Algyojha by Munshi Premchand
Algyojha by Munshi Premchand

मुलिया ने लापरवाही से कहा, मुझे नींद आ रही है, तुम बैठकर देखो। एक दिन न नहाओगी तो क्या होगा?

पन्ना ने साड़ी उठाकर रख दी, नहाने न गयी। मुलिया का वार खाली गया। कई दिन के बाद एक शाम को पन्ना धान रोपकर लौटी, अँधेरा हो गया था। दिन-भर की भूखी थी। आशा थी, बहू ने रोटी बना रखी होगी, मगर देखा, तो यहाँ चूल्हा ठंडा पड़ा हुआ था, और बच्चे मारे भूख के तड़प रहे थे। मुलिया ने आहिस्ते से पूछा- आज अभी चूल्हा नहीं जला?

केदार ने कहा- आज दोपहर को भी चूल्हा नहीं जला काकी। भाभी ने कुछ बनाया ही नहीं।

पन्ना- तो तुम लोगों ने खाया क्या?

केदार-कुछ नहीं, रात की रोटियाँ थीं, खुन्नू और लछमन ने खायी। मैंने सत्तू खा लिया।

पन्ना- और बहू?

केदार- वह पड़ी सो रही है, कुछ नहीं खाया।

पन्ना ने उसी वक्त चूल्हा जलाया और खाना बनाने बैठ गयी। आटा गूंथती थी और रोती थी। क्या नसीब है? दिन-भर खेत में जली, घर आयी तो आग के सामने जलना पड़ा।

केदार का चौदहवीं साल था। भाभी के रंग-ढंग देखकर सारी स्थिति समझ रहा था। बोला-काकी, भाभी, अब तुम्हारे साथ रहना नहीं चाहती।

पन्ना ने चौंक कर पूछा- क्या कुछ कहती थी?

केदार- कहती कुछ न थी, मगर है उसके मन में यही बात। फिर तुम क्यों नहीं उसे छोड़ देतीं? जैसे चाहे रहे, हमारा भी भगवान् है।

पन्ना ने दाँतों से जीभ दबाकर कहा- चुप, मेरे सामने ऐसी बात भूलकर भी न कहना। रग्घू तुम्हारा भाई नहीं, तुम्हारा बाप है। मुलिया से कभी बोलोगे तो समझ लेना, जहर खा लूंगी।

दशहरे का त्यौहार आया। इस गाँव से कोस-भर पर एक पुरवे में मेला लगता था। गाँव के सब लड़के मेला देखने चले। पन्ना भी लड़कों के साथ चलने को तैयार हुई, मगर पैसे कहां से आयें? कुंजी तो मुलिया के पास थी।

रग्घू ने आकर मुलिया से कहा- लड़के मेले जा रहे हैं, सब को दो-दो पैसे दे दे।

मुलिया ने त्यौरियां चढ़ाकर कहा- पैसे घर में नहीं हैं।

रग्घू- अभी तो तिलहन बिका था, क्या इतनी जल्दी रुपये उठ गये?

मुलिया- हाँ उठ गये।

रग्घू- कहां उठ गये? जरा सुनू, आज त्यौहार के दिन लड़के मेला देखने न जायेंगे?

मुलिया- अपनी काकी से कहो, पैसे निकालें, गाड़ कर क्या करेंगी?

खूंटी पर कुंजी लटक रही थी। रग्घू ने कुंजी उतारी और चाहा कि संदूक खोले कि मुलिया ने उसका हाथ पकड़ लिया और बोली- कुंजी मुझे दे दो, नहीं तो ठीक न होगा। खाने-पहनने को भी चाहिए, कागज-किताब को भी चाहिए, उस पर मेला देखने को भी चाहिए। हमारी कमाई इसलिए नहीं है कि दूसरे खाएँ और मूंछों पर ताव दें।

पन्ना ने रग्घू से कहा- भैया, पैसे क्या होंगे। लड़के मेला देखने न जायेंगे। रग्घू ने झिड़क कर कहा- मेला देखने क्यों न जायेंगे? सारा गाँव जा रहा है। हमारे ही लड़के न जायेंगे?

यह कहकर रग्घू ने अपना हाथ छुड़ा लिया और पैसे निकालकर लड़कों को दे दिये, मगर जब कुंजी मुलिया को देने लगा तो उसने उसे आंगन में फेंक दिया और मुँह लपेटकर लेट गयी। लड़के मेला देखने नहीं गये। इसके बाद दो दिन गुजर गये। मुलिया ने कुछ नहीं खाया और पन्ना भी भूखी रही। रग्घू कभी इसे मनाता, कभी उसे, पर न यह उठती, न वह। आखिर रग्घू ने परेशान होकर मुलिया से पूछा- कुछ मुँह से भी तो कह, क्या चाहती है? मुलिया ने धरती को सम्बोधित करके कहा- मैं कुछ नहीं चाहती, मुझे मेरे घर पहुँचा दो।

रग्घू- अच्छा उठ, बना खा। पहुँचा दूँगा।

मुलिया ने रग्घू की ओर आँखें उठाई। रग्घू उसकी सूरत देखकर डर गया। वह माधुर्य, वह मोहकता, वह लावण्य गायब हो गया था। दाँत निकल आये थे, आँखें फट गयी थीं और नथुने फड़क रहे थे। अंगारे की-सी लाल आँखों से देखकर बोली- अच्छा, तो काकी ने यह सलाह दी है, यह मंत्र पढ़ाया है? तो यहाँ ऐसी कच्ची नहीं हूँ। तुम दोनों की छाती पर मूँग दलूँगी। हो किस फेर में?

रग्घू- अच्छा तो मूँग ही दल लेना। कुछ खा-पी लेगी, तभी तो मूंग दल सकेगी।

मुलिया- अब तो तभी मुँह में पानी डालूँगी, जब घर अलग हो जायेगा। बहुत झेल चुकी, अब नहीं झेला जाता।

रग्घू सन्नाटे में आ गया। एक दिन तक उसके मुंह से आवाज ही न निकली। अलग होने की उसने स्वप्न में भी कल्पना नहीं की थी। उसने गाँव में दो-चार परिवारों को अलग होते देखा था। वह खूब जानता था, रोटी के साथ लोगों के हृदय भी अलग हो जाते हैं। अपने हमेशा के लिए गैर हो जाते हैं। फिर उनमें वही नाता रह जाता है, जो गाँव के और आदमियों में। रग्घू ने मन में ठान लिया था कि इस विपत्ति को घर में न आने दूँगा, मगर होनहार के सामने उसकी एक न चली। आह! मेरे मुँह में कालिख लगेगी, दुनिया यही कहेगी कि बाप के मर जाने पर दस साल भी एक में निबाह न हो सका। फिर किससे अलग हो जाऊं? जिनको गोद में खिलाया, जिनको बच्चों की तरह पाला, जिनके लिए तरह-तरह के कष्ट झेले, उन्हीं से अलग हो जाऊँ। अपने प्यारों को घर से निकाल बाहर करूँ? उसका गला फँस गया। काँपते हुए स्वर में बोला- तू क्या चाहती है कि मैं अपने भाइयों से अलग हो जाऊँ? भला सोच तो, कहीं मुँह दिखाने लायक रहूँगा? मुलिया-तो मेरा इन लोगों के साथ निबाह न होगा।

रग्घू- तो तू अलग हो जा। मुझे अपने साथ क्यों घसीटती है?

मुलिया- तो मुझे क्या तुम्हारे घर में मिठाई मिलती है? मेरे लिए क्या संसार में जगह नहीं है?

रग्घू- तेरी जैसी मर्जी, जहाँ चाहे रह। मैं अपने घरवालों से अलग नहीं हो सकता। जिस दिन इस घर में दो चूल्हे जलेंगे, उस दिन मेरे कलेजे के दो टुकड़े हो जायेंगे। मैं यह चोट नहीं सह सकता। तुझे जो तकलीफ हो, वह मैं दूर कर सकता हूँ। माल-असबाब की मालकिन तू है ही, अनाज-पानी तेरे ही हाथ है, अब रह क्या गया है? अगर कुछ काम-धंधा करना नहीं चाहती तो मत कर, भगवान ने मुझे कमाई दी होती, तो मैं तुझे तिनका तक उठाने नहीं देता। तेरे यह सुकुमार हाथ-पाँव मेहनत-मजूरी करने के लिए बनाये ही नहीं गये हैं, मगर क्या करूँ, अपना कुछ बस ही नहीं है। फिर भी तेरा जी कोई काम करने को न चाहे, मत कर, मगर मुझसे अलग होने को न कह, तेरे पैरों पड़ता हूँ।

मुलिया ने सिर से आँचल खिसकाया और जरा समीप आकर बोली- मैं काम करने से नहीं डरती, न बैठे-बैठे खाना चाहती हूँ मगर मुझसे किसी की धौंस नहीं सही जाती। तुम्हारी काकी घर का काम-काज करती हैं, तो अपने लिए करती हैं, अपने बाल-बच्चों के लिए करती हैं। मुझ पर कुछ एहसान नहीं करती, फिर मुझ पर धौंस क्यों जमाती हैं? उन्हें अपने बच्चे प्यारे होंगे, मुझे तो तुम्हारा आसरा है। मैं अपनी आंखों से यह नहीं देख सकती कि सारा घर तो चैन करे, जरा- जरा से बच्चे तो दूध पिएँ और जिसके बल-बूते पर गृहस्थी बनी हुई है, वह मट्ठे को तरसे। कोई उसका पूछने वाला न हो। जरा अपना मुँह तो देखो, कैसी सूरत निकल आयी है। औरों के तो चार बरस में अपने पट्ठे तैयार हो जायेंगे। तुम तो दस साल में खाट पर पड़ जाओगे। बैठ जाओ, खड़े क्यों हो? क्या मारकर भागोगे? मैं तुम्हें जबरदस्ती न बाँध लूँगी, क्या यह मालकिन का हुक्म नहीं है? सच कहूं, तुम बड़े कठ-कलेजी हो। मैं जानती, ऐसे निर्मोही से पाला पड़ेगा, तो इस घर में भूल से न आती। आती भी तो मन न लगाती, मगर अब तो मन तुमसे लग गया। घर भी जाऊँ तो मन यहाँ ही रहेगा। और तुम जो हो, मेरी बात नहीं पूछते। मुलिया की ये रसीली बातें रग्घु पर असर न डाल सकीं। वह उसी रुखाई से बोला- मुलिया, मुझसे यह न होगा। अलग होने का ध्यान करते ही मेरा मन जाने कैसा हो जाता है। यह चोट मुझसे न सही जायेगी।

मुलिया ने परिहास करके कहा- तो चूड़ियां पहनकर अंदर बैठो न! लाओ मैं मूंछें लगा लूँ। मैं तो समझती थी कि तुममें भी कुछ कस-बल है। अब देखती हूँ तो निरे मिट्टी के लोंदे हो।

पन्ना दालान में खड़ी दोनों की बातचीत सुन रही थी। अब उससे न रहा गया। सामने आकर रग्घू से बोली- जब वह अलग होने पर तुली हुई है, फिर तुम क्यों उसे जबरदस्ती मिलाये रखना चाहते हो? तुम उसे लेकर रहो, हमारे भगवान् मालिक हैं। जब महतो मर गये थे और कहीं पत्तों की भी छाँह न थी, जब उस वक्त भगवान् ने निबाह दिया, तो अब क्या डर? अब तो भगवान् की दया से तीनों लड़के सयाने हो गये हैं। अब कोई चिन्ता नहीं।

रग्घू ने आंसू भरी आंखों से पन्ना को देखकर कहा- काकी, तू भी पागल हो गयी है क्या? जानती नहीं, दो रोटियाँ होते ही दो मन हो जाते हैं।

पन्ना- जब यह मानती ही नहीं, तब तुम क्या करोगे? भगवान् की यही मरजी होगी, तो कोई क्या करेगा? परालब्ध में जितने दिन एक साथ रहना लिखा था, उतने दिन रहे। अब उसकी यही मरजी है, तो यही सही। तुमने मेरे बाल- बच्चों के लिए जो कुछ किया, वह भूल नहीं सकती। तुमने इनके सिर हाथ न रखा होता, तो आज इनकी न जाने क्या गति होती, न जाने किसके द्वार पर ठोकरें खाते होते, न जाने कहां-कहां भीख माँगते फिरते। तुम्हारा जस मरते दम तक गाऊंगी। अगर मेरी खाल तुम्हारे जूते बनाने के काम आये, तो खुशी से दे दूँ। चाहे तुमसे अलग हो जाऊँ, पर जिस घड़ी पुकारोगे, कुत्ते की तरह दौड़ी आऊंगी। यह भूलकर भी न सोचना कि तुमसे अलग होकर मैं तुम्हारा बुरा चाहूंगी। जिस दिन तुम्हारे लिए कोई बुरी भावना मेरे मन में आयेगी, उसी दिन विष खाकर भर जाऊंगी। भगवान् करे, तुम दूधों नहाओ, पूतों फलो। मरते दम तक यही असीस मेरे रोएँ-रोएँ से निकलती रहेगी। और अगर लड़के भी अपने बाप के हैं, तो मरते दम तक तुम्हारा पोस मानेंगे।

यह कहकर पन्ना रोती हुई वहाँ से चली गयी। रग्घू वहीं मूर्ति की तरह बैठा रहा। आसमान की ओर टकटकी लगी थी और आँखों से आँसू बह रहे थे।

पन्ना की बातें सुनकर मुलिया समझ गयी कि अब अपने पौ बारह हैं। चटपट उठी, घर में झाडू लगाई, चूल्हा जलाया और कुएँ से पानी लाने चली। उसकी टेक पूरी हो गयी थी।

गाँव में स्त्रियों के दो दल होते हैं- एक बहुओं का, दूसरा सास का। बहुएं सलाह और सहानुभूति के लिए अपने दल में जाती हैं, सास अपने में। दोनों की पंचायतें अलग होती हैं। मुलिया को कुएँ पर दो-तीन बहुएँ मिल गई। एक ने कहा- आज तो तुम्हारी बुढ़िया बहुत रो-धो रही थी।

मुलिया ने विजय के गर्व से कहा- इतने दिनों से घर की मालकिन बनी हुई हैं, राज-पाट छोड़ते किसे अच्छा लगता है? बहन, मैं इसका बुरा नहीं चाहती, लेकिन एक आदमी की कमाई में कहां तक बरकत होगी। मेरे भी तो यही खाने- पीने, पहनने-ओढ़ने के दिन हैं। अभी उनके पीछे मरो, फिर बाल-बच्चे हो जायें, उनके पीछे मरो। सारी जिन्दगी रोते ही कट जाये।

एक बहू- बुढ़िया यही चाहती है कि यह जन्म-भर लौंडी बनी रहे। मोटा- झोटा आये और पड़ी रहे।

दूसरी बहू- किस भरोसे पर कोई मरे? अपने लड़के तो बात नहीं पूछते, पराये लड़कों का क्या भरोसा? कल इनके हाथ-पैर हो जायेंगे, फिर कौन पूछता है! अपनी-अपनी मेहरियों का मुँह देखेंगे। पहले ही से फटकार देना अच्छा है, फिर तो कोई कलंक न होगा।

मुलिया पानी लेकर गयी, खाना बनाया और रग्घू से बोली- जाओ, नहा आओ, रोटी तैयार है।

रग्घू ने मानो सुना ही नहीं। सिर पर हाथ रखकर द्वार की तरफ ताकता रहा।

मुलिया- क्या कहती हूँ कुछ सुनाई देता है? रोटी तैयार है जाओ नहा आओ।

रग्घू- सुन तो रहा हूं क्या बहरा हूँ? रोटी तैयार है तो जाकर खा ले। मुझे भूख नहीं है।

मुलिया ने फिर कुछ नहीं कहा। जाकर चूल्हा बुझा दिया, रोटियाँ उठाकर छीके पर रख दीं और मुंह ढक कर लेट रही।

जरा देर में पन्ना आकर बोली- खाना तो तैयार है, नहा-धोकर खा लो! बहू भी भूखी होगी।

रग्घू ने झुँझलाकर कहा- काकी, तू घर में रहने देगी कि मुँह में कालिख लगाकर कहीं निकल जाऊँ? खाना तो खाना ही है, आज न खाऊंगा, कल खाऊंगा, लेकिन अभी मुझसे न खाया जायेगा। केदार क्या अभी मदरसे से नहीं आया?

पन्ना- अभी तो नहीं आया, आता ही होगा।

पन्ना समझ गयी कि जब तक वह खाना बनाकर लड़कों को न खिलाएगी और खुद न खायेगी, रग्घू न खायेगा। इतना ही नहीं, उसे रग्घू से लड़ाई करनी पड़ेगी, उसे जली-कटी सुनानी पड़ेगी। उसे यह दिखाना पड़ेगा कि मैं ही उससे अलग होना चाहती हूँ नहीं तो वह इसी चिंता में घुल-घुलकर प्राण दे देगा। यह सोचकर उसने अलग चूल्हा जलाया और खाना बनाने लगी। इतने में केदार और खुन्नू मदरसे से आ गये। पन्ना ने कहा- आओ बेटा, खा लो, रोटी तैयार है।

केदार ने कहा- भैया को भी बुला लूँ न?

पन्ना- तुम आकर खा लो। उनकी रोटी बहू ने अलग बनायी है।

खुन्नू- जाकर भैया से पूछ न आऊँ?

पन्ना- जब उनका जी चाहेगा, खाएँगे। तू बैठकर खा, तुझे इन बातों से क्या मतलब? जिसका जी चाहेगा खायेगा, जिसका जी न चाहेगा, न खायेगा। जब वह और उसकी बीबी अलग रहने पर तुले हैं, तो कौन मनाये?

केदार- तो क्यों अम्माजी, क्या हम अलग घर में रहेंगे?

पन्ना- उनका जी चाहे, एक घर में रहें, जी चाहे आंगन में दीवार डाल-लें। खुन्नू ने दरवाजे पर आकर झाँका, सामने- फूस की झोंपड़ी थी, वहीं खाट पर पड़ा रग्घू नारियल पी रहा था।

खुन्नू-भैया तो अभी नारियल लिये बैठे हैं।

पन्ना- जब जी चाहेगा, खाएँगे।

केदार- भैया ने भाभी को डाँटा नहीं?

मुलिया अपनी कोठरी में पड़ी सुन रही थी। बाहर आकर बोली- भैया ने तो नहीं डाँटा, अब तुम आकर डाँटो।

केदार के चेहरे का रंग उड़ गया। फिर जबान न खोली। तीनों लड़कों ने खाना खाया और बाहर निकले। लू चलने लगी थी। आम के बाग में गाँव के लड़के- लड़कियाँ हवा से गिरे हुए आम चुन रहे थे। केदार ने कहा- आज हम भी आम चुनने चलें, खूब आम गिर रहे हैं।

खुन्नू-दादा जो बैठे हैं।

लछमन-मैं न जाऊंगा, दादा घुड़केंगे।

केदार- वह तो अब अलग हो गये।

लछमन- तो अब हमको कोई मारेगा, तब भी दादा न बोलेंगे?

केदार- वाह, तब क्यों न बोलेंगे?

रग्घू ने तीनों लड़कों को दरवाजे पर खड़े देखा, पर कुछ बोला नहीं। पहले तो वह घर के बाहर निकलते ही उन्हें डाँट बैठता था; पर आज वह मूर्ति के समान निश्चल बैठा रहा। अब लड़कों को कुछ साहस हुआ। कुछ दूर और आगे बढ़े। रग्घू अब भी न बोला, कैसे बोले। वह सोच रहा था, काकी ने लड़कों को खिला-पिला दिया, मुझसे पूछा तक नहीं। क्या उसकी आँखों पर भी परदा पड़ गया है, अगर मैंने लड़कों को पुकारा और वह न आयें तो? मैं उनको मार-पीट तो न सकूँगा। लू में सब मारे-मारे फिरेंगे। कहीं बीमार न पड़ जायें। उसका दिल मसोसकर रह जाता था, लेकिन मुँह से कुछ न कह सकता था। लड़कों ने देखा कि यह बिलकुल नहीं बोलते, तो निर्भय होकर चल पड़े।

सहसा मुलिया ने आकर कहा- अब तो उठोगे कि अब भी नहीं? जिनके नाम पर फाका कर रहे हो, उन्होंने मजे से लड़कों को खिलाया और आप खाया, अब आराम से सो रही हैं। ‘मोर पिया मोरी बात न पूछे, मोर सुहागिन नाव।’ एकबार भी तो मुँह से न पूछा कि चलो भैया, खा लो।

रग्घू को इस समय मर्मांतक पीड़ा हो रही थी। मुलिया के कठोर शब्दों ने घाव पर नमक छिड़क दिया। दुःखित नेत्रों से देखकर बोला- तेरी जो मर्जी थी, वही तो हुआ। अब जा, ढोल बजा!

मुलिया- नहीं, तुम्हारे लिए थाली परोसे बैठी हैं।

रग्घू- मुझे चिढ़ा मत। तेरे पीछे मैं भी बदनाम हो रहा हूँ। जब तू किसी की होकर नहीं रहना चाहती, तो दूसरे को क्या गरज है, जो तेरी खुशामद करे? जाकर काकी से पूछ, लड़के आम चुनने गये हैं, उन्हें पकड़ लाऊँ?

मुलिया अँगूठा दिखाकर बोली- यह जाता है। तुम्हें सौ बार गरज हो, जाकर पूछो।

इतने में पन्ना भी भीतर से निकल आयी, रग्घू ने पूछा- लड़के बगीचे में चले गये काकी, लू चल रही है।

पन्ना- अब उनका कौन पुछत्तर है? बगीचे में जाये, पेड़ पर चढ़े, पानी में डूबे। मैं अकेली क्या-क्या करूँ?

रग्घू- जाकर पकड़ लाऊँ?

पन्ना- जब तुम्हें अपने मन से नहीं जाना है तो फिर मैं जाने को क्यों कहूँ? तुम्हें रोकना होता तो रोक न देते? तुम्हारे सामने ही तो गये होंगे।

पन्ना की बात पूरी भी न हुई थी कि रग्घू ने नारियल कोने में रख दिया और बाग की तरफ चला।