doodh ka daam by munshi premchand
doodh ka daam by munshi premchand

टामी ने हूं-हूं करके शायद कहा-इस तरह का अपमान तो जिंदगी-भर सहना है । यों हिम्मत हारोगे, तो कैसे काम चलेगा? मुझे देखो न, कभी किसी ने डंडा मारा, चिल्ला उठा । फिर जरा देर बाद दुम हिलाता हुआ उसके पास जा पहुँचा । हम-तुम दोनों इसीलिए बने हैं भाई ।

मंगल ने कहा-तो तुम जाओ, जो कुछ मिले खा लो, मेरी परवाह न करो ।

टामी ने अपनी भाषा में कहा-अकेला नहीं जाता, तुम्हें साथ लेकर चलूँगा ।

‘मैं नहीं जाता ।’

‘भूखा मर जाओगे ।’

‘तो क्या तुम जीते रहोगे?’

‘मेरा कौन बैठा है, जो रोएगा?’

एक क्षण के बाद भूख ने एक दूसरी युक्ति सोच निकाली ।

‘मालकिन हमें खोज रही होंगी, क्या टामी

‘और क्या? बाबूजी और सुरेश खा चुके होंगे । कहार उनकी थाली से जूठन निकालकर हमें पुकार रहा होगा ।’

‘बाबूजी और सुरेश दोनों की थालियों में घी खूब रहता है और वह मीठी-मीठी चीज-हाँ मलाई ।’

‘सब-का-सब घूरे पर डाल दिया जाएगा ।’

‘देखें हमें खोजने कोई आता है?’

‘खोजने कौन आएगा, क्या कोई पुरोहित हो? एक बार मंगल-मंगल होगा और बस, थाली परनाले में उड़ेल दी जाएगी ।’

‘अच्छा, चलो । मगर मैं छिपा रहूँगा, अगर किसी ने मेरा नाम लेकर न पुकारा तो मैं लौट आऊँगा । यह समझ लो ।’

दोनों वहाँ से निकले और आकर महेशनाथ के द्वार पर अँधेरे में दुबककर खड़े हो गए, मगर टामी को सब्र कहाँ? वह धीरे से अंदर घुस गया । देखा, महेशनाथ और सुरेश थाली पर बैठ गए हैं । मंगल बरोठे में धीरे से बैठ गया, मगर डर रहा था कि कोई डंडा न मार दे । एक नौकर ने कहा-आज मंगल नहीं दिखा । मालकिन ने डाँटा था, इससे भागा है शायद ।

दूसरे ने जवाब दिया-अच्छा हुआ, निकाल दिया गया । सबेरे-सबेरे भंगी का मुँह देखना पड़ता था ।

मंगल और अँधेरे में खिसक गया । उसकी आशा गहरे जल में डूब गई ।

महेशनाथ थाली से उठ गए । नौकर हाथ बुला रहा था । अब हुक्का पीएंगे और सोएंगे । सुरेश अपनी माँ के पास बैठा कोई कहानी सुनता-सुनता सो जाएगा । गरीब मंगल की किसे चिंता? इतनी देर हो गई, किसी ने भूल से भी न पुकारा।

कुछ देर तक वह निराश-सा खड़ा रहा, फिर एक लंबी साँस खींचकर जाना ही चाहता था कि कहार पत्तल में थाली का लूठन ले जाता नजर आया । मंगल अँधेरे से निकलकर प्रकाश में आ गया । अब मन को कैसे रोके?

कहार ने कहा-अरे, तू यहाँ था? हमने समझा कि कहीं चला गया । ले, खा ले, मैं फेंकने जा रहा था ।

मंगल ने दीनता से कहा-मैं तो कब से यहाँ खड़ा था!

‘तो बोला क्यों नहीं?’

‘मारे डर के ।’

‘अच्छा ले खा ले ।’

उसने पत्तल को ऊपर उठाकर मंगल के फैले हुए हाथों में डाल दिया । मंगल ने उसकी ओर ऐसी आंखों से देखा, जिसमें दीन कृतज्ञता भरी हुई थी । टामी भी अंदर से निकल आया था । दोनों वहीं नीम के नीचे पत्तल में खाने लगे ।

मंगल ने एक हाथ से टामी का सिर सहलाकर कहा-देखा, पेट की आग ऐसी होती है । यह लात की मारी हुई रोटियाँ भी न मिलतीं, तो क्या करते?

टामी ने दुम हिला दी ।

‘सुरेश को अम्मा ने पाला था ।’

‘लोग कहते हैं, दूध का दाम कोई नहीं चुका सकता और मुझे दूध का यह दाम मिल रहा है ।’

टामी ने फिर दुम हिलाई ।