‘उनको देखकर तो मुझे भी यही लगता है, पर जब-जब वे मिली, उनकी प्रेम और विवाह वालों बातों से लगा, जैसे ये मात्र जिज्ञासाएं नहीं है, मानो इनका सम्बन्ध कहीं व्यक्तिगत जीवन से जुड़ा हुआ है।’
एक क्षण को बिन्नी भीतर तक सिहर उठी, पर फिर अपने को सहज बनाती-सी बोली, ‘उसको तो आदत है कि किसी बात के पीछे पड़ जाती है, तो जब तक उसका रेशा-रेशा न उधेड़े दे उसे चैन नहीं मिलता।’ और वह मुस्करा दी।‘रियली शी इज ए नाइस लेडी।’ फिर सिगरेट के दो कश एकसाथ खींचकर उसने कहा, ‘ये सोलह दिन कैसे निकल गए, पता ही नहीं लगा। दिनेश ने मुझे कहा था कि खाली समय के लिए यू विल फाइंड देम एक गुड कम्पनी। आप लोगों के साथ बिताये ये दिन याद आएँगे। खासकर के झील के किनारे की ये शामें।’ बिन्नी को लगा जैसे नंदन का स्वर कहीं दूर से आकर उसके मन की गहराइयों में गूंजता चला जा रहा है और अर्थ है कि खुलते चले जा रहे हैं। सुषमा की बात याद आई, ‘कोई संकेत दे तो पत्थर होकर मत बैठना’ और उसकी तेज निगाहें नंदन के मन तक पहुँचने के लिए छटपटाने लगीं। पर नंदन अपने में ही खोया-सा झील की ओर देख रहा था।चुपचुप बिन्नी घुटने पर ठोढ़ी टिकायें उँगली से जमीन पर आड़ी-टेढ़ी लकीरें बनाने लगी।समय के साथ-साथ उसकी बेचैनी बढ़ने लगी। एक बार उसने उड़ती-सी नज़रों से नंदन की ओर देखा भी और उसे लगा जैसे नंदन शब्द ढूँढ़ रहा है। ऐसा कुछ कहने के पहले शायद आदमी इसी तरह चुप हो जाता है। वह शब्द ढूँढ़ता है, मन-ही-मन उन्हें दोहराता है, साहस जुटाता है, सामनेवाले पर होनेवाली प्रतिक्रिया के लिए अपने को तैयार करता है। क्या कहेगा नंदन?
‘दिनेश आपसे पाँच बड़े हैं न?’‘हूँ,’ मन की खीज को दबाते हुए उसने कहा।
‘बहुत बातें किया करते हैं वे आपकी।’ तो बिन्नी का मन हुआ कि पूछे कि भैया उसके बारे में क्या-क्या बातें करते हैं?‘आप पिछले दो सालों से कलकत्ता क्यों नहीं आयीं?’‘बस, उधर का प्रोग्राम ही नहीं बना।’
‘इस बार क्रिसमस में आइये। उन दिनों कलकत्ता बहुत प्लेजेंट हो उठता है। देखिए तो, उस शोर-शराबे का भी अपना एक आनंद होता है। फिर मैं आप लोगों को कतई ऊबने नहीं दूंगा।’
इस आग्रह से बिन्नी कहीं आर्द्र हो उठी। इच्छा हुई खुलकर कह दे-नंदन मैं बहुत-बहुत ऊबी हुई हूँ, इस जगह से, इस नौकरी से, इस जिंदगी से। पर वह कुछ नहीं कह पायी, केवल कुछ और सुनने की आशा से नंदन की ओर देखती रही।देखते-ही-देखते अंधेरा असमान में उतरकर सबको धूमिल बनाता हुआ पानी में घुल गया और उसने झील में तैरते हुए पहाड़ों को निगल लिया। तभी एकाएक घाट की सारी बत्तियां जल उठीं। और झील में एक सिरे से दूसरे सिरे तक सुनहरे खंभे झिलमिलाने लगे।‘बिन्नी जी, उसे लगा जैसे नंदन का हाथ उसके कंधे पर आ गया है। उसने चौंककर देखा-नहीं, नंदन वैसे ही दोनों फैली हुई हथेलियाँ पीछे टिकाये बैठा है। उसने साड़ी का पल्ला खींचकर अपना कंधा ढक लिया। उसे ऐसा क्यों लगा? नंदन को क्या एक बार भी खयाल नहीं आया कि यह भी तो एक तरीका हो सकता है। अभी कुंज होता तो?‘आप बुरा न मानें तो मैं यहाँ थोड़ी देर लेट लूँ।’ और बिन्नी कुछ कहती उसके पहले ही बिना उससे पूछे उसने बिन्नी का पर्स उठाया और उसका तकिया बनाकर चित्त लेट गया।बिन्नी को हल्की-सी निराशा हुई। क्या वह कुछ देर और बात नहीं कर सकता था? पर साथ ही वह आश्वस्त भी हुई। वह लौट चलने की बात भी तो कह सकता था। नहीं, वह लेटकर शायद अपने को साध रहा है। बिन्नी को भी समय दे रही है। हो सकता है कि इस बार उठकर साफ़-साफ़ ही पूछे। बिन्नी ने ज़रा-सा फिर घुमाकर नंदन की ओर देखा-छाती पर दोनों हाथों का क्रास बनाये आँखें बंद किये नंदन चित लेटा था। एक झटके-से सारा दृश्य बदल गया।रीगल के सामने के मैदान का ऐसा ही अंधेरा कोना था और ठीक इसी तरह मुँह पर रूमाल डाले कुंज लेटा था। मुड़े हुए दोनों घुटनों को बाँहों से घेरकर उस पर गाल टिकाये बिन्नी बैठी थीं।
दुविधा के ऐसे ही क्षण उन दोनों के बीच में से भी गुज़र रहे थे। कनॉट प्लेस की सारी चहल-पहल से अछूता उसका मन इस बात पर केन्द्रित हो आया था कि कुंज क्या कहेगा? बात टूटी भी तो ऐसी जगह थी कि…
‘बिन्नी, झगड़ा किया तो तीन साल तक मुड़कर ख़बर तक नहीं ली। मैंने लिखा कि तुम यदि मुझसे संबंध नहीं रखना चाहती हो, तो मेरे सारे पत्र लौटा दो और तुमने बिना एक क्षण भी यह सोचे कि मुझ पर उसकी क्या प्रतिक्रिया होगी, सारे पत्र लौटा दिये। मैंने भी समझ लिया कि तुमने पत्र नहीं, मेरी सारी भावनाएं, मेरा सारा प्यार मुझे लौटा दिया। उस समय मेरे पास था ही क्या? बेकार, निठल्ला-सा घूमा करता था…तुमने सोचा होगा कौन लड़की मुझ जैसे व्यक्ति की जिंदगी में आना पसंद करेगी-बेकारी की मुसीबतें और परेशानियों से भरे वे दिन और ऊपर से तुम्हारा यों कटकर निकल जाना। कितना टूटा-टूटा लगता था उन दिनों मुझे। कितना अकेला हो आया था उन दिनों मैं! और ऐसे में ही मधु जो आई तो बस आती ही चली गई?’
बिन्नी कुछ नहीं बोली थी। केवल उसकी आँखों से आँसू बहते रहे थे। कुंज उन आंसुओं के सामने जैसे बह-सा आया।‘अच्छा, बिन्नी, मान लो मैं अपनी जिंदगी के इन दो सालों को पोंछ दूँ और फिर तुम्हारी ओर हाथ बढ़ाऊँ तो? पहले की तरह फिर तो छोड़कर नहीं चल दोगी न? मैं कहीं का भी नहीं रहूँगा।’
‘अपनी ही बिन्नी पर तुम्हें विश्वास नहीं?’ भीगे-से स्वर से वह केवल इतना ही कह पायी थी। फिर पूछा था, पर मधु का क्या होगा?’
‘उसे समझाऊँगा, उसे समझाना ही होगा।’ कहीं दूर खोया हुआ कुंज बोल रहा था। फिर एकाएक ही फूट पड़ा, ‘पर क्या समझाऊँगा? उसका दोष ही क्या है, जो उसे इतनी बड़ी सजा दूँ?’और वह मुँह पर रूमाल डालकर घास पर चित लेट गया था। बिन्नी निःशब्द रोती रही थी। कनॉट प्लेस का सारा माहौल अपनी रफ्तार से पूरे शोर शराबे के साथ गुज़र रहा था।थोड़ी देर बाद ही कुंज झटके से उठा था और उसका हाथ अपने हाथ में लेकर बोला था, ‘व्ही आर मैरिड बिन्नी, व्ही आर मैरिड।’बिन्नी अवाक्-सी उसका मुँह देखने लगी-मानो उन शब्दों का अर्थ समझने की कोशिश कर रही हो। और तब कनॉट प्लेस की सारी लाल-नीली जगमगाती बतियाँ उसके चारों ओर सिमट आई थीं और आसमान के सारे तारे दिप-दिप करके उसी वाक्य को दोहराने लगे थे।
पर ठीक एक महीने बाद ही-वह औंधी लेटकर रो रही थी-फूट-फूटकर और बिलख-बिलखकर और सुषी गुस्से में बावली हो, हवा में मुट्ठियां उछाल-उछालकर चिल्ला रही थी, ‘झूठा, नीच, धोखेबाज!’
विवाह की सूचना देते हुए कुंज के पत्र के टुकड़े इधर-उधर छितरे पड़े थे।‘अब चला जाये।’
अपने में ही डूबी बिन्नी नंदन का उठना नहीं जान सकी। पर इस वाक्य ने जैसे उसे कहीं गहरे पानी से उबार लिया। अनायास ही उसके हाथ आँखों पर चले गए, कहीं आँसू तो नहीं आ गए?‘यहाँ लेटा तो समय का कुछ खयाल ही नहीं रहा, वहाँ खाने पर सब मेरा इंतज़ार कर रहे होंगे।’ खड़े होकर कमीज़ और पतलून झाड़ते हुए कहा।तब बिन्नी को ख़याल आया कि नंदन को कुछ कहना था। वह आशा कर रही थी कि नंदन कुछ कहेगा। उसने बड़ी याचना-भरी दृष्टि से देखते हुए कहा, ‘इंतज़ार तो सुषमा भी कर रही होगी।’ और अनमनी-सी बिन्नी उठी।‘मुझे बहुत-बहुत अफ़सोस है, क्या करूं आप मेरी ओर से माफी माँग लीजिए। उनसे तो गुड-बाई भी नहीं हो सकीं।’बिन्नी घाट पर फैली रोशनी में धीरे-धीरे सरकती दोनों परछाइयों को देखती-देखती आगे बढ़ रही थी। ज़रा-सा आगे-पीछे होने पर दोनों परछाइयाँ एक-दूसरे में घुल-मिल जातीं।घाट की अन्तिम बत्ती के नीचे नंदन ने घड़ी देखी : ‘आठ बीस।’ फिर क्षमा याचना के स्वर में बोला, ‘आज तो मैं आपको छोड़ते हुए भी नहीं जा सकूँगा। रात हो गई है, आप अकेली…!’‘मेरी चिंता मत करिये, मैं चली जाऊँगी। खेत पार करके ही तो सड़क मिल जाएगी। शायद कोई ताँगा ही मिल जाये।’दोनों कच्चे रास्ते पर आये, तो नंदन ने जेब से टार्च निकालकर जला ली, ‘आपके पास टार्च भी नहीं है? खेत का यह रास्ता तो बड़ा ऊबड़-खाबड़ है। न हो तो आप मेरी टार्च ले जाइये।’
‘नहीं, नहीं, आप ज़रा भी परेशान न हों। तीन सालों में इस रास्ते से बहुत परिचित हो गई हूँ। मुझे आदत है।’
और जहाँ दोनों के रास्ते अलग होते थे, नंदन रुका, ‘अच्छा बिन्नी जी, अब आप अकेले कलकत्ते आएँगी तभी मुलाकात होगी। सवेरे तो बहुत जल्दी ही हमको रवाना होना है, मिलने के लिए भी नहीं आ सकूँगा। सुषमाजी को नमस्कार कहिए और मेरा निमंत्रण उन तक भी पहुँचा दीजिए।’ फिर एक क्षण ठहरकर बोला, “धन्यवाद तो क्या दूँ, फिर भी आप लोगों के साथ समय बहुत अच्छा कटा।’बिन्नी चुपचुप बस नंदन के चेहरे को देखने की कोशिश करती रही।‘अच्छा बा-बाई,’ और उसने बिन्नी का हाथ अपने हाथ में लेकर हल्के-से दबाकर छोड़ दिया।किसी तरह शब्दों को ठेलकर उसने कहा, ‘भैया, भाभी को याद करिएगा।’‘ज़रूर-ज़रूर।’ और वह मुड़ गया।बिन्नी पेड़ की आड़ में खड़ी होकर उसको देखती रही। अंधेरे में नंदन की आकृति एक बड़े-से धब्बे में बदल गई, जो धूमिल और छोटी होते-होते पेड़ों के झुरमुट में अदृश्य हो गई।अनमनी-सी बिन्नी खेत पार करके सड़क पर आई। घर अभी यहाँ से भी दूर था।सड़क के दोनों ओर दूर-दूर तक मैदान फैले थे। सिर के ऊपर साफ नीला आकाश तना हुआ था, जिस पर सप्तऋषि मंडल का प्रश्नवाचक दिप्-दिप् करके चमक रहा था।
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एक बार और: मन्नू भंडारी की कहानी
