Manto story in Hindi: दंगे जोरों पर थे। एक दिन मैं और अशोक बम्बई टॉकीज़ से वापिस आ रहे थे। रास्ते में उसके घर देर तक बैठे रहे। शाम को उसने कहा‒ ‘‘चलो, मैं तुम्हें छोड़ आऊं।’’ शॉर्टकट की वजह से वह मोटर को खालिस इस्लामी मुहल्ले में से ले गया। सामने से एक बारात आ रही थी। जब मैंने बैण्ड की आवाज सुनी तो मैं चौक गया। एकदम अशोक का हाथ पकड़कर मैं चिल्लाया‒ ‘‘दादामुनि, यह तुम किधर आ निकले?’’
अशोक मेरा मतलब समझ गया। मुस्कराकर उसने कहा‒ ‘‘कोई फिक्र न करो।’’
मैं क्यों न फिक्र करता। मोटर ऐसे इस्लामी मुहल्ले में थी जहां किसी हिन्दू का गुजर नहीं हो सकता था और अशोक को कौन नहीं पहचानता था, कौन नहीं जानता था कि वह हिन्दू है‒ एक बहुत बड़ा हिन्दू जिसका कत्ल महत्त्वपूर्ण होता। मुझे अरबी जुबान में कोई दुआ याद नहीं थी। कुरान की कोई मौजूं व मुनासिब आयत भी नहीं आती थी। दिल-ही-दिल में अपने ऊपर लानतें भेज रहा था और धड़कते हुए दिल से अपनी जुबान में बेजोड़-सी दुआ मांग रहा था कि ऐ खुदा, मुझे सुर्खरू रखियो। ऐसा न हो कोई मुसलमान अशोक को मार दे और सारी उम्र उसका खून अपनी गर्दन पर महसूस करता रहूं। यह गर्दन कौम की नहीं मेरी अपनी गर्दन थी, मगर यह ऐसी जलील हरकत के लिए दूसरी कौम के सामने शर्म की वजह से झुकना नहीं चाहती।
जब मोटर बारात के पास पहुंची तो लोगों ने चिल्लाना शुरू कर दिया‒ ‘‘अशोक कुमार! अशोक कुमार!’’ मैं बिलकुल जम गया। अशोक स्टेरिंग पर हाथ रखे खामोश था। मैं खौफ और हरास की यखबस्तगी से निकलकर हुजूम से यह कहने वाला था कि देखो, होश करो। मैं मुसलमान हूं। यह मुझे घर छोड़ने जा रहा है तभी दो नौजवानों ने आगे बढ़कर कहा‒ अशोक भाई, अगला रास्ता नहीं मिलेगा। इधर बाजू की गली से चले जाओ।’’
‘अशोक भाई?’ अशोक उनका भाई था और मैं कौन था‒ मैंने उसी वक्त अपने लिबास की तरफ देखा जो खादी का था। मालूम नहीं उन्होंने मुझे क्या समझा होगा। हो सकता है कि उन्होंने अशोक की मौजूदगी में मुझे देखा ही न हो।
मोटर जब उस इस्लामी मुहल्ले से निकली तो मेरी जान में जान आई। मैंने जब अल्लाह का शुक्र अदा किया तो अशोक हंसा‒ ‘‘तुम ख्वाहमख्वाह घबरा गये। आर्टिस्टों को ये लोग कुछ नहीं कहते।’’
चंद रोज बाद बम्बई टॉकीज़ में नजीर अजमेरी की कहानी (जो ‘मजबूर’ के नाम से फिल्म बंद हुई) पर जब मैंने कड़ी नुक्ताचीनी की और उसमें कुछ तब्दीलियां करनी चाहीं तो नजीर अजमेरी ने अशोक वाचा से कहा‒ ‘‘मंटो को आप ऐसे मुबाहसों के दौरान न बिठाया करें। वह चूंकि खुद अफसाना-नवीस है इसलिए मुतासिब (पूर्वाग्रही) है।’’
मैंने बहुत गौर किया। कुछ समझ में नहीं आया। आख़िर मैंने अपने आप से कहा‒ ‘‘मंटो भाई‒ आगे रास्ता नहीं मिलेगा, मोटर रोक लो, इधर बाजू की गली से चले जाओ।’’
और मैं चुपचाप बाजू की गली से पाकिस्तान चला आया, जहां मेरे अफसाने ‘ठंडा गोश्त’ पर मुकदमा चलाया गया।
