दूसरे दिन सवेरे जुगनू मिस खुर्शीद के बँगले पर पहुँची। मिस खुर्शीद हवा खाने गयी हुई थीं। खानसामा ने पूछा- ‘कहां से आती हो?’
जुगनू- ‘वहीं रहती हूँ बेटा। मेमसाहब कहां से आयी हैं, तुम तो इनके पुराने नौकर होगे?’
खान.- ‘नागपुर से आयी हैं। मेरा घर भी वहीं है। दस साल से इनके साथ हूँ।’
जुगनू-‘किसी ऊँचे खानदान की होंगी? यह तो रंग-ढंग से ही मालूम होता है।’
खान.- ‘खानदान तो कुछ ऐसा ऊंचा नहीं है। हां, तकदीर की अच्छी हैं। इनकी माँ अभी तक मिशन में 30 रु. पाती हैं। यह पढ़ने में तेज थीं, वज़ीफ़ा मिल गया, विलायत चली गयीं, बस तकदीर खुल गयी। अब तो अपनी माँ को बुलाने वाली हैं, लेकिन वह बुढ़िया शायद ही आये। यह गिरजे-विरजे नहीं जातीं इससे दोनों में पटती नहीं है।’
जुगनू- ‘मिज़ाज की तेज मालूम होती हैं।’
खान.- ‘नहीं, यों तो बहुत नेक हैं, गिरजे नहीं जातीं। तुम क्या नौकरी की तलाश में हो? करना चाहो, तो कर लो। एक आया रखना चाहती हैं।’
जुगनू- ‘नहीं बेटा, मैं अब क्या नौकरी करूंगी। इस बँगले में पहले जो मेम साहब रहती थी, वह मुझ पर बड़ी निगाह रखती थीं। मैंने समझा, चलूँ नयी मेमसाहब को आशीर्वाद दे आऊँ।’
खान.- ‘यह आशीर्वाद लेने वाली मेमसाहब नहीं हैं। ऐसों से बहुत चिढ़ती हैं। कोई मँगता आया और उसे डाँट बतायी। कहती हैं, बिना काम किये किसी को जिन्दा रहने का हक नहीं है। भला चाहती हो, तो चुपके से राह लो।’
जुगनू- ‘तो यह कहो, इनका कोई धरम-करम नहीं है। फिर भला गरीबों पर क्यों दया करने लगीं।
जुगनू को अपनी दीवार खड़ी करने के लिए काफी सामान मिल गया- नीच खानदान की है, माँ से नहीं पटती, धर्म से विमुख है। पहले धावे में इतनी सफलता कुछ कम न थी। चलते-चलते खानसामा से इतना और पूछा- ‘इनके साहब क्या करते हैं?’
खानसामा ने मुस्कराकर कहा- ‘इनकी तो अभी शादी ही नहीं हुई। साहब कहीं से होंगे।’
जुगनू ने बनावटी आश्चर्य से कहा- ‘अरे, अभी तक ब्याह नहीं हुआ। हमारे यहाँ तो दुनिया हंसने लगे।’
खान.- ‘अपना-अपना रिवाज है। इनके यहाँ तो कितनी ही औरतें उम्र भर ब्याह नहीं करतीं।’
जुगनू ने मार्मिक भाव से कहा- ‘ऐसी कुंवारियों को मैं भी बहुत देख चुकी। हमारी बिरादरी में कोई इस तरह रहे, तो थुड़ी-थुड़ी हो जाय। मुदा इनके यहां जो जी में आये करें, कोई नहीं पूछता।’
इतने में मिस खुर्शीद उस पहुँची। गुलाबी जाड़ा पड़ने लगा था। मिस साहब साड़ी के ऊपर ओवरकोट पहने हुए थीं। एक हाथ में छतरी थी, दूसरे में छोटे कुत्ते की जंजीर। प्रभात की शीतल वायु में व्यायाम ने कपोलों को ताजा और सुर्ख कर दिया था। जुगनू ने झुककर सलाम किया, पर उन्होंने उसे देखकर भी न देखा। अन्दर जाते ही खानसामा को बुलाकर पूछा- ‘यह औरत क्या करने आयी है?’ खानसामा ने जूते का फीता खोलते हुए कहा- ‘भिखारिन है, हुजूर! पर औरत समझदार है! मैंने कहा, यहाँ नौकरी करेगी, तो राजी नहीं हुई। पूछने लगी, इनके साहब क्या करते हैं। जब मैंने बता दिया, तो इसे बड़ा ताज्जुब हुआ और होना ही चाहिए। हिन्दुओं में तो दुधमुंही बालकों तक का विवाह हो जाता है।’
खुर्शीद ने जाँच की- ‘और क्या कहती थी?’
‘और तो कोई बात नहीं हुजूर!’
‘अच्छा, उसे मेरे पास भेज दो।’
जुगनू ने ज्यों ही कमरे में कदम रखा, मिस खुर्शीद ने कुर्सी से उठकर स्वागत किया- ‘आइये माँ जी! मैं जरा सैर करने चली गयी थी। आपके आश्रम में तो सब कुशल है?’
जुगनू एक कुर्सी का तकिया पकड़कर खड़ी-खड़ी बोली- ‘कुशल है मिस साहब। मैंने कहा, आपको आशीर्वाद दे आऊँ। मैं आपकी चेली हूँ। जब कोई काम पड़े, मुझे याद कीजिएगा। यहां अकेले तो हुजूर को अच्छा न लगता होगा।’
मिस- ‘मुझे अपने स्कूल की लड़कियों के साथ बड़ा आनंद मिलता है, वह सब मेरी ही लड़कियाँ हैं।’
