अब भूलकर भी मुझे पत्र मत लिखना। हाथ जोड़कर मैं तुमसे यही प्रार्थना करती हूँ।
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रूप
3
उस दिन वकील साहब काम से ज़रा जल्दी ही लौट आए। रूप अपने कमरे में खड़ी शून्य दृष्टि से बाहर कुछ देख रही थी। उसकी आँखें लाल हो रही थीं, मानो अभी-अभी रोकर चुप हुई हो। वकील ने रूप को इस हालत में देखा तो बहुत मुलायम स्वर में बोले-‘तुम्हारा मन शायद यहाँ लगता नहीं, बिल्कुल अकेली जो पड़ गई हो। न हो तो तुम चौधरी साहब की पत्नी के यहाँ चली जाया करो, बड़ी मिलनसार स्त्री हैं, वे तुम्हारा परिचय और लोगों से करवा देंगी। क्या करूँ, मुझे तो ज़रा भी समय ही नहीं मिलता कि तुम्हें घूमाने-फिराने ही ले जाया करूँ।’‘जी नहीं, मेरा तो मन खूब लग जाता है, फिर ये किताबें तो हैं।’
‘देख रहा हूँ, इधर तुम दुबली भी हो रही हो, अपनी चिंता अपने-आप ही रखा करो, समझी?’‘आप व्यर्थ ही चिंता कर रहे हैं, मैं बिल्कुल अच्छी हूँ।’
‘अच्छा देखो, आज शायद मुझे लौटने में कुछ देर हो जाए तो तुम मेरे लिए बैठी न रहना, खा-पी लेना। इंतज़ार करने की ज़रा-भी ज़रूरत नहीं है। क्या करूँ, काम को जितना हलका करने की सोचता हूँ, उतना ही बढ़ता जाता है।’
यह सोचकर कि वकील साहब देर से लौटेंगे, रूप बिना खाए ही पुस्तक पढ़ने बैठ गई, पर तभी उसे वकील साहब का स्वर सुनाई पड़ा-‘अरे, सुनती हो! यह तुम्हारे मैके से कौन आए हैं?’मैके का नाम सुनते ही रूप झपटकर बाहर निकली। देखा, सामने ललित खड़ा था। उसके पैर जहाँ-के-तहाँ रुक गए, नज़रें नीचे झुक गईं। वकील साहब बड़ी जल्दी में थे-‘देखो, तुम इनके नहाने-खाने की व्यवस्था करो, मुझे बड़ी जल्दी है। कोशिश तो यही करूँगा कि खाने के समय मैं भी लौट आऊँ, नहीं तो तुम इन्हें अच्छी तरह खिला देना…’ और जिस व्यस्तता से वे आए थे, उसी व्यस्तता से चले भी गए।
ललित और रूप दोनों आमने-सामने खड़े थे, दोनों के मन में तूफान मचल रहे थे, पर कोई कुछ बोल नहीं पा रहा था। आख़िर ललित ने ही पूछा-‘कैसी हो रूप?’‘अच्छी ही हूँ।’ एक छोटा-सा उत्तर देकर वह उसके नहाने-खाने की व्यवस्था करने चली। नहा-धोकर जब ललित तैयार हो गया तो रूप ने पूछा- आपके लिए खाना लगा दूँ?’‘मैं’ आप ‘कबसे हो गया रूप? इतना परायापन तो न बरतो, नहीं तो यहाँ रहना मुश्किल हो जाएगा! वकील साहब क्या बहुत देर से आएँगे?’‘उनका कुछ ठीक नहीं, देर हो सकती है।’‘अच्छा, तो मुझे खाना दे दो।’ पर उसने जब सामने एक ही थाली देखी तो पूछा- और तुम?’‘मैं बाद में खाऊँगी।’‘वकील साहब के साथ?’‘नहीं, सबके बाद में।’‘पर अकेले तो मुझसे नहीं खाया जाएगा। तुम बैठी रहो और मैं खाऊँ यह कैसे हो सकता है! ले जाओ थाली, मैं भी पीछे ही खा लूँगा।’ ।ललित ने सारी बात इस ढंग से कही थी कि रूप की आँखों में सावन-भादों की घटाएँ उमड़ आईं। थाली परोसने के बहाने वह अंदर चली गई और फिर खूब अच्छी तरह मुँह धोकर बाहर निकली। पर ललित कोई नादान बच्चा नहीं था। दोनों चुपचाप खाने बैठे। रूप की आँखें बार-बार भर आती थीं। आज सवेरे ही उपन्यास की घटना ने उसके हृदय के किसी कोमल स्थल को बुरी तरह कचोट डाला था कि वह किसी प्रकार भी अपने पर काबू नहीं कर पा रही थी, उस पर ललित का आगमन। बिना कारण ही यों बार-बार आँख भर आने की सफाई देते हुए रूप बोली-
‘पता नहीं, मेरी आँखे आजकल बड़ी ख़राब हो चली हैं, थोड़ी-थोड़ी देर में पानी गिरने लगता है। जिस दिन ज़रा-सा पढ़ लेती हूँ, उस दिन तो हालत और भी खराब हो जाती है।’
ललित मुस्कराया-‘आँखों के बारे में जो नवीन खोजें हुई हैं, उसका तुम्हें पता है? एकाएक दिल पर चोट लगने से आँखों से पानी बहने लगता है, आँखों का सीधा संबंध हृदय से बताया गया है। मेरे आने से तुम्हारे हृदय को भी कहीं…’
जिस आवेग को रूप इतने प्रयत्न से रोके थी, वह फूट पड़ा। रूप झपटकर अंदर चली गई और ललित को लगा, बड़ी बेमौके की बात उसने कह दी।
दो दिन तक ललित ने देखा कि रूप जैसे उससे कन्नी काटती है। वकील साहब तो सवेरे से रात नौ बजे तक बाहर रहते हैं, वह रूप से अनेक बातें कर सकता है, पर वह आती ही नहीं। आखिर एक दिन उसने रूप को बुलाकर बिठा ही लिया–‘बड़ी व्यस्त रहती हो क्या? बात करने का समय भी नहीं निकाल सकती?’
‘नहीं तो।’ छोटा-सा उत्तर था रूप का।
‘वकील साहब तो बड़े व्यस्त रहते हैं, तुम आख़िर सारे दिन करती क्या हो?’
‘घर का काम भी तो रहता होगा ना, आखिर बड़े वकील साहब की पत्नी जो ठहरी।’ एक बार रूप ने ललित की ओर देखा। उन बुझी-बुझी आँखों की दृष्टि में जाने ऐसा क्या था कि ललित का कलेजा बिंध गया, फिर भी वह कहता ही गया, ‘बड़े शानदार मकान में रहती हो, ढेर सारे नौकर-चाकर, बड़ा-सा बगीचा, फिर परिवार का कोई झंझट नहीं, बस लगता है ठाठ हैं तुम्हारे तो!’
‘दुनिया में एक तुम्हीं तो रह गए हो ताने सुनाने को? जी भरकर सुना लो, यदि इसी से तुम्हें तसल्ली मिलती हो तो मैं वह सब भी सह लूंगी।’ और रूप फफक-फफककर रो पड़ी।
ललित इसके लिए ज़रा भी तैयार नहीं था। रूप के आँसुओं में ही जैसे उसके मन का सारा आक्रोश बह गया। उसने बहुत ही स्नेह-भरे शब्दों में कहा–‘अरे पगली, मैं तो मज़ाक कर रहा था, इसी में रो पड़ी।’ फिर एकाएक बहुत ही उदास स्वर में बोला-
‘तुम्हारे हृदय को चोट पहुंचाकर मुझे आनंद मिलेगा, ऐसी बात ही तुम्हारे मन में क्यों आई? तुम्हें सुखी बनाने के उद्देश्य से ही तो मैं इंग्लैंड गया था। सोचा था, उच्च शिक्षा पाकर अच्छी नौकरी भी पा सकूँगा और फिर तुम्हें रानी की तरह रखूँगा, तुम्हारी छोटी-से-छोटी इच्छा को पूरी करने में अपना सर्वस्व कुर्बान कर दूंगा-पर नहीं जानता था कि…’
‘बस करो ललित! क्यों मेरा खून जला रहे हो। वे सब बातें तो अब सपना हो गईं, अब तो मुझे तुम दंड दो। तुम्हारे साथ जैसा विश्वासघात किया, उसकी सज़ा तुम्हारे हाथों से पाना चाहती हूँ।’
ललित खामोश बैठा रहा-रूप सिसकती रही…
‘तुम सुखी होतीं तो मैं तो अपने कलेजे पर पत्थर भी रख लेता, पर तुम्हारी हालत देखकर तो मेरा मन मसोस उठता है। इस तरह सिसक-सिसककर कैसे तुम अपनी जिंदगी बिताओगी? बोलो तो ज़रा।’
‘मेरी किस्मत में तो रोना ही लिखा है। बचपन में माँ मर गईं, तुम्हारा प्यार मिला तो वह भी छीन लिया गया, तुम्हीं बताओ, अब किस बात पर हँसूँ।’
‘किस्मत-विस्मत सब बेकार की बातें हैं। आदमी चाहे तो अपनी किस्मत को बदल सकता है।’ कुछ देर चुप रहकर ललित फिर बोला-‘मेरी बात मानो तो आज भी तुम सुखी हो सकती हो। जिन बीती बातों को तुम सपना समझ रही हो, वे आज भी सच हो सकती हैं।रूप की आँखों में प्रश्नवाचक चिह्न साकार हो उठा।‘तुम मेरे साथ भाग चलो रूप! अभी कुछ नहीं बिगड़ा है।’
रूप की आँखों फटी-की-फटी रह गईं।‘तुम सुन रही हो मैं क्या कह रहा हूँ। मुझे नौकरी मिल गई। मैंने मकान ले लिया है-बहुत मज़े में हम लोग रहेंगे।’
‘यह तुम क्या कह रहे हो ललित? जानते हो, मेरी माँग में किसी और के सुहाग का सिंदूर है-अग्नि को साक्षी देकर मैं उनकी हो चुकी हूँ।’
‘यह सब बकवास है, थोथी बातें हैं। जानती हो, जाते समय मैं कह गया था कि यदि कुछ भी हो गया तो मैं दुनिया के किसी भी कोने से भगाकर ले आऊँगा-समझ लो, मैं इसी उद्देश्य से यहाँ आया हूँ। मेरे पीछे, जो जिसके मन में आया उसने किया, अब जो मेरी मर्जी होगी मैं करूँगा, और तुमको मेरा साथ देना होगा रूप, देना ही होगा।’ आवेश से ललित का स्वर काँप रहा था।
‘यह सब कैसे हो सकता है, कैसी पागलपन की बातें तुम कर रहे हो, पिताजी सुनेंगे तो क्या कहेंगे, सारी दुनिया सुनेगी तो क्या सोचेगी? ऐसा भी कहीं हुआ है आज तक?’
‘जहन्नुम में गई दुनिया और जहन्नुम में गए तुम्हारे पिताजी! पिताजी को बिटिया इतनी ही दुलारी होती ना, तो यों कुएँ में न ढकेल देते। तुम्हें पिताजी की भावनाओं को ख़याल है, दुनिया भर का ख़याल है, पर मेरे अरमानों, मेरी तमन्नाओं का कुछ ख़याल नहीं, मानो मैं आदमी नहीं, मिट्टी का लौंदा होऊँ? तुम मुझसे दंड चाहती हो ना, तो समझ लो, मैं यह दंड तुम्हें देना चाहता हूँ, मैं तुम्हें ले जाना चाहता हूँ, भगाकर ले जाना चाहता हूँ।’ उसका आवेश बढ़ता जा रहा था।
‘नहीं-नहीं ललित! इतना बड़ा दंड मुझे मत दो, यह सब मुझसे नहीं होगा, मुझसे कभी नहीं होगा।’ रूप सिसकती रही।
बड़े स्नेह से रूप के बालों में उँगलियाँ फेरते हुए ललित ने कहा-‘समझ से काम ले रूप! यह जिंदगी यों ही मिट्टी में मिला देने की वस्तु नहीं। फिर तेरे मन की हालत मैं तुझसे अधिक जानता हूँ, क्यों व्यर्थ में अपने को झुठलाने की कोशिश कर रही है। मेरी बात मान जा।’
‘नहीं ललित, यह मुझसे किसी तरह भी नहीं होगा…’
बहुत ही बुझे हुए स्वर में ललित बोला-‘बड़ी आस लेकर यहाँ आया था रूप। जाने क्यों, तू जीवन का सबसे बड़ा दाँव हार गई, फिर भी मेरा मन निराश नहीं हुआ था। सोचता था, अपनी रूप को तो जिस क्षण चाहूँगा ले आऊँगा, बड़ा भरोसा था तुझ पर, लगता है, आज सारे आसरे ही टूट गए। अब तुझे अधिक परेशान नहीं करूँगा, मैं लौट जाऊँगा, पर इतना तो बता दे रूप कि मैं रहूँगा कैसे, कैसे अपने दिन गुज़ारूँगा?’
‘तू चुप क्यों है, बोलती क्यों नहीं?’ और हारे हुए जुआरी की तरह ललित ने सिर अपनी बाँहों में छिपा लिया।
रोते-रोते रूप बोली-‘क्या बोलूँ…तुम जो कहोगे, वही करूँगी ललित, वही करूँगी!’
पूरे सप्ताह भर तक ललित रूप के मन को दृढ़ बनाता रहा। विदेश की स्त्रियों की स्वतंत्रता की बातें, तलाक, प्रेम और विवाह की बातें बताकर उसने उसे पूरी तरह समझा दिया कि जो कुछ भी वे करने जा रहे हैं, वह किसी भी दृष्टि से अनुचित नहीं है, और रूप ने भी अपने आपको पूरी तरह तैयार कर लिया, खूब दृढ़ बना लिया। भविष्य के सुनहले स्वप्न उसके हौसलों को बढ़ावा देते और ललित की स्नेह-सिक्त बातें इस दमघोटू वातावरण को छोड़ भागने की ललक पैदा कर देतीं। सातवें दिन ललित ने कहा-
‘अच्छा रूप! कल रात को हम लोग चल देंगे। मैं सवेरे ही यहाँ से बिदा लेकर धर्मशाला में जा टिकूँगा, तुम रात बारह बजे के करीब स्टेशन रोड वाले चबूतरे पर मुझे मिलोगी, समझीं? डारोगी तो नहीं ना?’
‘डरूँगी क्यों? सच कहती हूँ ललित! तुम सामने रहते हो तो न जाने कहाँ का ज़ोर आ जाता है। तुम इंग्लैंड न गए होते तो यह इतनी बड़ी ट्रेजेडी ही नहीं होती। तुम्हारे साथ तो मैं दुनिया की बड़ी-से-बड़ी ताक़त से भी लड़ सकती हूँ–जाने तुम्हारी सूरत में ऐसी कौनसी प्रेरक शक्ति…’
अच्छा-अच्छा, बड़ी-बड़ी बातें न बना अब। तू कुछ भी कह, मेरा मन न जाने क्यों तुझे लेकर कभी आश्वस्त नहीं हो पाता। तू बड़ी कमज़ोर है।’
‘नहीं ललित, तुमसे दूर रहकर ही मैं कमज़ोर रहती हूँ, डरो मत, एक बार कमज़ोरी का फल भुगत चुकी हूँ, उससे जन्म-भर के लिए सबक मिल गया। और सच पूछो तो जिस बात को पहले मैं स्वयं नहीं जानती थी, अब जान पाई हूँ। लिखने को मैंने चाहे तुम्हें लिख दिया कि तुमसे दंड पाने की प्रतीक्षा में बैठी रहूँगी, पर सच पूछो तो मन में कोई और ही साध थी। जाने क्यों अनजाने ही मेरा मन यह आशा लगाए बैठा था कि तुम्हारे आते ही जैसे मेरे सारे दुख दूर हो जाएँगे, तुम मुझे इन झूठे बंधनों से मुक्ति दिला दोगे। सोचती हूँ, यदि तुम आकर यों ही चले जाते तो वह मेरे जीवन की सबसे बड़ी निराशा होती, सबसे बड़ा आघात होता?’
‘तो अब डरेगी तो नहीं ना! मैं निश्चित हो जाऊँ!’
‘अरे ललित के रहते रूप किसी से नहीं डरती।’दूसरे दिन सवेरे ही ललित वकील साहब और रूप से विदा लेकर, नौकरों-चाकरों को बख्शीश देकर विदा हो गया। रूप ने बड़े ही स्वाभाविक ढंग से उसे विदा किया।
भविष्य के सपने देखते-देखते ही रूप ने सारा दिन बिता दिया। कभी-कभी मधुर कल्पनाएँ उसके मन को मतवाला बना देतीं तो कभी पिताजी, वकील साहब, नई माँ के क्रोधित चेहरे उसके मन को कँपा देते। संध्या को वह उठी और एक अटैची में उसने दो-चार जोड़ी ज़रूरी कपड़े और कुछ रुपए रखे। यों अपने को वह भरसक स्वाभाविक बनाए रखने की कोशिश कर रही थी, फिर भी आज घर की प्रत्येक हरकत को वह बड़ी चौकन्नी होकर देख रही थी। नौकर-चाकर कहीं उसके विषय में ही तो बात नहीं कर रहे हैं। इसी प्रकार नौ बज गए। वकील साहब नहीं लौटे। उसका मन अनेक प्रकार की आशंकाओं से भरने लगा। साढ़े नौ बजे, फिर भी वे नहीं आए। अब तो उसका दिल बुरी तरह धड़कने लगा-‘कहीं किसी ने ललित को तो नहीं देख लिया।’ यह ख़याल आते ही वह ऊपर से नीचे तक काँप उठती। समय के साथ-साथ उसके दिल की धड़कनें भी बढ़ती गईं। तभी वकील साहब आए। उसने पूछा-‘बड़ी देर कर दी आज आपने?’ उसका स्वर काँप-सा रहा था।
‘आज एक बड़ा पुराना मित्र मिल गया, उसी से बातें करने में देरी हो गई।’ अपने-आपको स्वाभाविक बनाए रखने के लिए रूप जल्दी-जल्दी खाना परोसने लगी। उसका हाथ काँप रहा था, और वकील साहब बोले चले जा रहे थे-
‘बड़ी मुसीबत में था बेचारा। उसकी स्त्री अपने किसी आशिक़ के साथ भाग गई।’ रूप का चेहरा फक्, उसका हाथ जहाँ-का-तहाँ रुक गया।
‘मुझसे सलाह लेना चाहते थे कि क्या किया जाए! मैंने साफ़ कह दिया, कानूनी कार्यवाही करो। पर उनका कहना था कि पढ़ी-लिखी लड़की है, कानून के ज़ोर से उसे अपना नहीं बनाया जा सकता।’
कपड़े बदलने का काम खत्म करके वकील साहब कुर्सी पर आ डटे थे। रूप के पैर बुरी तरह लड़खड़ा रहे थे, और वकील साहब अपनी ही धुन में बोले जा रहे थे‘मैंने तो साफ कह दिया, पढ़ी-लिखी है तो सिर पर बिठाओ! पढ़ी-लिखी है, पढ़ी-लिखी है! अरे पढ़ी-लिखी तो तुम भी हो, भागने की बात तो दूर रही; दो साल हो गए, मुझे कभी याद नहीं पड़ता कि तुमने आँख उठाकर किसी पुरुष से कभी बात भी की हो। यह भी कोई बात हुई भला!’
रात का एक बजा था। रूप की आँखों से एक-एक करके आँसू टपकते जा रहे थे और उसके सूटकेस से एक-एक करके कपड़े बाहर निकलते जा रहे थे।
एक कमज़ोर लड़की की कहानी: मन्नू भंडारी की कहानी
