Ek Baar Aur by Mannu Bhandari
Ek Baar Aur by Mannu Bhandari

Hindi Story: सारा सामान बस पर लद चुका है। बस छूटने में पाँच मिनट बाकी है। ड्राइवर अपनी सीट पर आकर बैठ गया है। सामान को ठीक से जमाकर कुली नीचे उतर आया है और खड़ा-खड़ा बीड़ी फेंक रहा है। अधिकतर यात्री बस में बैठ चुके हैं, पर कुछ लोग अभी बाहर खड़े विदाई की रस्म अदा कर रहे हैं। अड्डे पर फैली इस हल्की -सी चहल-पहल से अनछुई-सी बिन्नी चुप-चुप कुंज के पास खड़ी है। मन में कहीं गहरा सन्नाटा खिंच आया है। इस समय कोई भी बात उसके मन में नहीं आ रही है, सिवाय इस बोध के कि समय बहुत लंबा ही नहीं, बोझिल भी होता जा रहा है। लग रहा है जैसे पाँच मिनट समाप्त होने की प्रतीक्षा में वह कब से यहाँ खड़ी है। कुंज के साथ रहने पर भी समय यों भारी लगे, यह एक नयी अनुभूति है, जिसे महसूस करते हुए भी स्वीकार करने में मन टीस रहा है।‘पान खाओगी?’‘नहीं।’

‘कुछ पिपरमेण्ट की गोलियाँ पर्स में रख लो।’‘मुझे चक्कर नहीं आते।’‘टिकट ठीक से रख लिया न?’‘हूँ।’
ये औपचारिक वाक्य दोनों के बीच घिर आये मौन को तोड़ने में कितने असमर्थ हैं, दोनों ही इस बात को जान रहे हैं, पर मौन तोड़ने के लिए शायद कुछ और है भी नहीं। अब से कोई पाँच घण्टे पहले चाय पीते-पीते बिन्नी ने बिना किसी प्रसंग और भूमिका के कहा था, ‘कुंज, मैं आज ही वापस लौट जाऊँगी।’

‘क्यों?’ हल्के-से विस्मय से उसने पूछा था।‘बस, अब लौट ही जाऊँगी।’ चाय के साथ-ही-साथ आँसुओं का घूँट-सा पीते हुए उसने कहा था, तब स्वयं उसके मन में भी शायद यह बात नहीं थी कि आज ही उसे चल देना पड़ेगा।‘तुम तो लंबा प्रोग्राम बनाकर आई थीं न?’ कुंज के स्वर में जैसे नमी आ गई थी, पर उसे रोकने का आग्रह या मनुहार जैसी कोई बात नहीं थी। उसके चेहरे के रह-रहकर बदलते भावों से उसके मन की दुविधा का आभास ज़रूर मिल रहा था। बिन्नी बूंद-बूंद चाय सिप करके अकारण ही समय को खींच रही थी। तभी बैरा अखबार दे गया, तो कुंजी को जैसे एक सहारा मिल गया।बिन्नी उठी और सूटकेस ठीक करने लगी। अधिकतर साड़ियों की तह भी नहीं खुली थी, फिर भी उन्हें निकाल-निकालकर जमाने लगी। हर क्षण उसे लगा था कि कुंजी दोनों के बीच खिंच आए इस तनाव को तोड़कर उसे बुरी तरह डाँटेगा और गुस्से में आकर सूटकेस का एक-एक कपड़ा निकालकर बाहर फैला देगा। पर ऐसा कुछ नहीं हुआ। बड़ी देर तक बिन्नी इधर के कपड़े उधर करती रही, फिर जाकर खड़ी होकर नीचे से गुजरते सैलानियों को देखती रही और कुंज बड़े निरर्थक से कामों में अपने को व्यस्त बनाये रखने का अभिनय करता रहा। और उस समय का मौन यहाँ तक खिंचा चला आया।

कंडक्टर ने सीटी बजायी। बिन्नी ने देखा कि एक बड़ी ही निरीह-सी कातरता कुंज के चेहरे पर उभर आई है। बिन्नी का अपना मन बहने-बहने को हो आया, पर अपने को भरसक साधती-सी बस में चढ़ने लगी। कुंज ने हल्के-से उसकी पीठ पर हाथ रखकर उसे सहारा दिया। बस स्टार्ट हुई तो, कुंज ने कहा, ‘पहुँचकर लिखना।’ बिन्नी से स्वीकृति में सिर भी नहीं हिलाया गया।बस चल पड़ी, तो उसके खाली मन पर आक्रोश निराशा, अवसाद और आत्मग्लानि की परतें जमने लगीं। आँसुओं को आँख की कोरों में ही पीते हुए वह बाहर देखने लगी। मोड़ पर एक बार उसने पीछे की ओर मुड़कर देखा। बस धूल के जो गुबार छोड़ आई थी, उसके बीच कुंज का सिर दिखाई दिया। पता नहीं वह किस ओर देख रहा था। मोड़ के साथ ही बस ढलान पर चलने लगी। चारों ओर फैली हुई पहाड़ियों और उसके बीच अंगड़ाई लेती हुई सुनसान घाटियाँ। कुंज ऊपर ही छूट गया है, और बस उसे तेजी से नीचे की ओर ले जा रही है, नीचे-नीचे। पीछे कोई बराबर खाँस रहा है, जैसे दमे का मरीज हो। इस लगातार की खाँसी से बिन्नी को बेचैनी होने लगी। उसने पीछे मुड़कर देखा। सबसे पिछली सीट पर एक बूढ़ा पैर ऊपर उठाये, घुटनों में मुँह छिपाये लगातार खाँसे जा रहा है। थोड़ी देर में उसकी खाँसी बंद हो गई, तो बिन्नी बड़ी बेकली से उसके फिर खाँसने की प्रतीक्षा करने लगी। जब फिर खांसी चलने लगी, तो उसे जैसी राहत मिली। और हर बार यही होता, उसके खाली मन को टिकने के लिए जैसे एक सहारा मिल गया।

बस से उतरी तो बिन्नी को लगा, जैसे उसका सिर बहुत भारी हो आया है। हवा वास्तव में शायद उतनी गरम नहीं थी, जितनी पहाड़ पर से आनेवालों को लग रही थी। बिन्नी ने वेटिंग रूम में जाकर हाथ-मुंह धोया, सिर पर ढेर सारा ठंडा पानी डाला और पंखे के नीचे बैठ गई।प्लेटफार्म पर इस समय सन्नाटा-सा ही था। बस से उतरे हुए यात्री वेटिंग-रूम में समा गये। नीली वर्दीवाला कोई-कोई खलासी इधर-उधर आता-जाता दिखाई दे जाता था।धीरे-धीरे साँझ उतरने लगी, तो बिन्नी की आँखों में कल की साँझ उतर आई।हवा में काफी ठंडक थी, फिर भी चढ़ाई के कारण बिन्नी और कुंज के चेहरे पर पसीने की बूंदे झलक आई थीं। बिन्नी चुपचाप चल रही थी, अपने में ही डूबी, आत्मलीन-सी।कुंज शायद समझ रहा था कि फूली हुई सांस के कारण उससे कुछ बोला नहीं जा रहा है। पर नहीं, बिन्नी के पास उस समय बोलने के लिए कुछ था ही नहीं। केवल यह अहसास था कि सारी बात खिंचकर ऐसे बिंदु पर आ गई है, जहाँ शायद कहने-सुनने के लिए कुछ भी नहीं रह जाता।
‘कहीं बैठ जाये अब तो,’ चुप-चुप चलने से ऊबकर बिन्नी ने कहा‘बहुत थक गईं?’
‘हाँ, अब तो सचमुच बहुत थक गई।’ और जब उसने कुंजी की कुछ टटोलती-सी नजरों को अपने चेहरे पर टिका पाया, तो उसे लगा जैसे कुंज ने उसकी बात को किसी और ही अर्थ में ग्रहण किया है।