नए घर का सपना-गृहलक्ष्मी की कहानियां: Naye Ghar ka Sapna Story
Naye Ghar ka Sapna Story

Naye Ghar ka Sapna Story: “टन-टन-टन-टन बरामदे की दीवार पर लगी हुई घड़ी सुबह के दस बजने की सूचना दे रही थी, जिसकी आवाज पूरे घर में सभी को बहुत ही आसानी से सुनाई भी दे रही थी “। बरामदे में रखी हुई खाने की टेबल जो कुछ समय पहले तक परिवार के सभी सदस्यों के लिए एकमात्र गपशप करने का स्थान हुआ करती थी। जहां पर सुबह बैठकर परिवार के सभी सदस्य अपने दिन भर के कार्यक्रम के बारे में बात करते थे और रात में दिन भर की गतिविधियों और उनसे जुड़े अनुभवों को साझा भी करते थे। मगर आज घर का यह स्थान गुमसुम और एक शांति को समेटे हुए था। परिवार के मुखिया श्री मनोहर शर्मा जी अपने कमरे में कुर्सी पर बैठे हुए अखबार पढ़ रहे थे। उनकी पत्नि निर्मला जी उन्हें चाय देकर बड़े बेटे अभिषेक को रसोई घर से चाय नाश्ता देने के लिए चली जाती हैं, छोटा बेटा राहुल अपने कमरे में अपनी परीक्षाओं की तैयारी करने में लगा हुआ था। बड़े बेटे अभिषेक को चाय – नाश्ता देकर वह छोटे बेटे राहुल को दूध और उसका मनपसंद नाश्ता देकर रसोई घर में दोपहर का खाना बनाने की तैयारी में लग जाती हैं। उनकी बेटी ललिता रसोई घर में मां के साथ कुछ काम करने के बाद अपने कॉलेज के लिए निकल जाती है। परिवार के सभी सदस्यों ने अपने ही कमरे में नाश्ता कर लिया था इसलिए खाने की टेबल अभी भी वीरान सी ही पड़ी हुई थी।

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एक घंटे के बाद अभिषेक अपने कमरे से बाहर निकल कर श्री मनोहर शर्मा जी के कमरे में चला जाता है और कहता है ” पिताजी,आपने कल शाम को हुई बात के बारे में क्या सोचा है ? आपका फैसला क्या है ? तभी निर्मला जी कमरे में दाखिल हो जाती हैं , श्री मनोहर शर्मा जी अपने बड़े बेटे अभिषेक से कहते हैं – ” बेटा मैंने इस विषय के बारे में कुछ सोचा है और एक निर्णय भी लिया है। जो मैं आज शाम को परिवार के सभी सदस्यों के सामने बता दूंगा”। अभिषेक अपनी मां की तरफ देखकर अपने पिताजी से कहता है -” ठीक है “,और अपने पिताजी और माताजी के चरण स्पर्श करता है, दोनों उसे आशीर्वाद दे देते हैं, अभिषेक उनका आशीर्वाद लेकर सीधा अपने दफ्तर के लिए निकल जाता है। घर से दफ्तर तक के रास्ते में अभिषेक बस यही सोचता रहता है, कि आख़िर पिताजी का निर्णय क्या होगा ?

कल रात को पूरा परिवार खाने की टेबल पर बैठकर अपना मनपसंद खाना खा रहा था और रोजमर्रा की तरह बातें कर रहा था तभी इन सब के बीच में अभिषेक घर की मरम्मत कराने की बात करता है, श्री मनोहर शर्मा जी अपने बड़े बेटे की इस बात को स्वीकार करते हैं और एक अनुमान के अनुसार पांच लाख रूपए तक का खर्चा होने की बात कहते हैं, अभिषेक कुछ पलों बाद कहता है – ” पिताजी शहर से बाहर एक जमीन है जिसकी कीमत बीस लाख रूपए है, बैंक से दस लाख तक का लोन प्राप्त हो जायेगा अगर हम इस घर को बैंक में गिरवी रख दें तो आसानी से होम लोन के लिए पच्चीस लाख तक इकठ्ठा हो जायेंगे ” अभिषेक की यह बात सुनते ही श्री मनोहर शर्मा जी खाने के निवाले को खाते हुए रुक जाते हैं और कहते हैं -” बेटा यह सिर्फ एक घर नहीं है, यह हमारे सुख और दुख की निशानी है तुम सबका बचपन यहां बीता है इतनी सारी यादें जुड़ी हुई हैं इस घर से और तुम इसे बैंक में गिरवी रखने की बात कर रहे हो ताकि तुम होम लोन ले सको और जमीन का एक टुकडा खरीद सको, बेटा घर गिरवी रखकर “कर्जा” लेकर ज़मीन नहीं खरीदी जाती है। क्या तुमको इतना भी नहीं पता है ?

मां निर्मला जी अभिषेक के जाते ही श्री मनोहर शर्मा जी को समझाते हुए कहती हैं – ” सुनिए जी, अभिषेक का बहुत मन है उस ज़मीन को लेने का अब आप भी जरा सोचिए। हमारे बाद भी तो यह घर गिरवी रखा जा सकता है तो अभी क्यों नहीं ? उसने तो आपसे पूछा है अगर नहीं पूछता तो आप क्या कर लेते ? वह इतना कहकर वहां से चली जाती हैं। श्री मनोहर शर्मा जी यह सब सुनकर ख़ामोश ही रहते हैं और घर की छत पर टहलने लग जाते हैं,वह दोपहर का भोजन भी नहीं करते हैं। शाम होते ही वह छत से नीचे आकर घर के बाहर बने हुए बगीचे में पेड़ों को पानी देने लगते हैं और पुराने पत्तों को काटने लग जाते हैं। कुछ ही पलों के बाद अभिषेक घर आ जाता है, अभिषेक पिताजी को बगीचे में यह सब करते हुए देखता है और बिना कुछ बोले घर के अंदर चला जाता है और कपड़े बदलने लग जाता है। राहुल और ललिता भी घर वापिस आ जाते हैं। रात को परिवार के सभी सदस्य खाने की टेबल पर बैठ जाते हैं मां निर्मला जी सभी को खाना परोस देती हैं मगर कोई भी खाने के निवाले को अपने गले से नीचे नहीं उतारता।

यह सब देखकर श्री मनोहर शर्मा जी कहते हैं – ” कल के एक विचार पर मैंने अपना फैसला लिया है, बेटा अभिषेक तुम इस घर को बैंक में गिरवी रखकर कर्जा ले सकते हो और उस ज़मीन को ख़रीद कर अपने नए घर का सपना पूरा कर सकते हो वैसे भी इस घर की मरम्मत कराकर भी कोई फायदा नज़र नहीं आ रहा है। अभिषेक की आंखों से आंसु बहने लगते हैं वह कहता है – ” मुझे माफ कर दीजिए पिताजी मैं दोषी महसूस कर रहा हूं, इस घर से जुड़ी हुई यादों को मैं बेच नहीं सकता। आपने सही कहा था, पिताजी घर को गिरवी रखकर “कर्जा” लेकर ज़मीन नहीं खरीदी जाती है। और यादों को तो कभी भी गिरवी रख ही नहीं सकते।”कर्जा” एक दलदल होता है उससे जितना बाहर निकलोगे उतना ही उसमें फंसते जाओगे। पिताजी मुस्कुरा कर खाना खाने लगते हैं, यह देखकर अभिषेक भी बहुत खुश होने लगता है मानो उसने अपने नए घर का सपना अब पूरा कर लिया हो।