Hindi Story: जैसे ही रूप ने सुना कि उसका स्कूल छुड़वा दिया जाएगा, वह मचल पड़ी-‘मैं नहीं छोडूँगी स्कूल। मैं साफ-साफ पिताजी से कह दूँगी कि मैं घर में रहकर नहीं पढ़ूँगी। घर में भी कहीं पढ़ाई होती है भला! बस, चाहे कुछ भी हो जाए, मैं यह बात तो मानूँगी ही नहीं। आजकल कुछ बोलती नहीं हूँ तो इसका यह मतलब तो नहीं कि जिसकी जो मर्जी हो, वही करता चले।’ वह मुट्ठियाँ भींच-भींचकर संकल्प करती रही और पिता के आने की राह देखती रही। संध्या को जैसे ही पिताजी आए, वह सारा साहस बटोरकर, अपने को खूब दृढ़ बनाकर उसके कमरे की तरफ़ चली। जैसे ही कमरे में घुसी उसके पिताजी बोल पड़े-
‘देखो रूप बिटिया, मैंने तुम्हारे लिए एक अच्छे से मास्टरजी की व्यवस्था कर दी है, वे कल से ही तुम्हें पढ़ाने आएँगे। आजकल यों भी स्कूलों में क्या होता-जाता है, सिवाय ऊधम धाड़े के। घर में ही मन लगाकर पढ़ोगी तो दो घंटे में ही चार घंटे की पढ़ाई कर लोगी। और फिर हमारी रूप बिटिया बुद्धिमान भी तो बहुत है, दो साल में बस मैट्रिक हो जाएगी। क्यों, ठीक है ना?’
रूप को लगा कि उसकी सारी दृढ़ता, सारा संकल्प बहा चला जा रहा है। उसके मुँह से केवल इतना ही निकला-‘जी ठीक है।’ और वह लौट आई। कमरे में आकर वह बहुत रोई, अपने को बहुत कोसा क्यों नहीं मैंने साफ-साफ कह दिया, क्यों मान गई मैं पिताजी की बात। पर उसके मन की बात उसके मन में ही घुटकर रह गई, उसे कोई जान भी नहीं पाया। दूसरे दिन से ही मास्टरजी पढ़ाने के लिए आने लगे और वह पढ़ने लगी।
आज से तीन साल पहले रूप बड़ी ज़िद्दी, बड़ी हठीली लड़की थी। तीन साल पहले अचानक हार्ट-फेल हो जाने के कारण उसके सिर से माँ का साया सदा के लिए उठ गया था। साल-भर बीतते-न-बीतते उसके पिताजी ने उसके लिए नई माँ की व्यवस्था तो कर दी, पर उसका मुरझाया मन फिर से हरा न हो सका। अपनी माँ के असीम प्यार में रहने के बाद जब एकाएक उसे नई माँ के कठोर नियंत्रण में रहना पड़ा तो वह इतनी डर गई, इतनी सहम गई कि उसका सारा उल्लास, सारी चंचलता, सारे हौसले मर गए। दस वर्ष की नन्ही रूप जैसे प्रौढ़ हो गई हो। पर इस प्रौढ़ता में भी कभी-कभी उसका बचपना झाँक जाता था, कभी-कभी ज़िद पकड़कर बैठ जाने की उसकी इच्छा होती थी, लेकिन…
दूसरे दिन से मास्टर जी आने लगे और वह पढ़ने भी लगी, पर थोड़े ही दिनों में रमेश बाबू ने इस बात को अच्छी तरह महसूस कर दिया कि रूप का स्कूल छुड़वाकर उन्होंने भारी भूल की। धीरे-धीरे घर का सारा काम एक के बाद एक तारा देवी के कंधों से सरककर रूप पर आता गया और वह भी बिना विरोध किए चुपचाप सब-कुछ ओढ़ती चली गई। चंद दिनों में ही वह विद्यार्थी से गृहस्थिन बन गई। संध्या को ऑफ़िस से लौटकर जब वे रूप का क्लांत चेहरा देखते तो उनका मन मसोस उठता। बहुत सोच-विचार कर उन्होंने आख़िर एक दिन तारादेवी से कहा-
‘मास्टरजी कह रहे थे कि रूप की पढ़ाई ठीक से नहीं हो रही है।’
‘अरे तो पढ़ाई भी कोई रोटी है कि गटागट खा ली। मैं तो पहले ही कहूँ थी कि लड़कियों की बुद्धि घर सँभालने की होती है? तुम ज़बरदस्ती ही किताबों से मगज़मारी करवाओगे तो और क्या होगा?’
‘जब किसी बात को पूरी तरह समझती नहीं तो यों टाँग मत अड़ाया करो!’
स्वर में क्रोध का पुट स्पष्ट–‘मैं सोचता हूँ, रूप को उसके मामा के यहाँ भेज दूँ। वे तो बेचारे पहले भी बहुत कह गए थे। बस मैं ही नहीं माना। अब सोचता हूँ भेजना ही ठीक होगा। उसके कोई संतान भी नहीं है, दूसरे वहाँ लड़कियों की शिक्षा की अलग व्यवस्था भी है। शहरी जीवन में रहेगी तो कुछ बनेगी…नहीं-नहीं उसे अब भेजना ही होगा, ऐसे चलेगा नहीं।’
कोई और समय होता तो तारादेवी शायद इस प्रस्ताव को कभी नहीं मानतीं, पर आज रमेशबाबू का रुख कुछ ऐसा था कि विरोध करने का साहस नहीं हुआ। केवल इतना ही कहा–‘तुम जानो और तुम्हारा काम जाने।’ और वे चली गईं।
जब रूप ने देखा कि मामा के यहाँ भेजा जा रहा है तो उसका मन विद्रोह कर उठा-‘मैं नहीं जाऊँगी मामा-वामा के यहाँ। अपना घर क्यों छोडूँ, स्कूल भी छुड़वा दिया, इतना काम भी करती हूँ, फिर भी ये लोग मुझे अपने घर नहीं रखना चाहते। इस बार मैं साफ़-साफ़ कह दूंगी कि मैं कहीं भी नहीं जाऊँगी।’ जाने क्यों इस बात से उसे लगा मानो पिताजी उसे घर से निकालना चाहते हैं और यही भावना उसके मन को कचोट रही थी। ‘मैं इतनी पराई हो गई, इतनी बुरी हो गई कि घर में भी नहीं रखा जा सकता। ऐसा ही है तो मुझे मार डालो, पर मैं जाऊँगी नहीं!’ और वह शाम तक रोती रही। शाम को पिताजी के आते ही वह साहस बटोरकर उधर चली। जैसे ही दरवाज़े के निकट पहुँची उसने सुना, नई माँ पिताजी से कहा रही थीं-‘तुम्हारे ही भेज़ँ-भेज़ँ करने से क्या होता है, तुम्हारी लाड़ली तो सवेरे से आँसू ढुलका रही है।’
पिताजी बोले-‘कौन, रूप बेटी! अरे वह बड़ी समझदार लड़की है, मेरा कहना वह कभी टाल सकती है!’ रूप को लगा जैसे उसका सारा विरोध, सारा क्रोध बह गया है। वह जितने जोश के साथ इधर आई थी, उतने ही शिथिल कदमों से लौट गई।
मामा के बारे में रूप ने सुना तो बहुत था, होश सँभालने के बाद उन्हें कभी देखा नहीं था। जब वह वहाँ पहुँची तो मामा-मामी के असीम प्यार ने दो दिन में ही जैसे उसे नया जीवन दे दिया। मामा तो बहुत देर तक उसके सिर पर हाथ फेरते रहे और उनकी आँखों से आँसू बहते रहे। मामा को यों रोते देख रूप भी बहुत फूट-फूटकर रोई। मामा-मामी के अतिरिक्त उस घर का तीसरा सदस्य था ललित। बचपन से ही डॉक्टर साहब ने इसे पाला था, और आज तो वह एक प्रकार से उनका पुत्र ही बन गया था। डॉक्टर साहब तो अपने काम में ही बड़े व्यस्त रहते थे सो उन्होंने रूप की पढ़ाई-लिखाई की व्यवस्था का सारा भार ललित पर डाल दिया। शुरू में रूप को ललित के सामने बड़ी झिझक लगती थी। लड़कों के साथ बात करने की उसे आदत जो नहीं थी, पर उस घर का वातावरण ही इतना उन्मुक्त, इतना स्वच्छंद था कि अधिक दिनों तक संकोच और झिझक टिक नहीं सकी।मैट्रिक की परीक्षा देकर भी रूप घर नहीं गई। सारी छुट्टियाँ वहीं बिता दीं। आज उसका रिजल्ट निकलनेवाला है। ललित रिज़ल्ट देखने गया हुआ है और उसे लग रहा है जैसे समय ही नहीं गुज़र रहा है। पास तो वह ज़रूर ही हो जाएगी, डिवीज़न भी अच्छा ही मिलेगा, फिर भी जब तक रिज़ल्ट न आ जाए, मन में खटका था तभी दूर से ललित आता दिखाई दिया, वह दौड़कर फाटक पर पहुँची। ललित ने कहा-‘मैं कहता हूँ, बोर्डवाले फोर्थ-डिवीज़न की भी व्यवस्था कर देते तो उनका क्या बिगड़ जाता!’‘क्यों, क्या हुआ?’ रूप ने कुछ बुझे-से स्वर में पूछा। पर उसे अपनी असफलता पर विश्वास नहीं हो रहा था।
‘होगा क्या, फर्स्ट से लेकर थर्ड डिवीज़न तक की सारी लिस्ट टटोल मारी, कहीं आप साहब का नाम ही नहीं!’‘चलो हटो, झूठे कहीं के, ऐसा हो ही नहीं सकता!’‘नहीं साहब, ऐसा कैसे हो सकता है, रूप रानी तो पास होने का पट्टा लिखाकर आई हैं खुदा के घर से। देख रही हो चाची इसका मुगालता! खोपड़ी में गोबर और सपने देखेंगी, फर्स्ट डिवीज़न के।’
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