Hindi Moral Story
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Hindi Moral Story: ” मनोरमा देवी…!,मिसेज देवी…!,ऊन वाली चाची…!,..चाची…!कहाँ खो गईं आप?”

वहां मौजूद मंच संचालिका आयुषी ने वहां बैठी मनोरमा देवी को लगभग झिंझोड़ते हुए कहा।

“ मनोरमा जी!! मनोरमा जी!!”

अपना नाम सुनते ही मनोरमा जी जैसे जाग उठीं हों 

“हँ…अँ…!, हां हां!!!मनोरमा जी अचानक ही अपनी विचारों से बाहर लौट आईं।उन्होंने माफी मांगते हुए कहा

“हम त उन पुरान दुनिया में खो गए थे…!”

“जी चाची जी, हम लोगों ने आपसे यही तो कहा था कि आप अपनी पुरानी यादों को हमलोगों से शेयर कीजिए।

आज आपकी उपलब्धि मील का पत्थर हो गई है।

आपकी खुद की कहानी सैकड़ों महिलाओं के लिए आदर्श बन सकता है।

हर महिला को अच्छी शिक्षा और सम्मान मिले यह जरूरी तो नहीं और वो भी हमारे देश में…,जहाँ हर महिला को संघर्ष करना ही पड़ता है चाहे वह कितनी भी एजूकेटेडेट हो…फिर आपने बहुत ही मजबूरी में पढ़ाई नहीं कर सकीं..!..फिर भी आप आज कामयाबी की मिसाल बन चुकीं हैं।

आपको राज्य सरकार द्वारा सम्मानित किया जा रहा है…!

आइए न… मंच पर आकर अपने बारे में कुछ बताइए जो आपने यहां तक सफर किया है!अपनी जिंदगी की तपिश के बारे में बताइए कि समय की भट्टी में तपकर आप किस प्रकार से सोना बन गई हैं।”

मंच संचालिका की बात सुन कर मनोरमा देवी लड़खड़ाते कदमों से मंच के तरफ बढ़ीं और कांपते हुए हाथों से उन्होंने माइक पकड़ लिया….!

पूरा हॉल उनके सम्मान में तालियां बजा रहा था।यह देख कर मनोरमा देवी की आँखों में आँसू निकल आए। वह ज्यादा बोल ही नहीं पाईं 

उन्होंने भरे गले से बस इतना कहा

“बहुत बहुत आभार आप सभी का…हम ज्यादा नहीं बोल पाएंगे…!,इसके बाद उनके स्वर लड़खड़ा गए और स्वर सिसकियों में बदल गए!

“कोई बात नहीं चाची,आप बैठ जाइए।हम सबको आपकी सफलता के बारे में बताते हैं…!

मनोरमा देवी अपनी कुर्सी पर आकर बैठ गईं।

मंच संचालिका ने ऊन वाली चाची उर्फ मनोरमा देवी के बारे में बतलाना शुरू किया।

वह बोलती जा रही थी और मनोरमा देवी बीते दिनों में दौड़ने लगीं थीं,,,

“ऐ मनु….!,ई लो तुम्हारे परीक्षा का परिणाम…!,तुम आठवीं कक्षा में प्रथम स्थान पाई हो…इसलिए विद्यालय तुमको आगे की पढ़ाई मुफ्त में कराएगा….!अपने बाबा को बता देना।”

“जी,गुरु जी लेकिन बाउजी तो पड़ोस के गांव गए हैं!”डरते हुए मनोरमा ने कहा।

“पड़ोस के गांव…मगर क्यों?”

“पता नहीं…?”भोली भाली सी आठवीं कक्षा में पढ़ने वाली मनोरमा अपनी आँखें झपकाते हुए बोली।

“अच्छा ठीक है।लो मिठाई खाओ,तुम्हारे कारण हमारे स्कूल का नाम हुआ है न…लो लेकर घर जाओ और सबको खिलाओ…!”

मास्टर जी ने मनु यानी मनोरमा के हाथों में गुलगुले की एक पोटली थमा दिया।

“धन्यवाद मास्टर जी!”

उसे लेकर मनु कैसी हिरणी की तरह भागी थी।

“अम्मा…अम्मा…!,लो मिठाई खाओ।मास्टर जी ने दिया है।”

“कैसी मिठाई..?”अम्मा ने टेढ़ी नजरों से उसे ताकते हुए कहा.., ये मास्टर मिठाई क्यों खिला रहा है तुझे ..!”

“अम्मा,  हम आठवीं  कक्षा प्रथम श्रेणी में पास कर गए इसलिए…अब हमारी फीस भी नहीं लगेगी…!”

पर अम्मा को क्या समझ आता भला.. वो कब स्कूल गई थी और फीस …प्रथम श्रेणी…!!!सबकुछ उनके समझ से ऊपर जा रहा था!

उन्होंने खींजते हुए कहा…”अच्छा ,बापू आएगा तो बता दियौ..!”

“अम्मा, बाउजी कहां गए हैं?”

“पड़ोस के गांव में.. सोनाली खातिर लड़का देखने…!”

“अच्छा, सोनाली दीदी अब ब्याह करेगी…!,हाहा…हँसते हुए मनु तितली की तरह उड़कर बाहर निकल आई…!

“ऐ हरी.. हम भी खेलेंगे..!”उसने बाहर निकल कर गांव के बाकी बच्चों को खेलते हुए देखकर बोली।

“अरे तो आओ न हम कब जो मना किए हैं…!पिट्टो के लिए खपड़े सजाते हुए हरी बोला।

“देख मनु,अगर जो हारी ना तो… !

ना ना तुझे जीतने का मौका नहीं देंगे बस..देखियो…!”

बच्चों के लड़ाई झगड़ों का शोरगुल मचा हुआ था कि रामशंकर जी की कड़कती आवाज गूंजने लगी

“म..नो..र..मा…!!!”

“जी बाउजी..!,अनजानी आशंका से मनोरमा घबरा उठी।

उसके खेल में व्यवधान आ गया था।

अपने खेल को इंटरवल में छोड़कर वह सिर झुकाए घर की तरफ दौड़ पड़ी।

“जी बाउजी…!”

“सुनो मनु की अम्मा…इसे अब जरा समझा दो..ऐंवी लड़कों के साथ खेल न खेले….,हम इसका ब्याह तय कर आए हैं..!”

“ब्.. या…ह….!!!,प…र बाउजी आप तो सोनाली दीदी का ब्याह तय करने गए थे ना…!”

बदले में बाउजी की घूरती आँखों ने उसकी रही सही हिम्मत भी चूस ली।

बस कानों में पिघलते शीशे की तरह बाउजी की आवाज गूंजी थी

“रमा देवी, खूब चढ़ा रखा है छोरी को सिर पर!

अब उससे बोलो..उसका ब्याह तय हो गया है.. तो घर बार,खेत खलिहान का काम सीखे…एही काम आवेगा…!”

“पर बाउजी…हम आठवीं कक्षा में प्रथम श्रेणी लाए हैं…हमारी आगे की सारी पढ़ाई  का खर्चा मास्टर जी ने माफ कर दिया है…!”

मनोरमा की यह आवाज गले में फंसी रह गई …और देखते ही देखते वह धनपत की दुल्हन बनकर नरेगा गांव से बहुत दूर कोसी जनपद में आ गई।

आँखों में आँसुओं के साथ मायके के दहलीज के साथ और भी बहुत कुछ छोड़ कर  ससुराल आ गई थी।

“नासपीटी….!!!,तेरे मांबाप ने कुछ भी नहीं सिखाया…बता इस करमजली को चूल्हा भी नहीं जलाना आता…कितना धुँआ…कर दी है…!”

“अम्मा जी..वो बरसात है न तो सारी लकड़ियां भीगी हुई हैं…!”

“तो बरसात में भोजन नहीं पकेगा कै…खाणा नहीं बनेगा…!”

हर बात के पीछे डांट, गाली गलौज के साथ मनोरमा यह भूल गई थी कि उसने कभी पूरे गांव का नाम रोशन किया था और उसके आँखों ने भी हजारों सपने देखे थे….!

बस अब घर बार,चौक तबेले तक ही उसकी जिंदगी सिमट कर रह गई थी।

देखते ही देखते पांच साल बीत गए और इन पांच सालों में मनोरमा चार बच्चों की अम्मा भी बन गई थी।

ससुराल में बहुत ज्यादा जमीन  जायदाद नहीं थी।मनोरमा अपने घर की सबसे छोटी बहू थी।

खेती ही मुख्य रुप से आय का साधन था।

धनपत तो पांचवीं भी पास नहीं था मगर उसमें इतनी मानवता थी कि वह अपनी पत्नी की बहुत इज्ज़त करता था।

अपने चारों बच्चों को  स्कूल में पढ़ा भी रहा था।

उस दिन धनपत खेतों में ही था।अचानक क्या हुआ पता नहीं.. तेज धूप का असर था या कोई अंदरूनी बीमारी!

वह एकाएक चक्कर खाकर गिर गया! आसपास के लोगों ने देखा तो उसे उठाकर घर लेकर आए।

गांव के हकीम वैद्य से लेकर, शहर के डॉक्टरों को भी दिखाया गया लेकिन सब ने जवाब दे दिया।

अब धनपत अपाहिज हो चुका था!!

कुछ दिनों तक सब कुछ ठीक रहा  लेकिन फिर धनपत के भाईयों की आंखों में लालच उतर आया।

उसके भाइयों ने सारी संपत्ति का बंटवारा कर लिया।

अपने हिस्से में सब ने खेत खलिहान, मवेशी, घर और ओसारा हथिया लिया।

धनपत के हिस्से में एक छोटा सा टांड़ दे दिया गया। उनके साथ भेड़ के दो बच्चे भी।

बड़ी मुश्किल आ गई थी मनोरमा के ऊपर।एक अपाहिज पति और उस पर चार बच्चे!

सबलोग खाने खाने को मुहताज गए थे। अब यह हाल हो गया था कि मनोरमा अपने ही ससुराल में दाई का काम कर पैसे लेती और अपना घर चलाती।

वह सुबह जल्दी उठती, चूल्हा जलाती, खाना बनाती।

अपने पति को दवा और भोजन खिलाने के बाद वह बच्चों को स्कूल भेजती।

फिर अपने ससुराल जाकर उनके सारे काम करती।

उसके बाद पूरे दिन खेतों के चट्टानों को तोड़ती रहती, क्योंकि जो बंटवारे में खेत उसके हिस्से में आया था, वह मात्र चट्टान ही था,जो खेती के लिए किसी काम का नहीं था।

बहुत मेहनत के बाद मनोरमा ने उस टांड़ को  अब सब्जी उगाने के लायक बना लिया था।

उसने धीरे-धीरे उसने सब्जियां लगाना शुरू किया।

भेड़ों के दोनों बच्चे बड़े हो गए थे।अब वे ऊन देने के लायक हो गए थे।अब वह उनसे ऊन निकाल कर खुद ऊन कातती और स्वेटर बुना करती थी।

जब स्वेटर बुन जाते थे तो वह उन्हें लेकर गांव, देहात के बाजारों में, इस गांव से उस गांव तक घूमती रहती थी।

शुरू में उसके इस काम के लिए घर बाहर हर जगह से उसे दुत्कारा गया।

उसे गांव से निकालने तक की धमकी दी गई लेकिन मनोरमा देवी अपने फैसले पर अटल रहीं।

धीरे धीरे उनकी मेहनत रंग लाई.अब छोटे दुकानदारों की नजर उसमें पड़ने लगी।

अब वे लोग अपना काम मनोरमा को देने लगे।

धीरे-धीरे मनोरमा का काम इतना बढ़ गया कि उसे अब सहायक रखने की जरूरत पड़ने लगी।

धीरे-धीरे वह गांव की महिलाओं को बुनाई की ट्रेनिंग भी देने लगी।वह उन्हें ऊन कातना भी सिखाती थी।

धीरे-धीरे उसकी मेहनत रंग लाती गई। राज्य सरकार की नजर मनोरमा पर पड़ गई।

मनोरमा के जीवन का संघर्ष  और मिली सफलता को सुनकर उसे सम्मानित करने के लिए  विमेंस डे पर बुलाया गया था।

अब उसकी किस्मत बदल गई थी। सब लोग उसे “ऊन वाली चाची” कह कर बुलाया करते थे।

तालियों की गड़गड़ाहट से मनोरमा देवी अपने अतीत से बाहर आई तो देखा सब लोग दिल खोलकर तालियां बजा रहे थे!

” ऊन वाली चाची…!,वहां मौजूद दर्शक दीर्घा ने कहा, एक बार आप कुछ बोल दीजिए!”

“बस यही बेटा लोग!.. कभी हार मत मानना चाहिए।मेहनत करने वालन सब जीत ही जाते है! “मनोरमा देवी मुस्कुरा उठीं।

उनके जीवन की तपस्या सार्थक हो चुकी थी।