Algyojha by Munshi Premchand
Algyojha by Munshi Premchand

भोला महतो ने पहली स्त्री के मर जाने के बाद दूसरी सगाई की, तो उसके लड़के रग्घू के लिए बुरे दिन आ गये। रग्घू की उम्र उस समय केवल दस वर्ष की थी। चैन से गाँव में गुल्ली-डंडा खेलता-फिरता था। माँ के आते ही चक्की में जुटना पड़ा। पन्ना रूपवती स्त्री थी। और रूप और गर्व में चोली- दामन का नाता है। वह अपने हाथों से कोई काम न करती। गोबर रग्घू निकालता, शाम को सानी रग्घू देता। रग्घू ही झूठे बरतन माँजता। भोला की आँखें कुछ ऐसी फिरीं कि उसे अब रग्घू में सब बुराइयां ही बुराइयाँ नजर आतीं। पन्ना की बातों को वह प्राचीन मर्यादानुसार आँखें बंद करके मान लेता था। रग्घू की शिकायतों की जरा परवाह न करता। नतीजा यह हुआ कि रग्घू ने शिकायत करना ही छोड़ दिया। किसके सामने रोये? बाप ही नहीं, सारा गाँव उसका दुश्मन था। बड़ा जिद्दी लड़का है, पन्ना को तो कुछ समझता ही नहीं, बेचारी उसका दुलार करती है, खिलाती-पिलाती है। यह उसी का फल है। दूसरी औरत होती, तो निबाह न होता। यह तो कहो, पन्ना इतनी सीधी-सादी है कि निबाह हो जाता है। सबल की शिकायतें सब सुनते हैं, निर्बल की फरियाद भी कोई नहीं सुनता। रग्घू का हृदय माँ की ओर से दिन-ब-दिन फटता जाता था। यहाँ तक कि आठ साल गुजर गये और एक दिन भोला के नाम भी मृत्यु का सन्देश आ पहुँचा।

पन्ना के चार बच्चे थे- तीन बेटे और एक बेटी। इतना बड़ा खर्च और कमाने वाला कोई नहीं। रग्घू अब क्यों बात पूछने लगा? यह मानी हुई बात थी। अपनी स्त्री लायेगा और अलग रहेगा। स्त्री आकर और भी आग लगाएगी। पन्ना को चारों ओर अँधेरा-ही-अँधेरा दिखाई देता था, कुछ भी हो, वह रग्घू की आसरैत बनकर घर में न रहेगी। जिस घर में उसने राज किया उसमें अब लौंडी न बनेगी। जिस लौंडे को अपना गुलाम समझा, उसका मुँह न ताकेगी। वह सुंदर थी, अवस्था अभी कुछ ऐसी ज्यादा न थी। जवानी अपनी पूरी बहार पर थी। क्या वह कोई दूसरा घर नहीं कर सकती? यही न होगा, लोग हंसेगे। बला से! उसकी बिरादरी में ऐसा होता नहीं? ब्राह्मण, ठाकुर थोड़े ही थी कि नाक कट जायेगी। यह तो उन्हीं जातों में होता है कि घर में चाहे जो कुछ करो, बाहर परदा टका रहे। वह तो संसार को दिखाकर दूसरा घर कर सकती है। फिर वह रग्घू की दबैल बनकर क्यों रहे?

भोला को मरे एक महीना गुजर चुका था। संध्या हो गयी थी। पन्ना इसी चिन्ता में पड़ी हुई थी कि सहसा उसे खयाल आया, लड़के घर में नहीं हैं। बैलों के लौटने की बेला है, कहीं कोई लड़का उसके नीचे न आ जाये। अब द्वार पर कौन है, जो उनकी देखभाल करेगा? रग्घू को मेरे लड़के फूटी आँखों नहीं भाते। कभी हंसकर नहीं बोलता। घर से बाहर निकली तो देखा, रग्घू सामने झोंपड़े में बैठा ऊख की गड़ेरिया बना रहा है। लड़के उसे घेरे खड़े हैं और छोटी लड़की उसकी गर्दन में हाथ डाले उसकी पीठ पर सवार होने की चेष्टा कर रही है। पन्ना को अपनी आंखों पर विश्वास न आया। आज तो यह नयी बात है। शायद दुनिया को दिखाता है कि मैं अपने भाइयों को कितना चाहता हूँ और मन में छुरी रखी हुई है। घात मिले तो जान ही ले ले! काला साँप है, काला साँप! कठोर स्वर में बोली-तुम सब-के-सब वहाँ क्या करते हो? घर में आओ, साँझ की बेला है, गोरू आते होंगे।

रग्घू ने विनीत नेत्रों से देखकर कहा-मैं तो हूँ ही काकी, डर किस बात का है?

बड़ा लड़का केदार बोला-काकी, रग्घू दादा ने हमारे लिए दो गाड़ियाँ बना दी हैं। यह देख, एक पर हम और खुन्नू बैठेंगे, दूसरे पर लछमन और झुनियाँ। दादा दोनों गाड़ियाँ खींचेंगे।

यह कहकर वह एक कोने से दो छोटी-छोटी गाड़ियाँ निकाल लाया। चार- चार पहिये लगे थे। बैठने के लिए तख्ते और रोक के लिए दोनों तरफ बाजू थे। पन्ना ने आश्चर्य से कहा- ये गाड़ियाँ किसने बनाईं?

केदार ने चिढ़ कर कहा-रग्घू दादा ने बनायी हैं, और किसने। भगत के घर से बसूला और रुखानी माँग लाये और चटपट बना दीं। खूब दौड़ती हैं काकी। बैठ खुन्नू, मैं खींचूं।

खुन्नू गाड़ी में बैठ गया। केदार खींचने लगा। चर-चर का शोर हुआ, मानो गाड़ी भी इस खेल में लड़कों के साथ शरीक है।

लछमन ने दूसरी गाड़ी में बैठकर कहा- दादा, खींचो।

रग्घू ने झुनिया को भी गाड़ी में बिठा दिया और गाड़ी खींचता हुआ दौड़ा। तीनों लड़के तालियाँ बजाने लगे। पन्ना चकित नेत्रों से यह दृश्य देख रही थी और सोच रही कि यह वही रग्घू है या कोई और।

थोड़ी देर बाद दोनों गाड़ियाँ लौटी, लड़के घर में आकर इस यान-यात्रा के अनुभव बयान करने लगे। कितने खुश थे सब, मानो हवाई जहाज पर बैठे हों। खुन्नू ने कहा- काकी, सच, पेड़ दौड़ रहे थे।

लछमन-और बछियाँ कैसी भागी, सब-की सब दौड़ी!

केदार- काकी, रग्घू दादा दोनों गाड़ियां एक साथ खींच ले जाते हैं।

झुनिया सबसे छोटी थी। उसकी व्यंजना-शक्ति उछल-कूद और नेत्रों तक सीमित थी-तालियाँ बजा-बजाकर नाच रही थी।

खन्नू- अब हमारे घर गाय भी आ जायेगी काकी! रग्घू दादा ने गिरधारी से कहा है कि हमें एक गाय ला दो। गिरधारी बोला, कल लाऊंगा।

केदार- तीन सेर दूध देती है काकी! खूब दूध पिएंगे।

इतने में रग्घू अंदर आ गया। पन्ना ने अवहेलना की दृष्टि से देखकर पूछा- क्यों रग्घू, तुमने गिरधारी से कोई गाय माँगी है?

रग्घू ने क्षमा-प्रार्थना के भाव से कहा- हाँ माँगी तो है, कल लायेगा। पन्ना- रुपये किसके घर से आएंगे? यह भी सोचा है?

रग्घू सोच लिया है काकी! मेरी यह मुहर नहीं है। इसके पच्चीस रुपये मिल रहे है, पाँच रुपये बछिया के मुजरा दे दूँगा! बस, गाय अपनी हो जायेगी। पन्ना सन्नाटे में आ गयी। अब उसका अविश्वासी मन भी रग्घू के प्रेम और सज्जनता को अस्वीकार न कर सका। बोली-मुहर को क्यों बेचे देते हो? गाय की अभी कौन जल्दी है? हाथ में पैसे हो जायें, तो ले लेना। सूना-सूना गला अच्छा न लगेगा। इतने दिनों गाय नहीं रही, तो क्या लड़के नहीं जिये?

रग्घू दार्शनिक भाव से बोला- बच्चों के खाने-पीने के यही दिन हैं काकी। इस उम्र में न खाया, तो फिर क्या खायेंगे। मुहर पहनना मुझे अच्छा भी नहीं मालूम होता। लोग समझते होंगे कि बाप तो गया, इसे मुहर पहनने को पड़ी है। भोला महतो गाय की चिंता ही में चल बसे। न रुपये आये और न गाय मिली। मजबूर थे, रग्घू ने यह समस्या कितनी सुगमता से हल कर दी। आज जीवन में पहली बार पन्ना को रग्घू पर विश्वास आया, बोली- जब गहना ही बेचना है तो अपनी मुहर क्यों बेचोगे? मेरी हँसली ले लेना।

रग्घू- नहीं काकी! वह तुम्हारे गले में बहुत अच्छी लगती है। मर्दों को क्या, मुहर पहनें या ना पहने।

पन्ना- चल, मैं बूढ़ी हुई। अब हँसली पहनकर क्या करना है। तू अभी लड़का है, तेरा सूना गला अच्छा न लगेगा।

रग्घू मुस्कराकर बोला- तुम अभी से कैसे बूढ़ी हो गई? गाँव में है कौन तुम्हारे बराबर?

रग्घू की सरल आलोचना ने पन्ना को लज्जित कर दिया। उसके रूखे -मुरझाए मुख पर प्रसन्नता की लाली दौड़ गयी।

पाँच साल गुजर गये। रग्घू का-सा मेहनती, ईमानदार, बात का धनी दूसरा किसान गाँव में न था। पन्ना की इच्छा के बिना कोई काम न करता। उसकी उम्र अब 23 साल की हो गयी थी। पन्ना बार-बार कहती, भैया, बहू को बिदा करा लाओ। कब तक नैहर में पड़ी रहेगी? सब लोग मुझ को बदनाम करते हैं कि यही बहू को नहीं आने देती, मगर रग्घू टाल देता था। कहता कि अभी जल्दी क्या है। उसे अपनी स्त्री के रंग-ढंग का कुछ परिचय दूसरों से मिल चुका था। ऐसी औरत को घर में लाकर वह अपनी शांति में बाधा नहीं डालना चाहता था।

आखिर एक दिन पन्ना ने जिद करके कहा- तो तुम न लाओगे?

कह दिया कि अभी कोई जल्दी नहीं है।

तुम्हारे लिए जल्दी न होगी, मेरे लिए तो जल्दी है। मैं आज आदमी भेजती हूँ।

पछताओगी काकी, उसका मिजाज़ अच्छा कहीं है।

तुम्हारी बला से, जब मैं उससे बोलूंगी ही नहीं, तो क्या हवा से लड़ेगी? रोटियाँ तो बना लेगी। मुझसे भीतर-बाहर का सारा काम नहीं होता, मैं आज बुलाये लेती हूँ।

बुलाना चाहती हो, बुला लो, मगर फिर यह न कहना कि यह मेहरिया को ठीक नहीं करता, उसका गुलाम हो गया।

न कहूँगी, जाकर दो साड़ियाँ और मिठाई ले आ।

तीसरे दिन मुलिया मैके से आ गयी। दरवाजे पर नगाड़े बजे, शहनाइयों की मधुर ध्वनि आकाश में गूँजने लगी। मुँह-दिखाई की रस्म अदा हुई। वह इस मरुभूमि में निर्मल जलधारा थी। गेहुँआ रंग था, बड़ी-बड़ी नुकीली पलकें, कपोलों पर हलकी सुर्खी, आंखों में प्रबल आकर्षण। रग्घू उसे देखते ही मंत्रमुग्ध हो गया। प्रातःकाल पानी का घड़ा लेकर चलती, तब उसका गेहुँआ रंग प्रभात की सुनहरी किरणों से कुंदन हो जाता, मानो उषा अपनी सारी सुगंध, सारा विकास और उन्माद लिये मुस्कराती चली जाती हो।

मुलिया मैके से ही जली-भूनी आयी थी। मेरा शौहर छाती फाड़कर काम करे, और पन्ना- रानी बनी बैठी रहे, उसके लड़के रईसजादे बने घूमें। मुलिया से यह बरदाश्त न होगा। वह किसी की गुलामी न करेगी, अपने लड़के तो अपने होते नहीं, भाई किसके होते हैं? जब तक पर नहीं निकलते हैं, रग्घू को घेरे हुए हैं। ज्यों ही जरा सयाने हुए, पर झाड़ कर निकल जाएंगे, बात भी न पूछेंगे।

एक दिन उसने रग्घू से कहा- तुम्हें इस तरह गुलामी करनी हो तो करो, मुझसे न होगी।

रग्घू फिर क्या करूँ, तू ही बता? लड़के तो अभी घर का काम करने लायक भी नहीं है।

मुलिया- लड़के रावत के हैं, तुम्हारे नहीं हैं। यही पन्ना है, जो तुम्हें दाने- दाने को तरसाती थी। सब सुन चुकी हूँ। मैं लौंडी बनकर न रहूँगी। रुपये-पैसे का मुझे कुछ हिसाब नहीं मिलता। न जाने तुम क्या लाते हो और वह क्या करती है? तुम समझते हो, रुपये घर ही में तो हैं, मगर देख लेना, तुम्हें जो एक फूटी कौड़ी भी मिले।

रग्घू- रुपये-पैसे तेरे हाथ में देने लगूं तो दुनिया क्या कहेगी, यह तो सोच।

मुलिया-दुनिया जो चाहे, कहे। दुनिया के हाथों बिकी नहीं हूँ। देख लेना भाड़ लीप कर हाथ काला ही रहेगा। फिर तुम अपने भाइयों के लिए मरो, मैं क्यों मरूँ?

रग्घू ने कुछ जवाब न दिया। उसे जिस बात का भय था, वह इतनी जल्द सिर पर आ पड़ी। अब अगर उसने बहुत खींचा, तो साल-छह महीने और काम चलेगा। बस, आगे यह डोंगा चलता नजर नहीं आता। बकरे की माँ कब तक खैर मनाएगी?

एक दिन पन्ना ने महुए का सुखावन डाला। बरसात शुरू होने वाली थी। बखार में अनाज गीला न हो। मुलिया से बोली- बहू, जरा देखती रहना, मैं तालाब से नहा आऊँ।