naya vivaah by munshi premchand
naya vivaah by munshi premchand

मुनीम ने एक लाख के घाटे की खबर सुनाई होती, तो भी शायद लालाजी को इतना दुःख न होता, जितना आशा के इन कठोर शब्दों से हुआ। उनका सारा उत्साह, सारा उल्लास जैसे ठंडा पड़ गया। सिर पर बाँकी रखी हुई फूलदार टोपी, गले में पड़ी हुई जोगिए रंग की बुनी हुई रेशमी चादर, वह तंजेब का बेलदार कुर्ता, जिसमें सोने के बटन लगे हुए थे, यह सारा ठाट जैसे उन्हें हास्यजनक जान पड़ने लगा, जैसे वह सारा नशा किसी मन्त्र से उतर गया हो ।

निराश होकर बोले- ‘तो तुम्हें चलना है या नहीं?’

‘मेरा जी नहीं चाहता।’

‘तो मैं भी न जाऊँ?’

‘मैं आपको कब मना करती हूँ?’

‘आप’ कहा?’

आशा ने जैसे भीतर से जोर लगाकर कहा ‘तुम’ और उसका मुख-मण्डल लज्जा से आरक्त हो गया।

‘हाँ इसी तरह ‘तुम’ कहा करो। तुम नहीं चल रही हो? अगर मैं कहूं, तुम्हें चलना पड़ेगा तो?’

‘तब चलूँगी। आपकी आज्ञा मानना मेरा धर्म है।’

लालाजी आज्ञा न दे सके। आज्ञा और धर्म जैसे शब्द उनके कानों में चुभने से लगे। खिसियाए हुए बाहर को चल पड़े। उस वक्त आशा को उन पर दया आ गई। बोली- ‘तो कब तक लौटोगे?’

‘मैं नहीं जा रहा हूँ।’

‘अच्छा, तो मैं भी चलती हूँ।’

जैसे कोई जिद्दी लड़का रोने के बाद अपनी इच्छित वस्तु पाकर उसे पैरों से ठुकरा देता है, उसी तरह लालाजी ने मुँह बनाकर कहा- ‘तुम्हारा जी नहीं चाहता, तो न चलो। मैं आग्रह नहीं करता।

‘आप नहीं, तुम बुरा मान जाओगे।’

आशा गई, लेकिन उमंग से नहीं। जिस मामूली वेश में थी, उसी तरह चल खड़ी हुई। न कोई सजीली साड़ी, न जड़ाऊ गहने, न कोई सिंगार, जैसे कोई विधवा हो।

ऐसी ही बातों पर लालाजी मन में झुँझला उठते थे। ब्याह किया था, जीवन का आनंद उठाने के लिए, झिलमिलाते हुए दीपक में तेल डालकर उसे और चटक करने के लिए। अगर दीपक का प्रकाश तेज न हुआ, तो तेल डालने से क्या लाभ? न जाने इसका मन क्यों इतना शुल्क और नीरस है, जैसे कोई ऊसर का पेड़ हो, कितना ही पानी डालो, उसमें हरी पत्तियों के दर्शन न होंगे। जड़ाऊ गहनों से भरी पिटारियाँ खुली हुई हैं, कहां-कहां से मँगवाए-दिल्ली से, कलकत्ते से, फ्रांस से। कैसी-कैसी बहुमूल्य साड़ियाँ रखी हुई हैं। एक नहीं, सैकड़ों। पर केवल संदूक में कीड़ों का भोजन बनने के लिए। दरिद्र घर की लड़कियों में यही ऐब होता है। उनकी दृष्टि सदैव संकीर्ण रहती है। न खा सकें, न पहन सकें, न दे सकें। उन्हें तो खजाना भी मिल जाए, तो यही सोचती रहेंगी कि इसे खर्च कैसे करें ।

दरिया की सैर तो हुई, पर विशेष आनन्द न आया।

कई महीनों तक आशा की मनोवृत्तियों को जगाने का असफल प्रयत्न करके लालाजी ने समझ लिया कि इसकी पैदाइश ही मुहर्रमी है। लेकिन फिर भी निराश न हुए। ऐसे व्यापार में एक बड़ी रकम लगाने के बाद वे उसमें अधिक- से-अधिक लाभ उठाने की वाणिज्य-प्रवृत्ति को कैसे त्याग देते? विनोद की नई-नई योजनाएँ पैदा की जातीं-ग्रामोफोन अगर बिगड़ गया है, गाता नहीं, या साफ आवाज नहीं निकलती, तो उसकी मरम्मत करानी पड़ेगी। उसे उठाकर रख देना तो मूर्खता है।

इधर बूढ़ा महाराज एकाएक बीमार होकर घर चला गया था और उसकी जगह उसका सत्रह-अट्ठारह साल का जवान लड़का आ गया था। कुछ अजीब गँवार था। बिलकुल झगड़ उजड़। कोई बात ही न समझता था। जितने फूलके बनाता, उतनी तरह के। हां, एक बात समान होती। सब बीच में मोटे होते, किनारे पतले। दाल कभी तो इतनी पतली जैसे चाय, कभी इतनी गाड़ी, जैसे दही। नमक कभी इतना कम कि बिलकुल फीका, कभी इतना तेज कि नींबू का शाखीन। आशा मुँह-हाय धोकर चौके में पहुँच जाती और इस ढपोरसंख को भोजन पकाना सिखाती। एक दिन उसने कहा- ‘तुम कितने नालायक आदमी हो जुगनू। आखिर इतनी उम्र तक तुम घास खोदते रहे या झाड़ झोंकते रहे कि फुलके, तक नहीं बना सकते? जुगल आँखों में आंसू भरकर कहता- बहूजी, अभी मेरी उम्र ही क्या है? सत्रहवीं ही तो पूरा हुआ है।’

आशा को उसकी बात पर हंसी आ गई। उसने कहा- ‘तो रोटियाँ पकाना क्या दस-पाँच साल में आता है?’

‘आप एक महीना सिखा दें बहूजी, फिर देखिए मैं आपको कैसे फुलके खिलाता हूँ कि जी खुश हो जाए। जिस दिन मुझे फुलके बनाने आ जाएँगे, मैं आपसे कोई इनाम लूँगा। सालन तो अब मैं कुछ-कुछ बनाने लगा हूँ क्यों न?’ आशा ने हौसला बढ़ाने वाली मुस्कराहट के साथ कहा- ‘सालन नहीं, वो बनाना आता है। अभी कल ही नमक इतना तेज था कि खाया न गया। मसाले में कचांध आ रही थी।

‘मैं जब सालन बना रहा था, तब आप यहाँ कब थीं?’

‘अच्छा, तो मैं यहाँ बैठी रहूँ तब तुम्हारा सालन बढ़िया पकेगा?’

‘आप बैठी रहती हैं, तब मेरी अक्ल ठिकाने रहती है।’

आशा को जुगल की इन भोली बातों पर खूब हंसी आ रही थी। हंसी को रोकना चाहती थी, पर इस तरह निकली पड़ती थी, जैसे भरी बोतल उड़ेल दी गई हो।

‘और मैं नहीं रहती तब?’

‘तब तो आपके कमरे के द्वार पर जा बैठती है। वहीं बैठकर अपनी तकदीर को रोती है।’

आशा ने हंसी को रोककर पूछा- ‘क्यों, रोती क्यों है?’

‘यह न पूछिए बहूजी आप इन बातों को नहीं समझेगी।’

आशा ने उसके मुँह की ओर प्रश्न की आँखों से देखा। उसका आशय कुछ तो समझ गई, पर न समझने का बहाना किया।

‘तुम्हारे दादा आ जाएँगे, तब तुम चले जाओगे।’

‘और क्या करूँगा बहूजी! यहाँ कोई काम दिलवा दीजिएगा, तो पड़ा रहूँगा। मुझे मोटर चलाना सिखवा दीजिए। आपको खूब सैर कराया करूंगा। नहीं, नहीं बहूजी, आप हट जाइए, मैं पतीली उतार लूंगा, ऐसी अच्छी साड़ी है आपकी कहीं कोई दाग पड़ जाए, तो क्या हो?’

आशा पतीली उतार रही थी। जुगल ने उसके हाथ से सँड़सी ले लेनी चाही। ‘दूर रहो, फूहड़ तो तुम हो ही। कहीं पतीली पाँव पर गिरा ली, तो महीनों झींकोगे।’ जुगल के मुख पर उदासी छा गई।

आशा ने मुस्कराकर पूछा- ‘क्यों, मुँह क्यों लटक गया सरकार का?’

जुगल रुआंसा होकर बोला- ‘आप मुझे डाँट देती हैं, बहूजी, तब मेरा दिल टूट जाता है। सरकार कितना ही घुड़कें, मुझे बिलकुल ही दुःख नहीं होता। आपकी नजर कड़ी देखकर मेरा खून सर्द हो जाता है।’

आशा ने दिलासा दिया- ‘मैंने तुम्हें डाँटा तो नहीं, केवल यही तो कहा कि कहीं पतीली तुम्हारे पाँव पर गिर पड़े तो क्या हो?’

‘हाथ तो आपका भी है। कहीं आपके ही हाथ से छूट पड़े तो?’

लाला डंगामल ने रसोई-घर के द्वार पर आकर कहा- ‘आशा, जरा यहाँ आना। देखो, तुम्हारे लिए कितने सुन्दर गमले लाया हूँ। तुम्हारे कमरे के सामने रखे जाएँगे। तुम यहाँ धुएं-धकड़ से क्यों हलकान होती हो? इस लड़के से कह दो कि जल्दी महाराज को बुलाए, नहीं तो मैं कोई दूसरा रख लूँगा। महाराज की कमी नहीं है। आखिर कब तक कोई रियायत करे! गधे को जरा भी तमीज नहीं आई। सुनता है जुगल, लिख दे आज अपने बाप को।’

चूल्हे पर तवा रखा हुआ था। आशा रोटियाँ बेलने में लगी थी। जुगल तवे के लिए रोटियों का इन्तजार कर रहा था। ऐसी हालत में भला, आशा कैसे गमले देखने जाती?

उसने कहा- ‘जुगल रोटियाँ टेढ़ी-मेढ़ी बेल डालेगा।’

लालाजी ने कुछ चिढ़ कर कहा- ‘अगर रोटियाँ टेढ़ी-मेढ़ी बेलेगा, तो निकाल दिया जाएगा।’

आशा अनसुनी करके बोली- ‘दस-पाँच दिन में सीख जाएगा, निकालने की क्या जरूरत है?’

‘तुम आकर बतला दो, गमले कहाँ रखे जाएँ।’

‘कहती तो हूँ, रोटियाँ बेलकर आ जाती हूँ।’

‘नहीं, मैं कहता हूँ तुम रोटियाँ मत बेलो।’

‘आप खामख्वाह जिद करते हैं।’

लालाजी सन्नाटे में आ गए। आशा ने कभी इतनी रुखाई से उन्हें जवाब न दिया था। और यह केवल रुखाई न थी; इसमें कटुता भी थी। लज्जित होकर चले गए। उन्हें ऐसा क्रोध आ रहा था किए इन गमलों को तोड़कर फेंक दें और सारे पौधों को चूल्हे में डाल दें।

जुगल ने सहमे हुए स्वर में कहा- ‘आप चली जाएँ बहूजी, सरकार बिगड़ जाएँगे।’