doodh ka daam by munshi premchand
doodh ka daam by munshi premchand

इसी साल प्लेग ने जोर बाँधा और गूदड़ चपेट में आ गया । भूँगी अकेली रह गई; पर गृहस्थी ज्यों-की-त्यों चलती रही । पाँच साल बीत गए और उसका बालक मंगल, दुर्बल और सदा रोगी रहने पर भी दौड़ने लगा । सुरेश के सामने पिद्दी-सा लगता था ।

एक दिन भूँगी महेशनाथ के घर का परनाला साफ कर रही थी । महीनों से गलीज जमा हो रहा था । आँगन में पानी भरा रहने लगा । परनाले में एक लंबा मोटा बाँस डालकर जोर से हिला रही थी । पूरा दाहिना हाथ परनाले के अंदर था कि एकाएक उसने चिल्लाकर हाथ बाहर निकाल लिया और उसी वक्त एक काला साँप परनाले से निकलकर भागा । लोगों ने दौड़कर उसे मार तो डाला; लेकिन भूँगी को बचा न सके । लोग समझे पानी का साँप है, विषैला न होगा, इसलिए पहले कुछ गफ़लत की गई । जब विष देह में फैल गया और लहरें आने लगीं तब पता चला कि वह पानी का साँप नहीं, गेहूँवन था ।

मंगल अब अनाथ था । दिनभर महेशबाबू के द्वार पर मंडराया करता । घर में जूठन इतना बचता था कि ऐसे-ऐसे दस-पाँच बालक पल सकते थे । खाने की कोई कमी न थी । हाँ उसे तब बुरा जरूर लगता था, जब मिट्टी के कसोरों में उसे ऊपर से खाना दिया जाता था । सब लोग अच्छे-अच्छे बरतनों में खाते हैं, उसके लिए मिट्टी के कसोरे!

यों उसे इस भेदभाव का बिलकुल ज्ञान न होता था, लेकिन गाँव के लड़के चिढ़ा-चिढ़ाकर उसका अपमान करते रहते थे । कोई उसे अपने साथ खेलाता भी न था । यहाँ तक कि जिस टाट पर वह सोता था, वह भी अछूत था । मकान के सामने एक नीम का पेड़ था । इसी के नीचे मंगल का डेरा था । एक फटा-सा टाट का टुकड़ा, दो मिट्टी के कसोरे और एक धोती, जो सुरेश बाबू की उतारन थी । जाड़ा गरमी बरसात हरेक मौसम में वह जगह एक-सी आरामदेह थी और भाग्य का बली मंगल झुलसाती हुई लू, गलते हुए जाड़े और मूसलाधार वर्षा में जिंदा और पहले से कहीं स्वस्थ था । बस, उसका कोई अपना था तो गाँव का एक कुत्ता, जो अपने सहकर्मियों के जुल्म से दुःख. होकर मंगल की शरण आ पड़ा था । दोनों एक ही खाना खाते, एक ही टाट पर सोते, तबीयत भी दोनों की एक-सी थी और दोनों एक-दूसरे के स्वभाव को जान गए थे । कभी आपस में झगड़ा न होता ।

गाँव के धर्मात्मा लोग बाबूसाहब की इस उदारता पर आश्चर्य करते । ठीक द्वार के सामने पचास हाथ भी न होगा-मंगल का पड़ा रहना उन्हें सोलहों आने धर्म-विरुद्ध जान पड़ता । छिः! यही हाल रहा तो थोड़े ही दिनों में धर्म का अंत ही समझो । भंगी को भी भगवान ने ही रचा है, यह हम भी जानते हैं । उसके साथ हमें किसी तरह का अन्याय न करना चाहिए, यह किसे नहीं मालूम? भगवान का तो नाम ही पतित-पावन है; लेकिन समाज की मर्यादा भी कोई वस्तु है । उस द्वार पर जाते हुए संकोच होता है । गाँव के मालिक हैं, जाना तो पड़ता है; लेकिन बस यही समझ लो कि घृणा होती है ।

मंगल और टामी में गहरी बनती थी । मंगल कहता-देखो भाई टामी, जरा और खिसककर सोओ । आखिर मैं कहाँ लेटूँ? सारा टाट तो तुमने घेर लिया ।

टामी कूँ-कूँ करता, दुम हिलाता और खिसक जाने के बदले और ऊपर चढ़ आता एवं मंगल का मुँह चाटने लगता ।

शाम को वह एक बार रोज अपना घर देखने और थोड़ी देर सोने जाता । पहले साल फूस का छप्पर गिर पड़ा, दूसरे साल एक दीवार गिरी और अब केवल आधी-आधी दीवारें खड़ी थीं । यही उसे स्नेह की संपत्ति मिली थी । वही स्मृति, वही आकर्षण, वही प्यार उसे एक बार उस उजाड़ में खींच ले जाती थी और टामी सदैव उसके साथ होता था । मंगल दीवार पर बैठ जाता और जीवन के बीते और आनेवाले स्वप्न देखने लगता । टामी बार-बार उछलकर उसकी गोद में बैठने की असफल चेष्टा करता ।

एक दिन कुछ लड़के खेल रहे थे । मंगल भी वहाँ जाकर दूर खड़ा हो गया । या तो सुरेश को उस पर दया आई या खेलनेवालों की जोड़ी पूरी न पड़ती थी, कह नहीं सकते । जो कुछ भी हो, फैसला हुआ कि आज मंगल को भी खेल में शरीक कर लिया लाए । यहाँ कौन देखने आता है । क्यों । मंगल खेलेगा?

मंगल बोला-ना भैया, कहीं मालिक देख लें, तो मेरी चमड़ी उधेड़ दी जाएगी । तुम्हें क्या तुम तो अलग हो जाओगे ।

सुरेश ने कहा-तो यहाँ कौन आता है देखने बे? चल हम लोग सवार-सवार खेलेंगे । तू घोड़ा बनेगा हम लोग तेरे ऊपर सवारी करके दौड़ाएंगे ।

मंगल ने शंका प्रकट की-मैं बराबर घोड़ा ही बना रहूँगा कि सवारी भी करूँगा? यह बता दो । ।

यह प्रश्न टेढ़ा था । किसी ने इस पर विचार न किया था । सुरेश ने एक क्षण विचार करके कहा, ‘तुझे कौन अपनी पीठ पर बिठाएगा, सोच? आखिर तू भंगी है कि नहीं?

मंगल भी कड़ा हो । बोला-मैं कब कहता हूँ कि मैं भंगी नहीं हूँ, लेकिन तुम्हें मेरी ही माँ ने अपना दूध पिलाया पाला है । मुझे भी सवारी करने दो, नहीं तो मैं घोड़ा न बनूँगा । ।

सुरेश ने डाँटकर कहा-तुझे घोड़ा बनना पड़ेगा और मंगल को पकड़ने दौड़ा । मंगल भागा । सुरेश ने दौड़ाया । मंगल ने कदम और तेज किया । सुरेश ने भी जोर लगाया; मगर वह बहुत खा-खाकर धुल-धुला हो गया था और दौड़ने में उसकी साँस फूलने लगती थी । आखिर उसने रुककर कहा-आकर घोड़ा बनो मंगल न तो कभी पा जाऊँगा तो बुरी तरह पीटूँगा ।

‘तुम्हें भी घोड़ा बनना पड़ेगा ।’

‘अच्छा हम भी? बन जाएँगे ।’

‘तुम पीछे से निकल जाओगे । पहले तुम घोड़ा बन जाओ मैं सवारी कर लूँ, फिर मैं बनूँगा ।’

सुरेश ने सचमुच चकमा देना चाहा था । मंगल की बात साथियों से बोला-देखो इसकी बदमाशी, भंगी है न!

तीनों ने मंगल को घेर लिया और जबरदस्ती घोड़ा बना । सुरेश ने चटपट उसकी पीठ पर आसन जमा लिया और टिकटिक करके बोला-चल, घोड़े चल ।

मंगल कुछ देर तक तो चला, लेकिन उस बोझ से उसकी कमर टूटी जाती थी । उसने धीरे से पीठ सिकोड़ी और सुरेश की रान के नीचे से सरक गया सुरेश महोदय लद से गिर पड़े और भोंपू बजाने लगे ।

माँ से सुना, सुरेश कहीं रो रहा है । सुरेश कहीं रोए, तो तेज कानों में जरूर भनक पड़ जाती थी और उसका रोना भी बिलकुल निराला होता था, जैसे छोटी लाइन के इंजन की आवाज ।!

महरी से बोली-देख तो, सुरेश कहीं रो रहा है, पूछ तो किसने मारा है?

इतने में सुरेश खुद आँख मलता हुआ आया । उसे जब रोने का अवसर मिलता था, तो माँ के पास फरियाद लेकर जरूर आता था । माँ मिठाई या मेवे देकर आँसू पोंछ देती थी । आप थे तो आठ साल के, मगर थे बिलकुल गावदी । हद से ज्यादा प्यार ने उसकी बुद्धि के साथ वही किया था, जो हद से ज्यादा भोजन ने उसकी देह के साथ ।

माँ ने पूछा-क्यों रोता है सुरेश किसने मारा? ।

सुरेश ने रोकर कहा-मंगल ने छू दिया । ।

माँ को विश्वास न आया । मंगल इतना निरीह था कि उससे किसी शरारत की शंका न होती थी; लेकिन जब सुरेश कसमें खाने लगा तो विश्वास करना स्वाभाविक था । मंगल को बुलाकर डाँटा-क्यों रे मंगल, अब तुझे बदमाशी सूझने लगी । मैंने तुझसे कहा था, सुरेश को कभी मत छूना, याद कि नहीं, बोल ।

मंगल ने दबी आवाज में कहा-याद क्यों नहीं है ।

‘तो फिर तूने उसे क्यों छुआ?’

‘मैंने नहीं छुआ ।’

‘तूने नहीं छुआ, तो वह रोता क्यों था?’

‘गिर पड़े इससे रोने लगे ।’

चोरी और सीनाजोरी! देवीजी दाँत पीसकर रह गईं । मारती, तो उसी दम स्नान करना पड़ता । छड़ी तो हाथ में लेना ही पड़ती और छूत का विद्युत-प्रवाह इस छड़ी के उनकी देह में पैवस्त हो जाता, इसीलिए जहाँ तक गालियाँ दे सकीं, दीं और हुक्म कि अभी-अभी यहाँ से निकल जा । फिर जो इस द्वार पर तेरी सूरत नजर आई, तो खून ही पी जाऊँगी । मुफ्त की रोटियाँ खा-खाकर शरारत सूझती है, आदि ।

मंगल में गैरत तो क्या थी, हाँ, डर था । चुपके से टाट का टुकड़ा बगल में दबाया, धोती कंधे पर रखी और रोता हुआ वहाँ से चल पड़ा । क्या हर्ज है? इस तरह जीने फायदा ही क्या? गाँव में उसके और कहाँ ठिकाना था?

भंगी को कौन पनाह देता? उसी खंडहर की ओर चला, जहाँ भले दिनों स्मृतियाँ उसके आँसू पोंछ सकती थी और खूब फूट-फूटकर रोया ।

उसी क्षण टामी भी उसे ढूंढ़ता हुआ पहुँचा और दोनों फिर अपनी व्यथा भूल गए ।

लेकिन ज्यों-ज्यों दिन का प्रकाश क्षीण होता मंगल की ग्लानि भी क्षीण होती थी । बचपन को बेचैन करने वाली भूख देह का रक्त पी-पीकर और भी बलवान होती थी । कहाँ अब तक सुरेश की जूठी मिठाइयाँ मिल गई होती । यहाँ क्या धूल फाँकें?

उसने टामी से सलाह की-खाओगे क्या कमी? मैं तो भूखा लेटा रहूँगा ।