शशि-गृहलक्ष्मी की कहानियां: Sashi Hindi Story

Sashi Hindi Story: वह जानती थी कि घर की जिन परिस्थतियों से गुजर रही है इससे बेहतर और कुछ नहीं हो सकता। पिता जी असमय चल बसे। घर की जिम्मेदारियों का बोझ बढ गया। तब वह पैतीस की चल रही थी। विवाह की सारी संभावनाए क्षीण पड चुकी थीं। न सोैतेली मां को कोई फ्रिक थी न ही उसके सौतेले भाईयों को। ऐसे में घर आये रिश्ते को अस्वीकार कर देती है तो सारी उम्र असुरक्षा के माहौल में जीना पड़ेगा।
‘‘तू चाहे तो लडका देख सकती हो। वह कल आ भी रहा है,‘‘सौतेली मॉ बोली।
‘‘इसमें देखने जैसी क्या बात है। छुपाकर तो कुछ हो नहीं रहा है। उसी से कहो मुझे देख ले,’’ “शशि चिढी।
‘‘अब क्या देखेगा?’’ मॉ मुॅह बना कर बोली।

‘‘क्यों नहीं देखेगा? भले ही एक पैर कब्र में हो, है तो एक पुरूष ही।’’ शशि ने भले ही जलभुनकर कहा हो मगर सच नग्न होकर उसके सामने था। भडास निकाल कर जी हल्का का लेना और बात थी।
वर आया। उसके साथ उसका जवान बेटा भी था। अच्छी खासी कद काठी वाले बेटे को देखकर शशि लुब्ध हो गयी। वह स्त्री थी। उसे भविष्य से बांधा जा रहा था। जबकि वह वर्तमान में जीना चाहती थी। इसलिए पहली नजर बेटे पर गयी। सुनने में आया कि उसके बच्चों ने ही उसे पुनर्विवाह के लिए बाध्य किया। मॉ ने उसकी भरपूर खातिर की। पहली पत्नी कैंसर से मरी थी। तन्हाई काटने को दोैडती होगी तभी तो दूसरी शादी के लिए तैयार हुआ। पुरूष कितना खुदगर्ज होता है, पहली पत्नी मरी नहीं कि दूसरी शादी के लिए तैयार हो गया। वही स्त्री से उम्मीद करता हेै कि वह पूरी जिंदगी उसकी यादों के सहारे गुजार दे।

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शशि ने उसांस ली।
उसे अपने सौतेले बेटे सुशील से बातें करना अच्छा लगता। उम्र में सिर्फ 5-7 साल की फर्क था। अपनी मॉ के किस्से,पति हरीश की आदतें और न जाने क्या क्या वह खाली समय में उससे कहता। धीरे धीरे शशि भी उससे घुलमिल गयी। एक रोज घर के सभी सदस्य शादी में गये थे। सिवाय शशि के। रात ग्यारह बजे वह सोने का उपक्रम कर रही थी। तभी फाटक पर किसी का दस्तक हुआ। खिडकी से झांककर बाहर देखा।
सामने सुशील था। फाटक खोला। वह तेजी से चलकर कमरे में आया। आते ही बिस्तर पर लेट गया।
‘‘क्या बात है बाकी लेाग कहां है?’’शशि पूछी
‘‘वे लोग सुबह आएगे। मेरे पेैर में दर्द हो रहा था। इसलिए चला आया।’ उसका जवाब था। शशि ने तेल गर्म किया। उसके पेैरो में लगाने लगी। आहिस्ता आहिस्ता शशि ने महसूस किया उसके रक्त प्रवाह सामान्य नही रहे। उसके तनबदन में एक अजीब सी मादक सुगबुगाहट होने लगी। एकाएक कुछ सोचकर उसने अपने हाथ खिंच लिए। भागकर अपने कमरे में आयी। उसकी सांसे तेजी से चल रहे थे। यह कैसी अनुभूति? वह अपराध बोध से घिर गयी। कैसा रास्ता प्रकृति ने सुझाया। ईश्वर की तरफ देखा। वह मुस्कुरा रहा था।
‘‘अच्छी परीक्षा ले रहे हो’’,उसने मन ही मन कहा। सुशील क्या सोचेगा? उसने कुछ जाना तो ? पति को क्या मुख दिखायेगी?बच्चे क्या सेाचेगे? तभी मन की दिश बदली।‘‘बच्चे? किसके बच्चे? पति है तो सिर्फ नाम का। सुशील उसका बेटा नहीं। मां कहने से कोई मां नहीं हो जाता। मेरे जज्बातो को कुचला गया। मेरी ख्वाहिशें का गला घोंटा गया। एक मासूम कली को बगैर खिले मुरझाने के लिए छोड़ दिया गया। तिसपर मैं ही दोषी? पाप की भागीदारिनी सिर्फ मैं?दंद्व चलता रहा। ‘‘पाप कैसा पाप। पुण्य भी कैसा जैसे संडास से आता गंध। जिसे सूंघने के लिए मुझे विवश किया गया। और एक वह मेरा पति हरीश
जो पाप करके भी पुण्य कमा रहा है। उसका क्या गया। उसे बुढापे में एक जवान बीवी मिल गयी। मगर मुझे क्या मिला? सिर्फ नाम देने से रिश्ता नहीं बनता। उसे मन की गहराई तक उतारना पड़ता है। कहने को वह सुशील की मॉ थी मगर उसके मन ने उसे कभी नही स्वीकारा।
शशि ने भी तय कर लिया था। पति पत्नी सिर्फ नाम के वे थे। थकां मांदा हरीश सीधे बिस्तर पर पड जाता। ऐसे में जब उसे सुशील की निकटता मिलती वह चहक उठती। किसी न किसी बहाने वह उससे बातें करती। सुषील भी उसी में रमा रहता। हरीश के कहने पर सुषील के साथ सिनेमा जाती। यह क्रम अक्सर ही दुहराया जाता। हाल का गहन अंधकार एक अवसर का निमंत्रण देता। अंगुलिया थिरक उठती। वर्जनाएं आखिर कबतक पाप पुण्य में उलझी रहती। अंगुलियों को अंगुलियों का स्पर्श मिला। वे मचल पडी। सारा शरीर वीणा के तार की तरह झंकृत हो उठा। सागर में अंसख्य लहरे उमड पडी।
हरीश उसे रद्दी के पन्नों की तरह लगा। एक ढहता हुआ मकान था वह। क्या समझा था? मुझे धन दौलत देकर गुलाम बना देगा? मछली को दो बूंद पानी में तैरायेगा? पुरूश है इसलिए?’’ एक कुटिल मुस्कान शशि के अधरो पर तिर गयी।
हरीश की अनुभवी आंखे ज्यादा दिनों तक यर्थाथ से अनभिज्ञ न रह सकी। वह परिवर्तन को ताड गया। शशि ने भी मन बना लिया था कि अधिक से अधिक क्या होगा? हरीश उसे त्याग देगा?बात आगे बढेगी तो लेाग थूकेगे? थूकते तो तब भी थे जब वह कॅुवारी थी। अंकषायनी तो सभी बनाना चाहे मगर बिना सात फेरो के। तब और अब में कोई खास फर्क नही था। बंद कमरे से निकलकर चेहरा झुकाये सुशील जाने लगा।
‘‘रूको, तुम जाओगे नहीं,’’ हरीश कडका। शशि ने बचने का केाई प्रयास नहीं किया। एक न एक दिन सच खुलकर सामने आता ही। सो वह डटी रही।
‘‘क्या तुम शशि से “ाादी करोगे?’’हरीश ने ऐसा क्यों कहा। क्या वह दोनो को परखना चाहता था? शशि सजग हो गयी। शशि ने पसरे सन्नाटे को तोडा। ’’वह क्या जवाब देगा? जवाब तो मैं दूॅगी।’’ हरीष के लिए यह आग में घी की तरह था। सुषील के कान खडे हो गये।
हरीष की नजरें उसका पीछा करने लगी। ‘‘इंतजार करो, मैं अभी आयी। कहकर
शशि तेजी से चलकर अपने कमरे में गयी। अंदर से दरवाजा बंद कर लिया। वह कहती रही,’’हरीष , मैं किसी नई परंपरा की शुरूआत नहीं करने वाली नहीं । क्योंकि मैं जानती हॅू कि तुम भावावेष में ऐसा कह रहे हो। तुम्हें मुझसे नफरत है और मै इसी नफरत का का खत्म करना चाहती हॅू। मेरी अब कोई ख्वाहिश नहीं। मैं पुर्नजन्म में विश्वास नहीं करती। क्योंकि ऐसा हुआ भी तो वही दुहराया जाएगा। मै न तो पुरुष बनकर, न ही स्त्री बनकर आना चाहती हॅॅॅॅूं।

स़्त्री बनी तो क्या मिलेगा और अगर पुरुष बनी तो क्या दूॅगी? यह मैंने तुमसे जाना। मैं जीत कर जा रही हॅू। मैंने कोई व्यभिचार नहीं किया। मैंने मान्यताएं तोडी है। वर्जनाओं को ध्वस किया है। अपने उपर हुए अत्याचार का प्रतिषेाध लिया है। मैं क्षमा भी नहीं मांगूगी।’’ कहते कहते शशि हांफ गयी। हरीष, सुशील के करीब आकर दरवाजा पीटने लगा। अंदर शशि का स्वर मंद पड गया। ‘‘शशि , दरवाजा खोलो।’’ आषंकित विपत्ति को भांप कर हरीश घबरा गया। लाख कोशिशों के बाद भी दरवाजा नहीं खुला तब बल देकर दोनों ने दरवाजा खोला। अंदर का दृश्य देखकर क्षणांश दोनों के धमनियों का रक्त सूख गया। शशि ने अपने गर्दन की नस को ब्लैड से काट लिया था। वह निश्चेत जमीन पर पडी हुयी थी। चेहरे पर पश्चताप की शिकन तक नहीं था।