Story in Hindi: मायके जाने की तैयारी करती सुनैना का मन यह सोच कर एक तरफ तो हर्षोल्लास से भर रहा था कि सालों बाद अपनी मां से मिलेगी, उनकी सेवा करेगी। भाई बहन भतीजे भतीजी से मिलेगी, ढेर सारी बातें करेंगी।
भाई बहन के बेटे तो अब बड़े हो गए होंगे, उनके चेहरे पर मूंछें भी आ गई होंगी, अब तो मेरा भतीजा और भांजा खुद दो बच्चों का बाप बन गया है। सोच कर रोमांचित हो रही थी वो।
दादी दादी करती बच्चियां उसकी गोद में आएंगी। जल्द से जल्द पहुंच जाना चाहती थी वो अपने मायके। जहां किसी को यह कानों कान खबर नहीं है कि सुनैना आने वाली है।
,,पर दूसरी तरफ बदलती परिस्थितियों से मन दुखी था। रिश्तों में दूरियां आ गई है। भाई बहनों में पहले वाला प्यार नहीं रहा। पता नहीं भतीजा और भांजा मिलने भी आएगा या नहीं? क्या एयरपोर्ट पर उसे लेने उसका भाई पहले की तरह ही उसका इंतजार करेगा अगर उसे बता देगी कि उसकी फ्लाइट कब लैंड करेगी?
उसके भाई बहन के बेटे अपनी बच्चियों को उसके पास आने देंगे या नहीं? ढेरों सवाल दिमाग में खलबली मचा रहे थे।
मां का वो झुर्रियों भरा चेहरा और मध्यम सी रुआंसी आवाज जो विडियो कॉल पर सुनी और चेहरा देखा तो तड़प उठा था सुनैना का हृदय मां से मिलने के लिए। सारे गिले सिकवे भुला उसने अपने मायके जाने की टिकट कटवा ली। पति को बताया तो उन्होंने तुरंत हामी भर दी।
रुपेश बोले,” मैंने तो तुम्हें मायके जाने से कभी नहीं रोका सुनैना। तुम्हारा जब तक मन लगे वहां रहना, जब आने का मन करे बोल देना मैं वापसी की टिकट भेज दूंगा।”
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कैसे कहती रुपेश से वो कि जो भाई बहन उसके आने का बेसब्री से इंतजार करते थे अब एक बार फोन पर भी नहीं पूछते है कि…
सुनैना कब आओगी? कई साल हो गए मिले हुए… तुम्हें देखें हुए… इस बार छुट्टियों में आ जाओ।
,,और जब अपने आने की खबर भाई को देने के लिए फोन किया तो उनकी आवाज में उदासी ही झलकी।
शायद इस चिंता में डूब गए थे कि कहीं अपना हिस्सा मांगने तो नहीं आ जाएगी।
मां तो सुनैना का इंतजार करते करते थक गई अब उसको ना तो दिखाई देता है और ना ही ठीक से सुनाई देता हैं फिर भी वो स्पर्श और आहट से ही उसे पहचान जाएगी। वो बुत बनी बिस्तर पर बैठी रहती है और हर आहट पर थोड़ा ठिठक जाती है। उससे जबरन सभी कागजातों पर हस्ताक्षर करवाते गए थे। बेटे की खुशी और लोक लाज के डर से कभी कुछ बोली ही नहीं। कुछ भी हो बेटा जैसे रखेगा वैसे ही तो रहना है बेटियों के पास उनके ससुराल में तो रह नहीं सकती। मुखाग्नि भी तो बेटे के हाथ से ही नसीब होगी। बेटियां तो पराया धन होती हैं। एक बार कन्यादान कर लिया तो उन पर अपनी जिम्मेदारियों को तो नहीं लादा जा सकता।
पद्मा जी आज भी पुरानी विचारधारा में ही जी रहीं थीं।
सुनैना ने कितनी दफा समझाया मां आपको वहां दिक्कत हो रही है जरा सी भी तो मैं और आपके दामाद जी आकर आपको ले आते हैं। यहां हमारे साथ रहिए। अब तो मेरे ससुराल में भी सभी भाईयों के बीच बंटवारा हो गया है तो आपको कोई दिक्कत नहीं होगी। जैसे भाई आपका बेटा है वैसे ही तो मैं आपकी बेटी हूं और जिस तरह मैंने रुपेश जी के परिवार और उनके सभी रिश्तों को अपना लिया है ठीक उसी तरह तो मेरा परिवार उनके लिए है। आप यहां आकर रहिए तो मन निश्चिंत रहेगा। आपका अच्छे से अच्छे डॉक्टर से इलाज करवाएंगे तो शायद आंखों की रोशनी वापस आ जाएं और आपके कान के लिए मशीन भी आ जाएगी।
,,पर पद्मा जी ने तो कसम खा ली थी कि वो चाहे भूखे मर जाए पर बेटे की दहलीज पार नहीं करेगी। अपना वो घर जो अपनी मेहनत से खून पसीने की कमाई से दोनों पति-पत्नी ने अपने सपनों का महल बनाया था वो तो बेटे ने बेच दिया जब पति भी उसके कांधे पर बच्चों की जिम्मेदारी छोड़कर स्वर्ग सिधार गए। अब बेटा जहां जैसे रखेगा वैसे ही रहेगी। गांव में भी बंटवारे के बाद मिली सारी जमीन और पुस्तैनी घर बेटे ने बेच दिया।
“मां गांव वाले कब्जा कर लेंगे उस जमीन पर उससे पहले हम उसे बेच ही देते हैं।”
कितना छटपटाई थी उस दिन पद्मा जी।
जब ग्यारह साल की उम्र में ब्याह कर अपने ससुराल आई तो उस नए घर से कितना जुड़ाव हो गया था। बंटवारे के बाद उसने अपना वो पसंदीदा कमरा अपने हिस्से में आने के लिए अपनी पति को अपने भाईयों से बात करने के लिए मनाया था।
बैग पैक करते वक्त सुनैना के मन में एक डर समाया हुआ था कि वहां क्या सब उसे देखकर पहले की तरह खुश होंगे।
पिता को गुजरे पन्द्रह साल हो गए थे। उन्होंने मरने से पहले अपनी वसीयत नहीं बनाई तो उनकी संपत्ति पर उनके इकलौते बेटे का ही पूरा अधिकार बन गया था। बहनों के बीच संपत्ति बंटवारे वाली कोई बात उठी ही नहीं। दोनों बहनों ने सिर्फ इतना ही तो चाहा था कि पिता की खरीदी जमीन पर उनके द्वारा बनवाया घर जिसमें तीनों भाई बहनों का बचपन बीता वो घर ना बिके। पर सुनैना का भाई दोस्तों के बहकावे में आ गया जब उन्होंने बार बार इस बात को दोहराया कि…
“अब पिता के जाने के बाद तेरी दोनों बहनें कभी भी अपना हिस्सा अपने पिता के मकान पर मांग सकतीं हैं तो तुम उस मकान को बेच दो। करोड़ों की संपत्ति है। वो बाद में भले कुछ पैसे दे देना पर उस घर का बंटवारा करने में तुम्हारा बहुत बड़ा घाटा होगा। भलाई इसी में होगी कि उसे बेच दो।”
जब तक पिता थे भतीजे भतीजी भाई भाभी सब उसे आने के लिए बुलाते थे और सुनैना अपने बच्चों को ससुराल में ही छोड़कर अकेले ही मायके जाती थी। रुपेश हर बार कोई ना कोई बहाना बना देते, कभी टिकट नहीं मिल रही तो कभी समय नहीं है और तुम चली जाओगी तो बच्चों के पास रहना जरूरी है।
वैसे तब तक संयुक्त परिवार था। सब मिलकर रहते थे। जिस तरह जेठानी और देवरानी के मायके या कहीं जाने पर वो पूरा घर संभाल लेती ठीक उसी तरह वो भी निश्चिंत होकर मायके जाती। तब तक सास ससुर थे तो कोई चिंता नहीं थी। ससुर जी के खत्म होने के बाद रोज के छोटे मोटे झगड़े और चिक-चिक से तंग आकर उसकी सास ने संपत्ति का बंटवारा करना ही उचित समझा और संपत्ति के बटवारे के साथ चारों भाईयों के रिश्ते में भी खट्टास आ गई।
अब कोई एक दूसरे के सुख दुख में शामिल नहीं होता। बहनों ने भी आना जाना बहुत कम कर दिया था।
मायका मां बाप से ही होता है, उनके जाने के बाद भाई भाभी भतीजे भतीजी पर निर्भर करता है कि वो संबंध बना कर रखना चाहते हैं या नहीं।
ताली एक हाथ से नहीं बजती दूसरा हाथ अगर साथ दे तभी ताली बजती है। ठीक इसी तरह कोई भी रिश्ता होता है जो दोनों तरफ से निभाया जाए तभी टिकता है वरना रेतमहल सा ढह जाता है।
सुनैना की तो भाभी भी कई साल पहले चल बसी थी। उनके जाने के बाद भतीजे भतीजी को बुआ के आने का बेसब्री से इंतजार रहता था। भाभी की याद आई तो आंखें भींग आई सुनैना की। उसकी भाभी तो हर बार फोन पर यही पूछती थी कब आ रही हो नैना,आप जल्दी आओ तो कुछ दिन मुझे भी आराम मिले। कितना अपनत्व झलकता था उसकी आवाज में।अब तो कान तरसते हैं वो आवाज़ सुनने के लिए। सुनैना अतीत में खोई उन पलों को जी रही थी जो भाई भाभी के साथ बिताए थे।
“मंझली भाभी कहां जाने की तैयारी हो रही है?” रीता उसकी कामवाली ने चहकते हुए पूछा।
“मम्मी के पास जा रही हूं।”
“अरे वाह! यह तो बहुत अच्छी बात है। सालों से आपके घर काम कर रहीं हूं। आपकों कभी मायके जाते देखा ही नहीं।”
“हां बीस साल है गए।”
“दईया रे! कईसे निष्ठुर हैं आपके मायके वाले। कभी आपके मायके से कोई आपकी खोज खबर लेने भी नहीं आता।”
“जा बातें मत बना और जल्दी जल्दी काम निपटा।” आंखों के कोर से टपक आए आंसुओं को पोंछती हुई सुनैना बोली थी।
रीता सच ही तो कह रही थी कि वो लोग निष्ठुर ही तो होते हैं जो बेटी की खोज खबर लेने कभी उसके ससुराल नहीं आते।
भाई से तो फोन पर बात किए हुए भी सालों बीत गए थे।
उसे अपने बच्चों और रुपेश की भी चिंता हो रही थी कि उसके जाने के बाद खाने पीने का इंतजाम कैसे करेंगे। बच्चे तो पूरी तरह उस पर निर्भर थे। एक ग्लास पानी तक खुद लेकर नहीं पीते थे। सुनैना के दो बेटे ही हैं,बेटी के लिए मन तरसता है पर कभी सोचती है अच्छा ही है जो उसकी बेटी नहीं है वरना मायके और ससुराल के बीच भाईयों के आपसी बंटवारों में उसकी तरह वो भी पिसती रहती।
अपनी जेठानी देवरानी जिन्हें अपनी बहन और सहेली समान मानती थी अब वो भी उसको देखना पसंद नहीं करती।
अब उसने ठान लिया था कि वो रिश्तों के बीच उठी इस दीवार को गिराने का पूरा प्रयास करेगी। उसने अपनी जेठानी की पसंद की खीर बनाई और उन्हें देने चली गई उनसे खोंईंचा लेकर ही तो मायके जाएगी। गले लगकर खूब रोई और पैर छूकर माफी मांगी।
“जो भी गलती हुई हो हमसे भूल जाईए ना दीदी। इस बंटवारे के दर्द से हमेशा तकलीफ़ ही मिली है।”
“ठीक कहती हो सुनैना। तुम निश्चिन्त होकर अपनी मां के पास जाओ यहां हम हैं ना किसी बात की चिंता मत
करो।”
सासूमां के दिए गहने उसने अपनी जेठानी के हाथ में दे दिए जिस कारण उनके बीच मनमुटाव हुआ था।
“मुझसे ज्यादा आपका अधिकार है इन गहनों पर।”
“नहीं यह तुझ पर ही जंचते हैं और अब इन्हें तूं अपने दोनों बेटों की पत्नियों को देना।”
मन के सारे गिले-शिकवे दूर करके ही अपनी जेठानी के हाथों से खोंईंचा ले अपनी मां से मिलने बादलों से गुजरती एक शहर से दूसरे शहर जा रही थी। जिस तरह जेठानी ने उसे गले लगाया उसी तरह उसकी बहन और भाई भी उससे गले मिलकर खुश होंगे इसी उम्मीद के साथ।
