manovrtti by munshi premchand
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‘रात कितनी गर्मी थी बाई जी! ठंडक पाकर बेचारी की आँख लग गई है ।’

‘रात- भर यहीं रही है, कुछ-कुछ बदती हूँ ।’

मीनू युवती के पास आकर उसका हाथ पकड़कर हिलाती है, ‘यहाँ क्यों सो रही हो देवीजी? इतना दिन चढ़ आया, उठकर घर जाओ ।’

युवती आँखें खोल देती है, ‘ओह, इतना दिन चढ़ आया? क्या मैं सो गई थी? मेरे सिर में चक्कर आ जाया करता है । मैंने समझा शायद हवा से कुछ लाभ हो । यहाँ आई; पर ऐसा चक्कर आया कि इस बेंच पर बैठ गई, फिर मुझे होश न रहा । अब भी मैं खड़ी नहीं हो सकती । मालूम होता है, गिर पडूँगी । बहुत दवा की, पर कोई फायदा नहीं होता । आप डाक्टर श्यामनाथ को जानती होंगी, वह मेरे ससुर हैं ।’

युवती ने आश्चर्य से कहा, ‘ अच्छा! वह तो अभी इधर ही से गए हैं । ‘ ‘ सच! लेकिन मुझे पहचान कैसे सकते हैं? अभी मेरा गौना नहीं हुआ है ।’

‘तो क्या आप उनके लड़के बसंतलाल की धर्मपत्नी हैं?’

युवती ने शर्म से सिर झुकाकर स्वीकार किया । मीनू ने हँसकर कहा ‘बसंतपाल तो अभी इधर से गए हैं । मेरा उनसे यूनिवर्सिटी का परिचय है ।’ ‘अच्छा! लेकिन उन्होंने मुझे देखा कहाँ है?’

‘तो मैं दौड़कर डाक्टर साहब को खबर दे दूँ?’

‘जी नहीं, मैं थोड़ी देर में बिल्कुल अच्छी हो जाऊँगी ।’

‘बसंतपाल भी वह खड़ा है, उसे बुला दूँ?’

‘जी नहीं, किसी को न बुलाइए ।’

‘तो चलो, अपनी मोटर पर तुम्हें तुम्हारे घर पहुँचा दूँ ।’

‘आपकी बड़ी कृपा होगी ।’

‘किस मुहल्ले में?’

‘बेगमगंज, मिस्टर जयरामदास के घर ।’

‘मैं आज ही मिस्टर बसंतपाल से कहूँगी ।’

‘मैं क्या जानती थी, वह इस पार्क में आते हैं ।’

‘मगर कोई आदमी तो साथ ले लिया होता?’

‘किसलिए, कोई जरूरत न थी ।’