by munshi premchand
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‘बको मत, जल्दी-जल्दी फुलके सेंको नहीं तो निकाल दिये जाओगे। और आज मुझसे रुपये लेकर अपने लिए कपड़े बनवा लो। भिखमंगों की- सी सूरत बनाए घूमते हो। और बाल क्यों इतने बढ़ा रखे हैं? तुम्हें नाई भी नहीं जुड़ता?’ जुगल ने दूर की बात सोची। बोला- ‘कपड़े बनवा लूँ तो दादा को हिसाब क्या दूँगा?’

‘अरे पागल! मैं हिसाब में नहीं देने को कहती। मुझसे ले जाना।’

जुगल जाहिलपन की हँसी-हँसा।

‘आप बनवाएँगी, तो अच्छे कपड़े लूंगा। खद्दर के मलमल का कुर्ता, खद्दर की धोती, रेशमी चादर, अच्छा-सा चप्पल।’

‘आशा ने मीठी मुस्कान से कहा- ‘और अगर अपने दाम से बनवाने पड़े?’

‘तब कपड़े ही क्यों बनाऊंगा।’

‘बड़े चालाक हो तुम।’

जुगल ने अपनी बुद्धिमत्ता का प्रदर्शन किया- ‘आदमी अपने घर में सूखी रोटियाँ खाकर सो रहता है, लेकिन दावत में तो अच्छे–अच्छे पकवान ही खाता है। यहाँ भी यदि रूखी-सूखी रोटियाँ मिलें, तो यह दावत में जाए ही नहीं।’

‘यह सब मैं नहीं जानती। एक आड़े का कुर्ता बनवा लो और एक टोपी ले लो, हजामत के लिए दो आने पैसे ऊपर से ले लो।’

जुगल ने मान करके कहा- ‘रहने दीजिए। मैं नहीं लेता। अच्छे कपड़े पहनकर निकलूंगा, तब तो आपकी याद आएगी। सड़ियल कपड़े पहनकर तो और जी जलेगा।’

‘तुम स्वार्थी हो, मुफ्त के कपड़े लोगे और साथ ही बढ़िया भी।’

‘जब यहाँ से जाने लगूं तब आप मुझे अपना एक चित्र दीजिएगा।’

‘मेरा चित्र लेकर क्या करोगे?’

‘अपनी कोठरी में लगाऊंगा और नित्य देखा करूँगा। बस, वही साड़ी पहनकर खिंचवाना, जो कल पहनी थी, और यही मोतियों की माला भी हो। मुझे नंगी- नंगी सूरत अच्छी नहीं लगती। आपके पास तो बहुत गहने होंगे। आप पहनती क्यों नहीं।’

‘तो तुम्हें गहने बहुत अच्छे लगते हैं?’

‘बहुत।’

लालाजी ने फिर आकर जलते हुए मन से कहा- ‘अभी तक तुम्हारी रोटियाँ नहीं पकी जुगल? अगर कल से तूने अपने-आप अच्छी रोटियाँ न पकायीं, तो मैं तुझे निकाल दूँगा।’

आशा ने तुरन्त हाथ-मुँह धोया और बड़े प्रसन्न मन से लालाजी के साथ गमले देखने चली। इस समय उसकी छवि में प्रफुल्लता का रोगन था, बातों में भी जैसे शक्कर घुली हुई थी। लालाजी का सारा खिसियानापन मिट गया था। उसने गमलों को लुब्ध आँखों से देखा। उसने कहा- ‘मैं इनमें से कोई गमला न जाने दूँगी। सब मेरे कमरे के सामने रखवाना, सब! कितने सुन्दर पौधे हैं, वाह! इनके हिंदी नाम भी मुझे बतला देना।’

लालाजी ने छेड़ा- ‘सब गमले लेकर क्या करोगी? दस-पाँच पसन्द कर लो। शेष मैं बाहर रखवा दूँगा।’

‘जी नहीं। मैं एक भी न छोडूँगी। सब यहीं रखे जाएँगे।’

‘बड़ी लालचिन हो तुम।’

‘लालचिन ही सही। मैं आपको एक भी न दूँगी।’

‘दो-चार तो दे दो। इतनी मेहनत से लाया हूँ।’

‘जी नहीं, इनमें से एक भी न मिलेगा।’

दूसरे दिन आशा ने अपने को आभूषण से खूब सजाया और फिरोजी साड़ी पहनकर निकली, तब लालाजी की आँखों में ज्योति आ गई। समझे, अवश्य ही अब उनके प्रेम का जादू ‘कुछ-कुछ’ चल रहा है, नहीं तो उनके बार-बार के आग्रह करने पर भी, बार-बार याचना करने पर भी, उसने कोई आभूषण न पहना था। कभी- कभी मोतियों का हार गले में डाल लेती थी, वह भी ऊपरी मन से। आज वह आभूषणों से अलंकृत होकर फूली नहीं समाती, इतरायी जाती है, मानो कहती हो, देखो मैं कितनी सुंदर हूँ।

लालाजी पर घड़ों का नशा चढ़ा हुआ था। वे चाहते थे, उनके मित्र और बंधु-वर्ग आकर इस सोने की रानी के दर्शनों से अपनी आँखें ठंडी करें और देखें कि वह कितनी सुखी, सन्तुष्ट और प्रसन्न है। जिन विद्रोहियों ने विवाह के समय तरह-तरह की शंकाएँ की थीं, वे आंखें खोलकर देखें कि डंगामल कितना सुखी है, विश्वास, अनुराग और अनुभव ने नया चमत्कार किया है?

उन्होंने प्रस्ताव दिया- चलो, कहीं घूम आएँ। बड़ी मजेदार हवा चल रही है। आशा इस वक्त कैसे जा सकती थी? अभी उसे रसोई में जाना था, वहाँ से कहीं बारह-एक बजे फुर्सत मिलेगी। फिर घर के दूसरे धंधे सिर पर सवार हो जाएँगे। सैर-सपाटे के पीछे क्या घर चौपट कर दे?

सेठजी ने उसका हाथ पकड़ लिया और कहा- ‘नहीं, आज मैं तुम्हें रसोई में न जाने दूँगा।’

‘महाराज के किए कुछ न होगा।’

‘तो आज उसकी शामत भी आ जाएगी।’

आशा के मुख पर से वह प्रफुल्लता जाती रही। मन भी उदास हो गया। एक सोफे पर लेटकर बोली- ‘आज न जाने क्यों कलेजे में मीठा-मीठा दर्द हो रहा है। ऐसा दर्द कभी नहीं होता था।’

‘सेठजी घबरा उठे।’

‘यह दर्द कब से हो रहा है?’

‘हो तो रहा है रात से ही, लेकिन अभी कुछ कम हो गया था। अब फिर होने लगा है। रह-रहकर जैसे चुभन हो जाती है।’

सेठजी एक बात सोचकर दिल-ही-दिल में खिल उठे। अब वे गोलियाँ रंग ला रही हैं। राजवैद्य जी ने कहा भी था कि जरा सोच-समझकर इनका सेवन कीजिएगा। क्यों न हो! पुराने और परीक्षित नुस्खे हैं इनके पास। उन्होंने कहा- ‘तो रात से ही यह दर्द हो रहा है? तुमने मुझसे कहा नहीं, नहीं तो वैद्य जी से कोई दवा मँगवाता।’

‘मैंने समझा था, आप-ही-आप अच्छा हो जाएगा, मगर अब बढ़ रहा है।’

‘कहां दर्द हो रहा है? जरा देखूँ। कुछ सूजन तो नहीं है।’

सेठजी ने आशा के आँचल की तरफ हाथ बढ़ाया। आशा ने शरमा कर सिर झुका लिया। उसने कहा- ‘यह तुम्हारी शरारत मुझे अच्छी नहीं लगती। मैं अपनी जान से मरती हूँ तुम्हें हँसी सूझती है। जाकर कोई दवा ला दो।’

सेठजी अपने पुंसत्व का यह डिप्लोमा पाकर उससे कहीं ज्यादा प्रसन्न हुए, जितना रायबहादुरी पाकर होते। इस विजय का डंका पीटे बिना उन्हें कैसे चैन आ सकता था? जो लोग उनके विवाह के विषय में द्वेषमय टिप्पणियाँ कर रहे थे, उन्हें नीचा दिखाने का कितना अच्छा अवसर हाथ आया है और इतनी जल्दी। पहले पंडित भोलानाथ के पास गए और भाग्य ठोक-कर बोले- ‘भई, मैं तो बड़ी विपत्ति में फंस गया। कल से उनके कलेजे में दर्द हो रहा है। कुछ बुद्धि काम नहीं करती । कहती है, ऐसा दर्द पहले कभी नहीं हुआ था।

भोलानाथ ने कुछ बहुत हमदर्दी-सी दिखायी।

सेठजी यहाँ से उठकर अपने दूसरे मित्र लाला फागमल के पास पहुँचे, और उनसे भी लगभग इन्हीं शब्दों में यह शोक-संवाद कहा।

फागमल बड़ा शोहदा था। मुस्कराकर बोला- ‘मुझे तो आपकी शरारत मालूम होती है।’

सेठजी की बांछें खिल गईं। उन्होंने कहा- ‘मैं अपना दुःख सुना रहा हूँ और तुम्हें दिल्लगी सूझती है। जरा भी आदमियत तुममें नहीं है।’

‘मैं दिल्लगी नहीं कर रहा हूँ। इस दिल्लगी की क्या बात है? वे हैं कमसिन, कोमलांगी, आप ठहरे पुराने लठैत, दंगल के पहलवान। बस! अगर यह बात न निकले तो मूंछ जुड़ा लूँ।

सेठजी की आंखें जगमगा उठीं। मन में यौवन की भावना प्रबल हो उठी और उसके साथ ही मुख पर भी यौवन की झलक आ गई। छाती जैसे कुछ फैल गई। चलते समय उनके पग कुछ अधिक मजबूती से जमीन पर पड़ने लगे और सिर की टोपी भी न जाने कैसे बाँकी हो गई। आकृति से बाँकपन की शान बरसने लगी।

जुगल ने आशा को सिर से पाँव तक जगमगाते देखकर कहा- ‘बस बहूजी, आप इसी तरह पहने-ओढ़े रहा करें। आज मैं आपको चूल्हे के पास न आने दूँगा। आशा ने नयन-बाण चलाकर कहा- ‘क्यों, आज यह नया हुक्म क्यों? पहले तो तुमने कभी मना नहीं किया।’

‘आज की बात दूसरी है।’

‘जरा सुनू क्या बात है?’

‘मैं डरता हूँ आप कहीं नाराज न हो जाएँ?’

‘नहीं-नहीं, कहो, मैं नाराज न होऊंगी।’

‘आप बहुत सुन्दर लग रही हैं।’

लाला डंगामल ने असंख्य बार आशा के रूप और यौवन की प्रशंसा की थी, मगर उनकी प्रशंसा में उसे बनावट की गंध आती थी। यह शब्द उनके मुख से निकलकर कुछ ऐसे लगते थे, जैसे कोई पंगु दौड़ने की चेष्टा कर रहा हो। जुगल के इन सीधे शब्दों में एक उन्माद था, नशा था, एक चोट थी। आशा की सारी देह प्रकम्पित हो गई।

‘तुम मुझे नजर लगा दोगे जुगल, इस तरह क्यों घूरते हो?’

‘जब यहाँ से चला जाऊंगा, तब आपकी बहुत याद आएगी।’

‘रसोई पकाकर तुम सारे दिन क्या किया करते हो? दिखाई नहीं देते।’

‘सरकार रहते हैं, इसीलिए नहीं आता। फिर अब तो मुझे जवाब मिल रहा है। देखिए भगवान कहाँ ले जाते हैं।’

आशा की मुख-मुद्रा कठोर हो गई। उसने कहा- ‘कौन तुम्हें जवाब देता है?’

‘सरकार ही तो कहते हैं तुझे निकाल दूँगा।’

‘अपना काम किए जाओ, कोई नहीं निकालेगा। अब तो तुम फुलके भी अच्छे बनाने लगे।’

‘सरकार हैं बड़े गुस्सेवर।’

‘दो-चार दिन में उनका मिज़ाज ठीक किए देती हूँ।’

‘आपके साथ चलते हैं, तो आपके बाप-से लगते हैं।’

‘तुम बड़े मुँहफट हो। खबरदार, जबान सँभालकर बातें किया करो।’ किन्तु अप्रसन्नता का यह झीना आवरण उसके मनोरहस्य को न छिपा सका। वह प्रकाश की भांति उसके अंदर से निकल पड़ता था।

जुगल ने फिर उसी निर्भीकता से कहा- ‘मेरा मुँह कोई बंद कर ले, यहाँ तो सभी यही कहते हैं। मेरा ब्याह कोई 50 साल की बुढ़िया से कर दे, तो मैं घर छोड़कर भाग जाऊँ। या तो खुद जहर खा लूँ या उसे जहर देकर मार डालूं। फाँसी ही तो होगी?

आशा उस कृत्रिम क्रोध को कायम न रख सकी। जुगल ने उसकी हृदय-वीणा के तारों पर मिजराब की ऐसी चोट मारी थी कि उसके बहुत जब्त करने पर भी मन की व्यथा बाहर निकल आई। उसने कहा- ‘भाग्य भी तो कोई वस्तु है।’

‘ऐसा भाग्य जाए भाड़ में।’

‘तुम्हारा ब्याह किसी बुढ़िया से ही करूंगी, देख लेना।’

‘तो मैं भी जहर खा लूँगा, देख लीजिएगा।’

‘क्यों, बुढ़िया तुम्हें जवान स्त्री से ज्यादा प्यार करेगी, ज्यादा सेवा करेगी। तुम्हें सीधे रास्ते पर रखेगी।’

‘यह सब माँ का काम है। बीवी जिस काम के लिए है उसी काम के लिए है।’

‘आखिर बीवी किस काम के लिए है?’

‘आप मालकिन हैं, नहीं तो बता देता, बीवी किस काम के लिए है।’

मोटर की आवाज आई। न जाने कैसे आशा के सिर का आँचल खिसककर कंधे पर आ गया। उसने जल्दी से आँचल खींचकर सिर पर रख लिया और यह कहती हुई आपने कमरे की ओर लपकी कि लाला भोजन करके चले जाएं, तब आना।