Manto story in Hindi: तुम्हारा लम्बा खत मिला, जिसे मैंने दो बार पढ़ा। दफ्तर में इसके एक-एक लफ्ज़ पर मैंने गौर किया और शायद इसी वजह से उस दिन मुझे रात के दस बजे तक काम करना पड़ा। इसलिए कि मैंने बहुत-सा वक्त इस सोच-विचार में गवा दिया था। तुम जानते हो, इस सरमायापरस्त दुनिया में अगर मजदूर निश्चित वक्त के एक-एक लम्हे के बदले, अपनी जान के टुकड़े तोलकर न दे तो उसे अपने काम की मज़दूरी नहीं मिल सकती। लेकिन यह रोना रोने से क्या फायदा?
शाम को अज़ीज़ साहब (जिसके यहां मैं आजकल ठहरा हुआ हूं) दफ्तर में तशरीफ लाए और कमरे की चाबियां दे कर कहने लगे‒ ‘‘मैं जरा काम से कहीं जा रहा हूं, शायद देर में आना हो, इसलिए तुम मेरा इंतज़ार किए बिना, चले जाना।’’ लेकिन फिर फौरन ही उन्होंने चाबियां जेब में डालीं और कहने लगे‒ ‘‘नहीं तुम मेरा इंतजार करना। मैं दस बजे तक लौट आऊंगा।’’
दफ्तरी काम से फारिग हुआ तो दस बज चुके थे। सख्त नींद आ रही थी। आंखों में बड़ी प्यारी-गुदगुदी हो रही थी। जी चाहता था, कुर्सी पर ही सो जाऊं।
नींद की इसी झोंक में ग्याहर बजे तक मैंने अज़ीज़ साहब का इंतज़ार किया, पर वे न आए। आखिर थककर मैंने घर की राह ली। मेरा ख्याल था कि वे उधर-से-उधर ही चले गए होंगे और आराम से सो रहे होंगे। धीरे-धीरे आधा मील का फासला तय करने के बाद, मैं तीसरी मंजिल पर चढ़ा और जब अंधेरे दरवाजे की कुण्डी की तरफ हाथ बढ़ाया तो लोहे के ताले की ठंडक ने मुझे बताया कि अज़ीज़ साहब अभी तशरीफ नहीं लाए।
सीढ़ियां चढ़ते समय मेरे थके हुए अंग सुकून-भरी नींद को महसूस करके और भी ढीले हो गए थे और जब मुझे निराशा का सामना करना पड़ा तो और शिथिल हो गए। देर तक काठ की सीढ़ी के एक जीने पर सिर को घुटनों में दबाए, अज़ीज़ साहब का इंतज़ार करता रहा, पर वे न आए आख़िरकार मैं उठा और तीन मंजिलें उतरकर, नीचे बाजार में आया और ऐसे ही टहलना शुरू कर दिया। टहलते-टहलते पुल पर जा निकला, जिसके नीचे से रेलगाड़ियां गुजरती हैं। इस पल के पास ही बड़ा चौक है। यहां लगभग आधा घंटे तक मैं बिजली के एक खम्भे के साथ लगकर खड़ा रहा और अपने सामने नीम-रोशन बाजार को इस उम्मीद पर देखता रहा कि अज़ीज़ साहब घर की तरफ लौटते नजर आ जाएंगे। आधा घंटे के इंतज़ार के बाद मैंने अचानक सिर उठाकर खम्भे के ऊपर देखा। बिजली का कुमकुमा मेरी हंसी उड़ा रहा था, जाने क्यों?
थकावट और नींद के झोंके की वजह से मेरी कमर टूट रही थी और मैं चाहता था, थोड़ी देर के लिए बैठ जाऊं। बंद दुकानों के चबूतरे मुझे दावत दे रहे थे, पर मैंने उनकी दावत क़बूल न की और चलता-चलता पुल की पथरीली मुंडेर पर चढ़कर बैठ गया। चौड़ा बाजार बिलकुल खामोश था। आना-जाना लगभग बंद था। अलबत्ता कभी-कभी दूर से मोटर के हॉर्न की रोनी आवाज खामोश फिज़ा में कम्पन पैदा करती हुई ऊपर की तरफ उड़ जाती थी। मेरे सामने सड़क के दोनों ओर बिजली के ऊंचे खम्भे दूर तक फैले चले गए थे, जो नींद और उसके एहसास से अनजान लगते थे। उनको देखकर मुझे रूस के मशहूर कवि म्यातलफ़ की नज़्म के कुछ शेर याद आ गए। यह नज़्म ‘चिराग-ए-राह’ के नाम समर्पित की गयी है। म्यातलफ सड़क के किनारे झिलमिलाती रोशनियों को देखकर कहता है‒
ये नन्हे दीप, ये नन्हे सरदार,
सिर्फ अपने लिए चमकते हैं,
जो कुछ ये देखते हैं, जो कुछ ये सुनते हैं
किसी को नहीं बताते।
रूसी कवि ने कुछ ठीक ही कहा है। मेरे पास ही एक गज के फासले पर बिजली का खम्भा गड़ा था और उसके ऊपर बिजली का एक चंचल आंखों वाला कुमकुमा नीचे झुका हुआ था। उसकी आंखें रोशन थीं, पर वह मेरे सीने की बेचैनी से बेख़बर था। उसे क्या पता, मुझ पर क्या बीत रही है।
सिगरेट सुलगाने के लिए मैंने जेब में हाथ डाला तो तुम्हारे वज़नी लिफाफे पर हाथ पड़ा। ज़ेहन में तुम्हारा खत पहले ही मौजूद था, चुनांचे मैंने लिफाफा खोलकर बसंती रंग के कागज निकालकर उन्हें पढ़ना शुरू किया। तुम लिखते हो‒ ‘‘कभी तुम शैतान बन जाते हो, और कभी फरिश्ता नजर आने लगते हो।’’ यहां भी दो-तीन आदमियों ने मेरे बारे में यही राय कायम की है और मुझे यकीन-सा हो गया है कि मैं सचमुच दो सीरतों का मालिक हूं। इस पर मैंने अच्छी तरह गौर किया है और जो नतीजा निकाला है, वह कुछ इस तरह बयान किया जा सकता है।
बचपन और लड़कपन में मैंने जो चाहा, वह पूरा न होने दिया गया। ज्यों कहो कि मेरी ख्वाहिशें कुछ इस तरह पूरी की गयीं कि उनकी पूर्ति मेरे आंसुओं और मेरी हिचकियों से लिपटी हुई थी। मैं शुरू ही से जल्दबाज, जज़्बाती और तुनुकमिज़ाज रहा हूं। अगर मेरा जी कोई मिठाई खाने को चाहा है और यह उसी वक्त पर पूरी नहीं हुई तो बाद में मेरे लिए उस मिठाई में कोई स्वाद नहीं रहा। इन बातों की वजह से मैंने हमेशा अपने गले में एक कड़वाहट-सी महसूस की और इस तल्खी की शिद्दत बढ़ाने में इस कमजोरी से जबरदस्ती नाजायज फायदा भी उठाया, वे मुझसे छल-कपट करते रहे और मजा यह है कि मैं उन तमाम दगाबाज़ियों के एहसास के बावजूद प्यार करता रहा। मुझे अच्छी तरह मालूम है कि वे अपनी हर राय नयी चाल की कामयाबी पर बहुत खुश होते थे कि उन्होंने मुझे बेवकूफ बना लिया और मेरी बेवकूफी देखो कि मैं सब कुछ जानते हुए भी, बेवकूफ बन जाता था।
जब इस सिलसिले में मुझे हर तरफ से निराशा हुई‒ यानी जिस किसी को मैंने दिल से चाहा, उसने मेरे साथ धोखा किया‒ तो मेरा मन बुझ गया और मैंने महसूस किया कि मैं रेगिस्तान में एक भौंरे की तरह हूं, जिसे रस चूसने के लिए नज़र की हद तक कोई फूल नजर नहीं आ सकता। लेकिन इसके बावजूद, मैं प्यार करने से बाज न आया ओर हमेशा की तरह किसी ने भी मेरी इस भावना की कद्र न की। जब पानी सिर से गुजर गया और अपने तथाकथित दोस्तों की बेवफाइयां और लापरवाहियां याद आने लगीं तो मेरे सीने के अंदर एक हलचल-सी मच गयी। मेरे वजूद के जज़्बाती, लाज़वाल और मुखर हिस्सों में एक जंग-सी छिड़ गयी। मेरा मुखर वजूद इन लोगों को घटिया और घृणित मानते हुए और पिछली घटनाओं की तकलीफ़देह तस्वीर दिखाते हुए, इस बात की मांग करता था कि मैं औरों के लिए अपना दिल पत्थर का बना लूं और मुहब्बत को हमेशा के लिए बाहर निकाल फेंकूं। लेकिन जज़्बाती वजूद उन तकलीफ़देह घटनाओं को दूसरे के रंग में पेश करते हुए, मुझे फख्र करने पर मजबूर करता कि मैंने जिंदगी का यही रास्ता अपनाया है। उसकी नजर में नाकामियां-ही-नाकामियां थीं। वह चाहता था कि मैं प्यार किए जाऊं कि यही कायनात की आत्मा है। अचेतन मन इस झगड़े में बिलकुल अलग-थलग रहा। ऐसा लगता है कि उस पर एक निहायत ही अजीब-ओ-गरीब नींद छायी हुई थी।
यह जंग खुदा जाने किस मनहूस दिन शुरू हुई कि मेरी जिंदगी का एक अंग बनकर रह गयी है। दिन हो या रात, जब कभी मुझे फुर्सत के कुछ लम्हें मिलते हैं, मेरे सीने के चटियल मैदान पर मेरे मुखर और जज़्बाती वजूद हथियार बांधकर खड़े हो जाते हैं और लड़ना शुरू कर देते हैं। उन लम्हों में जब उन दोनों के बीच लड़ाई जोरों पर हो, अगर कोई मेरे साथ बात करे तो मेरा लहजा यकीनन ही और किस्म का होता है। मेरे हलक में एक नाकाबिले बयान तल्खी घुल रही होती है। आंखें गर्म होती हैं और शरीर का एक-एक अंग बेकल होता है। मैं बहुत कोशिश किया करता हूं कि अपने लहजे को तुर्श न होने दूं और कभी-कभी मैं इस कोशिश में सफल भी हो जाता हूं लेकिन अगर मेरे कानों को कोई अप्रिय चीज सुनायी दे या ऐसी कोई चीज महसूस करूं, जो मेरी तबियत के खिलाफ हो तो फिर मैं कुछ नहीं कर सकता। मेरे सीने की गहराइयों में जो कुछ भी उठता है, जुबान के रास्ते बाहर निकल जाता है और ऐसे मौकों पर जो शब्द भी मेरी जुबान पर आते हैं, बेहद तल्ख होते हैं। उनकी तल्खी और तुर्शी का एहसास मुझे उस समय कभी नहीं हुआ, इसलिए कि मैं अपने मिज़ाज से हमेशा और हर समय बाख़बर रहता हूं और मुझे मालूम होता है कि कभी किसी को दुःख नहीं पहुंचा सकता। अगर मैंने अपने मिलने वालों में से या किसी दोस्त को नाखुश किया तो कारण मैं नहीं हूं बल्कि ये ख़ास लम्हें हैं, जब मैं पागल से बेहतर नहीं होता या तुम्हारे अलफाज़ में ‘शैतान’ होता हूं। हालांकि यह लफ्ज़ बहुत सख्त है और इसे मेरे पागलपन पर लागू नहीं किया जा सकता।
जब तुम्हारा पिछले से पिछला खत मिला था, उस समय मेरा मुखर अस्तित्व मेरे जज़्बाती वजूद पर हावी था और मैं अपने नर्म-नाजुक गोश्त को पत्थर में बदलने की कोशिश कर रहा था मैं पहले से अपने सीने की आग में फुंका जा रहा था कि ऊपर से तुम्हारे खत ने तेल डाल दिया।
तुमने बिलकुल सही कहा है‒ ‘‘तुम दर्द-भरा दिल रखते हो, हालांकि इसको अच्छा नहीं समझते।’’ मैं इसको अच्छा क्यों नहीं समझता? इस सवाल का जवाब, इंसानियत को कुचलने वाले हिन्दुस्तान की निजाम है, जिसमें लोगों की जवानी पर बुढ़ापे की मोहर लगा दी जाती है।
मेरा दिल दर्द से भरा हुआ है और यही वजह है कि मैं बीमार हूं और बीमार रहता हूं। जब तक मेरे सीने में दर्दमंदी है, मैं हमेशा बेचैन रहूंगा। तुम शायद इसे अत्युक्ति समझो, पर यह असलियत है कि यह दर्दमंदी मेरे लहू की बूंदों से पानी खुराक हासिल कर रही है। और एक दिन ऐसा आएगा, जब सिर्फ दर्द-ही-दर्द रह जाएगा और तुम्हारा दोस्त दुनिया की नजरों से गायब हो जाएगा। मैं अक्सर सोचता हूं दर्दमंदी की इस भावना ने मुझे कैसे-कैसे भयानक दुःख पहुंचाए हैं। यह क्या कम है कि मेरी जवानी के दिन बुढ़ापे की रातों में बदल गए हैं और जब मैं यह सोचता हूं तो इस बात का इरादा करने पर मजबूर हो जाता हूं कि मुझे अपना दिल पत्थर का बना लेना चाहिए। लेकिन अफ़सोस है, इस दर्दमंदी ने मुझे इतना कमजोर बना दिया है कि मुझसे यह नहीं हो सकता और चूंकि मुझसे यह नहीं हो सकता इसलिए मेरी तबियत कैफ़ियतें पैदा हो गयी है।
शेर मैं अब भी सही नहीं पढ़ सकता इसलिए कि शायरी से मुझे बहुत कम दिलचस्पी रही है। लेकिन मुझे इस बात का पूरे तौर पर एहसास है कि मेरी तबियत का झुकाव शायरी की तरफ है। शहर में बसने वाले लोगों की ‘वज़नी शायरी’ मुझे पसंद नहीं। देहात के हल्के-फुल्के गीत मुझे बेहद भाते हैं। ये इतने स्वच्छ होते हैं कि उनके पीछे दिल धड़कते हुए नज़र आ सकते हैं। तुम्हें हैरत है कि मैं ‘रूमानी ट्रेजिडी’ क्योंकर लिखने लगा और मैं खुद इस बात पर हैरान हूं।
कुछ लोग ऐसे हैं, जो अपने एहसास को दूसरों की जुबान में बयान करके अपना सीना खाली करना चाहते हैं। ये दिमाग से कोरे हैं और मुझे उन पर तरस आता है यह दिमागी गरीब, मराली मुफ़लिसी से ज्यादा तकलीफ़देह है। मैं माली मुफ़लिस हूं, मुझे यह कितना बड़ा इत्मीनान है कि मैं जो कुछ महसूस करता हूं वही जुबान से बयान कर लेता हूं।
मैंने अपने अफ़सानों के बारे में कभी गौर नहीं किया। अगर उनमें कोई चीज तुम्हारे कहने के मुताबिक, ‘जलवागर’ है तो वह मेरा ‘बेकल वतन’ है मेरा ईमान न अहिंसा पर है न हिंसा पर, दोनों पर है और दोनों पर नहीं। मौजूदा, बदलते हुए माहौल में रहते मेरे ईमान में स्थिरता नहीं रही। आज मैं एक चीज को अच्छा समझता हूं, लेकिन दूसरे दिन सूरज की रोशनी के साथ ही उस चीज का रूप बदल जाता है। उसकी तमाम अच्छाइयां, बुराइयां बन जाती हैं। इंसान का इल्म बहुत महदूद है और मेरा इल्म महदूद होने के अलावा बिखरा हुआ भी है। ऐसी सूरत में, तुम्हारे इस सवाल का जवाब मैं कैसे दे सकता हूं?
मुझ पर लेख लिखकर क्या करोगे प्यारे! मैं अपने कलम की कैंची से अपना लिबास पहले ही तार-तार कर चुका हूं। खुदा के लिए मुझे और नंगा करने की कोशिश न करो। मेरे चेहरे से अगर तुमने नकाब उठा दिया तो तुम दुनिया को एक बहुत ही डरावनी शक्ल दिखाओगे। मैं हड्डियों का ढांचा हूं, जिस पर मेरी कलम कभी-कभी पतली झिल्ली मढ़ती रही है। अगर तुमने झिल्लियों की यह तह उधेड़ डाली तो मेरा ख्याल है, जो डरावनी-सी सूरत तुम्हें मुंह खोले नजर आएगी, उसे देखने की हिम्मत तुम खुद में न पाओगे।
मेरी काश्मीर की जिंदगी…! हाय मेरी काश्मीर की जिंदगी! मुझे पता है, तुम्हें मेरी जिंदगी के इस खुशगवार टुकड़े के बारे में तरह-तरह की बातें मालूम होती रहती हैं। ये बातें जिन लोगों के ज़रिये तुम तक पहुंची हैं, उनको मैं अच्छी तरह जानता हूं। इसलिए तुम्हारा यह कहना सही है कि उनको सुनकर, अभी तक कोई सही राय नहीं बना सके लेकिन मैं यह जरूर कहूंगा कि यह कहने के बावजूद तुमने एक राय बनायी है और ऐसा करने में बहुत जल्दबाजी से काम लिया है। अगर तुम मेरी तमाम तहरीरों को सामने रख लेते तो तुम्हें यह गलतफहमी हरगिज़-हरगिज़ न होती कि मैं काश्मीर में एक भोली-भाली लड़की से मिलता रहा हूं। मेरे दोस्त, तुमने मुझे सदमा पहुंचाया है।
वज़ीर कौन था? इसका जवाब थोड़े में यही हो सकता है कि वह एक देहाती लड़की थी। जवान और पूरी जवान! उस पहाड़ी लड़की के बारे में, जिसने मेरी जिंदगी की किताब के कुछ पन्नों पर चंद हसीन नक्शे बनाये हैं, मैं बहुत कुछ कह चुका हूं।
मैंने वज़ीर को ‘बर्बाद’ नहीं किया। अगर ‘बर्बादी’ से तुम्हारा मतलब ‘जिस्मानी बर्बादी’ है तो वह पहले ही से बर्बाद हो चुकी थी और वह इसी बर्बादी में अपनी खुशी तलाश करती थी। जवानी के नशे में मस्त, उसने इस ख्याल को अपने दिमाग में जगह दे रखी थी कि जिंदगी का असली आनंद और मजा अपना खून खौलाने में है और वह इस मक़सद के लिए हर वक्त ईंधन चुनती रहती थी। यह तबाही भरा ख्याल उसके दिमाग में कैसे पैदा हुआ, इसके बारे में बहुत कुछ कहा जाता है। हमारी जाति में ऐसे लोगों की कमी नहीं जिसका काम सिर्फ भोली-भाली लड़कियों से खेलना होता है। जहां तक मेरा अपना ख्याल है, वज़ीर उस चीज का शिकार थी, जिसे सभ्यता और संस्कृति का नाम दिया जाता है। एक छोटा-सा पहाड़ी गांव है, जो शहरों के शोर-हंगामे से बहुत दूर, हिमालय की गोद में आबाद है और अब तहज़ीब की तमद्दून की कृपा से उसका परिचय शहरों से हो गया है। दूसरे शब्दों में शहरों की जिंदगी उस जगह पहुंचनी शुरू हो गयी है।
खाली स्लेट पर तुम जो कुछ भी लिखोगे साफ तौर पर दिखाई देगा और साफ पढ़ा जाएगा। वज़ीर का सीना बिलकुल खाली था। दीनवी ख्यालात से पाक़ और साफ, लेकिन सभ्यता के खुरदरे हाथों ने उस पर निहायत भद्दे नक्शे बना दिए थे, जो मुझे इसकी गलत रविश का कारण दिखाई देते हैं।
वज़ीर का मकान या झोंपड़ा, सड़क के ऊपर, पहाड़ की ढलान में स्थित था और मैं उसकी मां के कहने पर, हर रोज उससे जरा ऊपर चीड़ के पेड़ों की छांव में, ज़मीन पर दरी बिछाकर कुछ लिखा-पढ़ा करता था और आम और वज़ीर मेरे पास भी अपनी भैंस चराया करती थी। चूंकि होटल हर रोज दरी उठाकर यहां लाना और फिर उसे वापिस ले जाना, मेरे जैसे आदमी के लिए यह एक मुसीबत थी, इसलिए मैं उसे उसके घर में ही छोड़ जाता था। एक दिन की बात है, मुझे नहाने में देर हो गयी और मैं टहलता-टहलता पहाड़ी के कठिन रास्तों को तय करके जब उनके घर पहुंचा और दरी मांगी तो उसकी बड़ी बहन से मालूम हुआ कि वज़ीर दरी लेकर ऊपर चली गई है। यह सुनकर मैं और ऊपर चढ़ा और जब उस बड़े पत्थर के पास आया, जिसे मैं मेज के रूप में इस्तेमाल करता था तो मेरी निगाहें वज़ीर पर पड़ीं। दरी अपनी जगह पर बिछी हुई थी और वह अपना हरा, कलफ लगा दुपट्टा ताने सो रही थी।
मैं देर तक पत्थर पर बैठा रहा। मुझे मालूम था, वह सोने का बहाना करके लेटी है। शायद उसका ख्याल था कि मैं उसे जगाने की कोशिश करूंगा और वह गहरी नींद का बहाना करके जागने में देर करेगी। लेकिन मैं खामोश बैठा रहा, बल्कि अपने चमड़े के थैले से एक किताब निकालकर उसकी तरफ पीठ करके पढ़ने में मसरूफ हो गया। जब आधा घंटा इस तरह गुजर गया तो लाचार होकर वह जागी। अंगड़ाई लेकर उसने अजीब-सी आवाज मुंह से निकाली।
मैंने किताब बंद कर दी और मुड़कर उससे कहा‒ ‘‘मेरे आने से तुम्हारी नींद तो खराब नहीं हुई?’’
वज़ीर ने आंखें मलकर लहजे को नींद का-सा बनाते हुए कहा‒ ‘‘आप कब आये थे?’’
अभी-अभी आकर बैठा हूं। सोना है तो सो जाओ।’’
‘‘नहीं, आज निगोड़ी नींद को जाने क्या हो गया। कमर सीधी करने के लिए जरा देर को यहां लेटी थी कि बस सो गयी। दो घंटे से क्या कम सोयी होऊंगी।’’ उसके गीले होंठों पर मुस्कराहट खेल रही थी और उसकी आंखों में जो कुछ बाहर झांक रहा था, उसको मेरी कलम बयान करने में असमर्थ है। मेरा ख्याल है, उस वक्त उसके दिल में यह एहसास करवटें ले रहा था कि उसके सामने एक मर्द बैठा है और वह औरत है‒ जवान औरत‒ जोबन की उमंगों का उबलता हुआ चश्मा!
थोड़ी देर के बाद वह गैर-मामूली तौर पर बातूनी बन गयी और बहक-सी गयी। मैंने उसकी भैंस और बछड़े का जिक्र छेड़ने के बाद एक दिलचस्प कहानी सुनायी, जिसमें एक बछड़े से उसकी मां के प्यार का किस्सा था। इससे उसकी आंखों की वे चिंगारियां ठंडी हो गयीं, जो कुछ देर पहले लपक रही थीं।
मैं ज़ाहिद नहीं हूं और न मैंने कभी इसका दावा किया है। गुनाह और सवाब, सजा और जजा के बारे में मेरे विचार दूसरों से अलग हैं और यकीनन तुम्हारे ख्यालों से भी बहुत अलग हैं। इसी तरह औरतों के बारे मेरे विचार बहुत अजीब-ओ-गरीब हैं। मैं इस वक्त इस बहस में नहीं पड़ना चाहता क्योंकि इसके लिए मन की शांति और समय चाहिए। पर बात आ गयी है तो एक घटना बयान करता हूं जिससे तुम मेरे ख्यालों के बारे में कुछ अंदाजा लगा सकोगे।
बातों-बातों में एक बार मैंने अपने एक दोस्त से कहा कि हुस्न अगर पूरे शबाब पर जोबन पर हो तो वह दिलकशी खो बैठता है। मुझे अब भी इस ख्याल पर यकीन है, पर मेरे दोस्त ने इसे एक बेमानी दलील बताया। हो सकता है, तुम्हारी निगाह में भी यह बेमानी हो। मगर मैं तुमसे अपने दिल की बात कहता हूं। उस हुस्न ने मेरे मन को कभी अपनी ओर नहीं खींचा, जो पूरे शबाब पर हो। उसको देखकर मेरी आंखें जरूर चौंधिया जाएंगी, मगर इसका यह मतलब नहीं कि उस हुस्न की तमाम केफ़ियतें मेरे दिल और दिमाग पर तारी हो गयी हैं। शोख और भड़कीले रंग कभी उसे बुलंदी तक नहीं पहुंच सकते, जो नर्म और नाजुक रंगों और लकीरों को हासिल है। वह हुस्न यकीनन इज्ज़त के काबिल है, जो आहिस्ता-आहिस्ता निगाहों में जज़्ब होकर दिल में उतर जाए। रोशनी का चौंधियाने वाला शोला, दिल की जगह, नसों पर असर करता है, लकिन इस फ़िजूल बहस में पड़ने से क्या फायदा?
मैं कह रहा था कि मैं ज़ाहिद नहीं और यह कहते समय मैं दबी जुबान से बहुत-सी चीजों को स्वीकार भी कर रहा हूं, लेकिन उस पहाड़ी लड़की से जो शारीरिक लज्ज़तों पर मोहित थी, मेरे संबंध सिर्फ ज़हनी और रूहानी थे। मैंने शायद तुम्हें यह नहीं बताया कि मैं इस बात का कायल हूं कि अगर औरत से दोस्ती की जाए तो उसके अदंर अनोखापन होना चाहिए। उससे इस तरह मिलना चाहिए कि वह तुम्हें दूसरों से बिलकुल अलग समझने पर मजबूर हो जाए। उसे तुम्हारे दिल की हर धड़कन में ऐसी पुकार सुनायी दे, जो उसके कानों के लिए नयी हो।
औरत और मर्द और उनका आपसी रिश्ता, हर बालिग आदमी को मालूम है। लेकिन माफ करना, यह रिश्ता मेरी नज़रों में पुराना हो चुका है। इसमें सरासर हैवानियत है। मैं पूछता हूं, अगर मर्द को अपनी मुहब्बत का केंद्र किसी औरत को ही बनना है तो वह इंसानियत के इस पाकीज़ा जज़्बे में हैवानियत को क्यों जगह दे? क्या इसके बिना प्यार-मुहब्बत नहीं हो सकती? क्या जिस्मानी मशक्क़त का नाम मुहब्बत है?
वज़ीर को यही भरम था कि शारीरिक लज्ज़तों का नाम प्यार है और मेरा ख्याल है, जिस मर्द से भी वह मिलती थी, वह प्यार का मतलब इन्हीं शब्दों में बयान करता था। मैं उससे मिला और उसके सारे विचारों का विरोधी बनकर, मैंने उससे दोस्ती पैदा की। उसने अपने भड़कीले रंग के सपनों का फल मेरे वजूद में खोजने की कोशिश की, पर उसे निराशा हुई। लेकिन चूंकि वह गलत होने के साथ-साथ मासूम थी, मेरी सीधी-सादी बातों ने उस निराशा को हैरत में बदल दिया और धीरे-धीरे उसका यह आश्चर्य इस ख्वाहिश का रूप धारण कर गया कि वह इस नयी नस्म-राह की गहराइयों की जानकारी हासिल करे। यह ख्वाहिश यकीनन ही एक पाकज़ा मासूमियत में बदल जाती है और वह अपने औरतपन का पिछला गौरव फिर से हासिल कर लेती, जिसे वह गलत रास्ते पर चलकर खो बैठी थी। लेकिन अफसोस, मुझे उस पहाड़ी गांव से अचानक भीगी आंखों के साथ अपने शहर वापिस आना पड़ा।
मुझे वह अक्सर याद आती है क्यों? इसलिए कि विदा होते समय उसकी सदा मुस्कराती आंखों में दो छलकते हुए आंसू बता रहे थे कि वह मेरी भावना से काफी प्रभावित हो चुकी है और सच्ची मुहब्बत की एक नन्ही-सी किरन उसके सीने के अंधरे में दाखिल हो चुकी है। काश! मैं वज़ीर को प्यार की तमाम ऊंचाइयों से परिचित करा सकता और पता है कि वह पहाड़ी लड़की मुझे हर चीज हासिल करा देगी, जिसकी खोज में मेरी जवानी बुढ़ापे के सपने देख रही है।
यही है मेरी दास्तान, जिसमें बकौल तुम्हारे, लोग अपनी दिलचस्पी का सामान तलाश करते हैं। तुम नहीं समझते और नए लोग समझते हैं कि मैं ये कहानियां क्यों लिखता हूं। फिर कभी समझाऊंगा।
