Ek Kamjor Ladki Ki Kahani by Mannu Bhandari
Ek Kamjor Ladki Ki Kahani by Mannu Bhandari

‘मेहनत तो बहुत की थी बेचारी ने।’ मामी ने कुछ निराश स्वर में कहा।
‘अरे तो इसमें घबराने की क्या बात है? कौन बोर्ड टूटा जाता है या रूप ही मरी जा रही है। आते साल फिर बैठ लेगी। अच्छा है, एक-एक क्लास में दो-तीन साल रहेगी तो जड़ें मजबूत हो जाएँगी।’
‘मैं मान ही नहीं सकती कि मैं फेल हो गई, तुम झूठे ही चिढ़ा रहे हो…मुझे अपनी आँखों से दिखाकर लाओ तो मानूँ।’
‘नहीं मानती तो जाकर देख आ। यहाँ तेरे नौकर लगे हैं ना, जो दस-दस बार चक्कर खाते फिरें।’
तभी डॉक्टर साहब की कार आती दिखाई पड़ी। गाड़ी से उतरते ही उन्होंने पूछा, ‘क्या रहा रूप तुम्हारा रिज़ल्ट?’
रूप रोनी-रोनी-सी हो रही थी, मामी कुछ बोलने ही जा रही थी कि ललित बोल पड़ा, ‘जी फ़र्स्ट डिवीज़न में पास हो गई है।’ डॉक्टर साहब के सामने मज़ाक करने का उसका भी साहस नहीं था। सुनते ही रूप ने आँखों-ही-आखों में उसको डाँटा। मामी बोल पड़ी, ‘कैसा है रे तू भी, जबसे बेचारी को छेड़ रहा था।’ डॉक्टर साहब रूप को खूब शाबासी देकर, उसकी पीठ थपथपाकर अंदर चले गए। जाते ही रूप ने ललित को लपेटना शुरू किया…‘बड़े आए फोर्थ डिवीज़न वाले! अपने जैसा कूढ़मगज ही सबको समझ रखा है ना!’‘अच्छा! अच्छा!! अब इतरा रही है! यह तो गनीमत समझ की खून-पसीना एक करके तेरे ऊसर दिमाग में भी थोड़ी अक्ल पैदा कर दी, वरना लुढ़कती ही नज़र आती।’ तभी डॉक्टर साहब का बुलावा आया और दोनों अंदर गए।आज रूप कॉलेज में फार्म भरने जानेवाली थी। सवेरे से ही ललित उसे समझा रहा है कि कौनसे विषय लेना उसके लिए ठीक रहेगा, पर रूप है कि मानती ही नहीं। ललित झल्ला पड़ा, ‘समझती कुछ है नहीं, किसी से सुन लिया और अपनी-अपनी लगाए जा रही है।’रूप भी बिगड़ पड़ी-‘जाओ, नहीं समझते हैं तो नहीं सही, पर तुम्हारे विषय कभी नहीं लेंगे, कोई तुम्हारे गुलाम हैं जो हर बात तुम्हारी ही मानें।’पर जब रूप ने फ़ार्म भरा तो सब वही विषय भरे, जो ललित ने बताए थे। ललित को जब यह मालूम पड़ा तो जाने कैसा-कैसा लगा उसे। उसने कहा-‘क्यों री रूप! तू अपनी बात पर टिकती क्यों नहीं। विरोध तो बड़े जोर-शोर से करेगी, दुनिया भर की अकड़ दिखाएगी, पर करेगी वही जो दूसरे चाहते हैं।’‘क्या करूँ, फिर तुम्हीं कहते कि बड़ी ज़िद्दी लड़की है।’
ललित को रूप की यह कमज़ोरी अच्छी भी लगती थी, बुरी भी लगती थी।
आज कॉलेज खुलनेवाला था। रूप सवेरे से ही कॉलेज जाने की तैयारी कर रही थी। उसने जिंदगी में पहली बार दो चोटियाँ की, उल्टे पल्ले से साड़ी पहिनी, पर्स लिया। जैसे ललित की दृष्टि रूप के इस नए रूप पर पड़ी, वह बड़े जोर से हँस पड़ा-‘अय हाय! गाँव की छोरी और पूरब की चाल!’

‘अच्छा जाओ, हम तो गाँव के ही सही, तुम तो जैसे सीधे विलायत से ही चले आ रहे हो ना!’
रूप की दोनों चोटियाँ पकड़कर घसीटता हुआ ललित भीतर ले गया-‘अरे चाची! देखो तो ज़रा अपनी रूप बिटिया का नखरा तो देखो, कॉलेज जा रही है कॉलेज!’
‘हाय रे मार डाला, सारे बाल नोचकर रख दिए।’
‘क्या कर रहा है रे ललित! इतना बड़ा हो गया, अभी तक बचपना नहीं गया।’ चाची ने स्नेह से डाँटते हुए कहा।‘अरे चाची, ज़रा रूप की तारीफ़ तो कर दो, बेचारी यह तो न समझे कि इतना सजना-सँवरना बेकार चला गया।’‘हाँ, तो अच्छी तो लग रही है।’
‘अच्छी! कमाल कर दिया चाची तुमने तो! अरे अच्छी क्या इंद्र के अखाड़े की अप्सरा लग रही है अप्सरा!’
इस विशेषण को सुनकर रूप को गुस्से में भी हँसी आ गई। वह समझ नहीं पा रही थी कि कैसे ललित को मज़ा चखाए। और जब कुछ नहीं सूझा तो उसने उठकर एक लोटा पानी ही उसके ऊपर डाल दिया और खिलखिलाकर हँस पड़ी ‘लो और चिढ़ाओ।’ इस हरकत के लिए ललित तैयार नहीं था। ज्यों ही रूप को पकड़ने के लिए दौड़ा, चाची ने पकड़ लिया-‘इतने बड़े-बड़े हो गए पर ज़रा भी शऊर नहीं। सवेरा हुआ नहीं कि लड़ाई शुरू हो गई। अब कोई तुम छोटे-छोटे बच्चे हो भला!‘अपनी उस लाडली को तो कुछ कहती नहीं, सिर पर चढ़ाकर बिगाड़ रखा है बुरी तरह। सारे कपड़े बिगाड़ दिए, बदतमीज़ कहीं की।’ और झल्लाया हुआ वह ऊपर कपड़े बदलने चला गया। रूप दूर खड़ी-खड़ी हँस रही थी।
उस दिन चाची किसी से मिलने गई थी और रूप चुपचाप अपने कमरे में बैठी किताब के पन्ने उलट रही थी। तभी ललित ने आकर कहा-‘ऐ रूप! जल्दी से तैयार हो जा, मैं सिनेमा के टिकिट लाया हूँ, बड़ी अच्छी फ़िल्म है।’
‘मुझे नहीं जाना सिनेमा।’ किताब पर से आँख उठाए बिना ही रूप ने उत्तर दिया।
‘क्यों?’
‘यह भी कोई ज़रूरी है कि तुम्हारे हर क्यों और क्या का जवाब ही दिया जाए। बस कह दिया नहीं जाना तो नहीं जाना।’
‘ठीक है, नहीं जाना तो मत जाओ, यहाँ रौब किस पर लगा रही हो। तुम्हारा टिकिट वापस कर देंगे।’ और झल्लाया हुआ ललित ऊपर चला गया। थोड़ी देर में वह तैयार होकर नीचे उतरा और जैसे दरवाजे के पास पहुँचा तो देखा रूप तैयार खड़ी है। वह कुछ नहीं बोला, दोनों चुपचाप चलने लगे। आधा रास्ता पार करने के बाद ललित पूछ ही बैठा-
‘इतना मिजाज़ क्यों गरम हो रहा था तेरा?’ पर जैसे ही उसने रूप की ओर देखा, उसकी छलछलाई आँखें देखकर वह सहम गया। रास्ते में अधिक छेड़ना उचित न समझ वह चुप हो गया। हॉल में पहुँचे और अँधेरा हुआ कि बहुत ही मुलायम स्वर में ललित ने पूछा-‘क्या बात है?’
‘पिताजी की चिट्ठी आई है-लिखा है, एक सप्ताह के लिए चली आओ। तुम्हीं बताओ-अभी जाकर क्या करूँगी भला। जाने मेरा मन कैसा कैसा हो रहा है?
तभी खेल शुरू हो गया। उस समय तो ललित ने बड़ी लापरवाही से कह दिया-‘चिंता मत कर, सब ठीक हो जाएगा।’ लेकिन खेल ख़त्म हुआ तो हॉल से बाहर निकलते ही ललित ने पूछा-
‘हाँ, तो क्या लिखा है पिता जी ने?’
‘और तो कुछ नहीं, बस आने के लिए ही लिखा है।’
‘तो तू साफ़ लिख दे कि अभी नहीं आ सकती। कॉलेज की पढ़ाई है कि कोई तमाशा।’
‘हाय राम, पिताजी को टूटता जवाब कैसे लिख दूँ?’
‘हाँ..! पिताजी को टूटता जवाब कैसे लिख दे, टूटता जवाब देने के लिए तो हम हैं। कुछ भी कहो, और फट से ‘नहीं करेंगे’ सुन लो।’
‘तुम्हारा क्या?’‘हाँ साब! हमारा क्या, हम कोई आदमी थोड़े ही हैं। पर सच रूप, तुझ पर बड़ा गुस्सा आता है। तू इतनी डरपोक क्यों है? घरवालों के सामने तेरी जान निकलती है। देखती नहीं, आजकल की लड़कियाँ कितनी बेधड़क, कितनी निर्भीक होती हैं। दो साल हो गए तुझे यहाँ रहते, पर रही देहातिन-की-देहातिन। मना कर देगी तो पिताजी यही तो सोचेंगे कि लड़की बड़ी ढीठ हो गई है। सोच लेने दे।’

‘तुम जानते नहीं ललित, वह मेरे लिए क्या सोचते हैं। ऐसा जवाब दूंगी तो उनको बड़ा धक्का लगेगा।’

‘बस, यही तो तेरी कमज़ोरी है। घरवाले ज़रा-सा कह दें, हमारी रूप बिटिया जैसा है कोई दुनिया में, और फिर रूप बिटिया से चाहे कुएँ में कुदवा लो तो कूद जाएगी। मैं कहता हूँ, अपनी यह आदत छोड़ और ज़रा हिम्मत से काम लेना सीख।’

‘मुझसे तो नहीं लिखा जाएगा, पर मैं जाऊँगी भी नहीं।’ और उसका गला भर्रा आया।

‘अच्छा, तो अब रो मत। मैं चाचाजी से कहकर चिट्ठी लिखवा दूंगा।’ और सचमुच ही ललित ने रूप के पिताजी को पत्र लिखवा दिया और बात टल गई।
उस दिन संध्या को खूब झमककर पानी बरस रहा था। चाची पकौड़ी बना रही थीं, और रूप और ललित वहीं बैठकर खा रहे थे। ललित एकटक रूप के चेहरे को देख रहा था। ललित को यों घूरते देख रूप बोल पड़ी-‘यों घूर घूरकर क्या देख रहे हो मेरी तरफ़, कभी देखा नहीं है क्या?’
ललित ने कहा-‘सोचता हूँ चाची! जिसने इसका नाम रूप रखा होगा वह नामकरण-विद्या में काफ़ी अनाड़ी रहा होगा। इन देवीजी का नाम रूप हो, इससे बढ़कर नाम की और क्या विडंबना हो सकती है भला?’
चट से बोली रूप- ‘मैं भी सोचती हूँ चाची! इनका नाम ललित किसने रख दिया भला! लालित्य तो इनकी खोपड़ी के ऊपर से ही निकल गया है।’
‘अच्छा तो आपके भी पर निकल रहे हैं। देख रही हो चाची! कैसी जीभ चलने लगी है। वह दिन भूल गई, जब छुई-मुई-सी देहातिन के वेष में यहाँ आई थी।’
‘भूलेंगे क्यों, याद है, पर अपनी तो कहो। क्यों मामी, कैसा हुलिया था इनका, जब तुम इन्हें अनाथाश्रम से लाई थीं? शायद मुँह की मक्खियाँ…? वह वाक्य पूरा भी नहीं कर सकी थी कि ललित प्लेट और प्याला छोड़कर तमककर ऊपर चला गया।
घबराकर चाची बोलीं-‘यह तूने क्या कह डाला पगली! तू जानती नहीं, इस बात से वह कितना दुखी हो जाता है। कितने ही सालों तक तो वह इस घर को किसी तरह भी अपना मानने को तैयार नहीं था, यह तो पिछले पाँच-छह वर्षों से ही हमारा बनकर रह रहा है। अब तू ही उसे मनाकर ला, जाते ही माफी मांग लेना।’ और उन्होंने चट कढ़ाई उतार दी!महज़ मज़ाक में रूप यह सब-कुछ कह गई थी। ऐसा परिणाम होगा यह तो सोचा भी नहीं था। ललित के दुख की बात सुनते ही उसका मन भर आया। वह धीरे-धीरे ललित के कमरे की ओर चली। दरवाज़े पर पहुँचकर देखा, ललित मेज़ पर दोनों हाथों के बीच सिर डाले बैठा है। धीरे-धीरे उसके पास पहुँची। बहुत ही मुलायम स्वर में बोली-‘ललित!’

ललित चुप!

‘मुझसे बहुत नाराज़ हो ललित?’ललित चुप!
‘तुम्हारे दिल को चोट पहुँचाने का मेरा ज़रा भी इरादा नहीं था, सच मानना। मैंने यों ही मज़ाक में कह दिया था।’

ललित चुप!

‘आगे से ऐसा कभी नहीं होगा ललित! इस बार माफ़ कर दो!’
ललित चुप!
‘एक बार भी माफ नहीं कर सकते ललित…तो मैं जाऊँ?’ और एक गरम बूंद ललित के हाथ पर चू पड़ी। लेकिन जाने कैसा पागलपन-सा सवार हो गया था ललित पर कि उस ओर बिना ध्यान दिए ही झटके से सिर उठाकर वह चीख उठा—‘जा, जा, चली जा! किसने रोक रखा है तुझे यहाँ पर! तू तो सनाथ है, क्यों माफ़ी माँगने आई है एक अनाथ लड़के से।’ और तडाक् से एक पूरे हाथ का चाँटा रूप के गाल पर जमा दिया। दो-तीन क्षण तक कमरे में सन्नाटा छा गया। जब ललित ने बहुत ही मुलायम स्वर में पूछा-‘बहुत चोट आ गई रूप? तू इस समय क्यों आई? क्यों आई तू इस समय यहाँ?’ और उसकी अपनी आँखें भी डबडबा आईं। रूप की आँखों से आँसू बहते रहे और ललित उसकी पीठ थपथपाता रहा, आँसू पोंछता रहा–पर बोला कोई कुछ भी नहीं।
2
तीन वर्ष बीत गए। इन तीन वर्षों में दोनों एक-दूसरे के कितने निकट आ गए थे, इस बात का अहसास ही उन्हें उस दिन हुआ, जब ललित के विदेश जाने की बात निश्चित हो गई। बड़े जोश के साथ सारा घर तैयारी में जुट गया। रूप तो सारा काम इस प्रकार कर रही थी मानो वह भी साथ जा रही हो। सारी तैयारी हो गई। जाने के जब केवल तीन दिन रह गए तो साँझ को ललित रूप के पास पहुँचा। आज उसका मन बड़ा उदास हो रहा था…
‘रूप!’

‘बोलो!’‘आज मन बड़ा भारी-भारी हो रहा है। सोचता हूँ, तीन दिन बाद ही मैं यहाँ से चला जाऊँगा और यहाँ का सब-कुछ पीछे छूट जाएगा।’ कुछ रुककर वह फिर से बोला-‘इन तीन सालों में तेरे साथ रहते-रहते जिस चीज़ को महसूस नहीं कर पाया, आज इस विदाई बेला में जैसे वही पूरे वेग से मुझे मथे डाल रही है। पता नहीं, तू भी ऐसा महसूस करती है या नहीं, पर सच रूप! मेरा तो रोम-रोम आज तेरे वियोग की कल्पना से ही दुखी हो रहा है।’
‘मुझे तुमने क्या पत्थर समझ रख है ललित! जानते नहीं, किस प्रकार मैं अपने को पत्थर बनाए बैठी हूँ, नहीं तो तुम डाँटने लगोगे कि कैसी कमज़ोर लड़की है। अब तुम यों कमज़ोरी दिखाओगे तो मैं क्या करूँगी ललित? और उसकी आँखें छलछला आईं। ललित कुछ देर उसकी ओर देखता रहा, फिर बोला-‘देख, मैं तुझे अपनी रूप सौंपकर जा रहा हूँ, इस विश्वास के साथ कि लौटूँगा तो मुझे इसी हालत में लौटा देगी। ऐसा न हो कि मैं लोटूँ और देखें कि तूने रूप को किसी और के घर का श्रृंगार बना दिया है। तू बड़ी कमज़ोर है, इसी से मन डरता है। बोल रूप! मेरी धरोहर को रख सकेगी ना?’

‘सब बातें क्या मुँह से कहनी होती हैं ललित! इतना विश्वास रखो, जान रहते तो तुम्हारी सौंपी हुई धरोहर को किसी को हाथ नहीं लगाने दूंगी।’
‘जानता हूँ, जानता हूँ, रूप, कि तू मेरी है। दुनिया की कोई ताकत तुझे मुझसे नहीं छीन सकती। पर फिर भी कहे जाता हूँ, यदि कुछ भी ऐसा-वैसा हो गया तो दुनिया के किसी भी कोने से तुझे भगा लाऊँगा, उस समय मुझे कोई नहीं रोक सकेगा।’
ऐसी नौबत ही नहीं आएगी।’ तभी चाची ने दोनों को चाय के लिए बुलाया और दोनों उठकर चले गए।
ललित चला गया। चाची और रूप खूब रोईं, कुछ दिनों तक घर में भयानक सन्नाटा छाया रहा, फिर धीरे-धीरे सब-कुछ वैसे ही चलने लगा। जिस दिन ललित का पहला पत्र आया, पचासों बार उसे पढ़ा गया, जितने लोग आए सबसे कहा गया। फिर धीरे-धीरे पत्रों की बात भी पुरानी पड़ गई। रूप ने अपना सारा ध्यान किताबों में लगा दिया इस बार भी उसे फ़र्स्ट डिवीज़न में पास होना ही था। ललित के पत्रों में भी तो बराबर यही लिखा रहता था कि खूब पढ़ना, खूब मेहनत करना। रूप को उन पत्रों से बड़ा बल मिलता, बड़ी प्रेरणा मिलती। पर…

प्रिय ललित,

कभी सोचा भी नहीं था कि परसों ही पत्र लिखने के बाद आज फिर आधी रात के भयानक सन्नाटे में तुम्हें पत्र लिखने बैठना पड़ेगा। यह भी नहीं जानती कि जो कुछ लिखना है वह कैसे लिखूँ? बस इतना समझ लो ललित कि इतने विश्वास के साथ अपनी जिस धरोहर को मेरे पास छोड़ गए थे, मेरे देखते-देखते उसे सब लोग छीन रहे हैं और मैं कुछ नहीं कर पा रही हूँ! तुम तो मेरी सारी दृढ़ता, सारे साहस को लेकर कोसों-कोसों दूर बैठे हो, अब किसका सहारा लेकर घरवालों का विरोध करूँ? तुम्हारे बिना कितनी बेबस, कितनी असहाय मैं अपने को महसूस कर रही हूँ, तुम सोच नहीं सकते! तुम्हीं बताओ ललित, अब क्या होगा?

नहीं जानती, पिताजी ने कौनसे जन्म का बदला निकाला है! एक बार मुझसे पूछ तो लिया होता। उस हालत में मैं साफ-साफ कह देती, पर किसी ने मुझसे पूछने की ज़रूरत ही नहीं समझी, और शादी की तारीख तक निश्चित कर दी। मेरी इच्छाओं की, मेरे अरमानों की कोई परवाह तक नहीं की। इतनी साध से सपनों का सुनहला संसार सँजोया था, वह क्या यों ही बिखरकर चूर-चूर हो जाएगा? नहीं-नहीं, ऐसा नहीं होने दूंगी, तुम कोई रास्ता बताओ, नहीं तो सच कहती हूँ मर जाऊँगी, मैं आत्महत्या कर लूँगी। अपने जीते-जी इस अन्याय को नहीं होने दूंगी। जिंदगी-भर घुट-घुटकर मरने से फाँसी का फंदा कहीं अच्छा है। बस एक ही गम मन को कचोटे डाल रहा है…तुम्हें पाने की कितनी साध थी मन में, पर मन का चाहा क्या कभी पूरा होता है? अगले जन्म में विश्वास नहीं करती, पर यदि होता तो यही प्रार्थना कि इस जन्म की अधूरी साध को पूरी कर देना ईश्वर!
ललित! या तो समय रहते मुझे इस अन्याय से बचा लेना या फिर जो कुछ भी कर गुज़रूँ उसके लिए क्षमा कर देना!

अच्छा विदा…कौन जाने यही मेरी अंतिम विदा हो।

तुम्हारी ही

रूप तुमने तो पत्र लिखने में बहुत देर कर दी ललित! बहुत देर कर दी। तुम्हारा पत्र मुझे उस समय मिला, जब अग्नि को साक्षी देकर मैं सदा के लिए पराई हो चुकी थी। चार दिन पहले यह पत्र मिला होता तो सोचती हूँ शायद इसी का सहारा लेकर कुछ कर सकती। पर आज तो इसका शब्द-शब्द मेरे हृदय को मथे डाल रहा है।
कितने जोश के साथ मैंने लिखा था कि यदि मैं कुछ भी नहीं कर सकी तो आत्महत्या कर लूँगी। मैं मर जाऊँगी, पर मैं मर भी न सकी। तुम भी सोचते होगे कितनी ज़ाहिल लड़की है, पर नहीं जानती कि सब-कुछ लुट जाने पर भी किसका मोह प्राणों को यों अटकाए है। शायद मन के किसी अज्ञात कोने में तुमसे दंड पाने की लालसा छिपी बैठी है, जिसने मुझे मरने भी नहीं दिया। तुम्हारे साथ इतना बड़ा विश्वासघात करके, बिना तुमसे उचित दंड पाए यदि मर भी जाती तो विश्वासघात की यह भावना निरंतर मेरी आत्मा को सालती न रहती, अब तो जब तक तुम लौटकर नहीं आ जाते और मुझ जैसी ज़ाहिल लड़की को जी भरकर इस कुकर्म की सज़ा नहीं दे लेते, तब तक मैं तुम्हारा आसरा देखती बैठी रहूँगी! यों तो विधाता ने ही मेरे लिए दंड सँजोया है, वह संसार के भयंकर-से-भयंकर दंड से भी कड़ा है, पर विधाता से भी बड़ी अपराधिनी तो मैं तुम्हारी हूँ, सो जब तक तुम्हारे हाथों दंड नहीं पा लेती, मानो मरने का अधिकार भी मुझे नहीं है।
मैं तो अपनी कमज़ोरी का फल भोगूँगी ही, पर इस सारी बात से अकारण ही तुम्हें इतना दुखी होना पड़ा, यह सब सोच-सोचकर ही मन बिंधा जा रहा है। शायद अपात्र को प्यार करने से दुख ही उठाना पड़ता है। अब मुझे भूल जाओ ललित! स्वप्न में भी मेरा ख्याल मत करना। जितनी उमंग और जितने उत्साह के साथ तुम्हारे प्यार को सहेजा, उसी उत्साह के साथ, मन को ज़रा भी मलिन बनाए बिना मैं तुम्हारी उपेक्षा और भर्त्सना को भी अपने आँचल में समेट लूँगी, इतना विश्वास रखना। मुझ जैसे अनेक रूप तुम्हें मिल जाएँगी।
अब और कुछ नहीं लिखूँगी ललित! अब लिखने को शेष रह ही क्या गया है भला? इस पत्र का उत्तर मत देना और यों भी कभी मुझे पत्र मत लिखना। अपने जीवन के पिछले पृष्ठों से रूप का नाम धो-पोंछकर बिल्कुल साफ कर देना, जिससे मेरी अपवित्र छाया भी तुम्हारे सुनहले भविष्य को धूमिल न बना सके।

इसी अनुरोध के साथ

रूप

ललित,

पूछती हूँ, मना करने पर भी तुमने पत्र क्यों लिखा? मेरे इतने अनुरोध को भी रख सके! जानते हो, मैं तो यों ही बहुत कमज़ोर हूँ, फिर, क्यों मेरी मिट्टी बिगाड़ने पर तुले हो? तुम भी औरों के साथ मिलकर यों सताने लगोगे तो किसका आसरा लेकर जिंदा रहूँगी, यह तो सोचा होता।
इतने ढेर सारे प्रश्न तुमने पूछ डाले, पर पूछती हूँ, क्या करोगे यह सब जानकर? जिस लड़की ने तुम्हारे जीवन की सारी खुशियों को यों अकारण ही बर्बाद कर डाला, आज भी उसके दुख-सुख की चिंता से तुम त्रस्त हो। यह सब लिखने के बजाए यदि तुमने खूब भर्त्सना की होती, खूब फटकारा होता तो मन की व्यथा कुछ तो घटती, पर तुम्हारा यह स्नेह मुझसे सहा नहीं जा रहा ललित!
इन मेहँदी लगे हाथों से कैसे अपनी बर्बादी की कथा लिखूँ। बस यही समझ लो ये बहुत अच्छे हैं, और मैं सुखी हूँ। एक छोटा-सा शहर है। और ये इसके नामी वकील हैं। काम में बहुत व्यस्त रहते हैं, यों भी काफ़ी साधु प्रकृति के पुरुष हैं। परिवार का कोई झंझट नहीं, घर में अकेली ही हूँ। साधनों का कोई अभाव नहीं, पर जिसकी सब साध ही मर गई हो, वह क्या करे इन साधनों को लेकर? मेरे लिए बहुत-सी पुस्तकें मँगा दी गई हैं, जिससे इस बड़े घर में अकेली रहकर भी मेरा मन लगा रहे, पर कैसे बताऊँ उन्हें कि जिसका मन ही मर गया, उसके मन लगने न लगने का प्रश्न ही कहाँ उठता है भला!

बस और जो है सब ठीक ही है। जिंदगी को घसीट रही हूँ या जिंदगी मुझे घसीट रही है। कुछ भी समझ लेना, एक ही बात है।