Asaamayik Mrtyu by Mannu Bhandari
Asaamayik Mrtyu by Mannu Bhandari

‘सिनेमा।’ बिना झिझक के राजू ने एक-एक अक्षर पर जोर देकर कहा और साथ ही जोड़ दिया, ‘पैसे अम्मा से नहीं लिए थे, शिबू ने दिखाया है अपनी तरफ़ से…वरना एक लैक्चर और सुनो!’तड़ाक! दीपू का भरपूर हाथ राजू के गाल पर।‘देख रहा हूँ, बदतमीज़ और ढीठ हुए जा रहा है दिन-पर-दिन! लाट साहब समझने लगा है अपने-आपको…’शारदा का यह रूप, यह आवाज़, यह प्रश्न सब-कुछ एकदम अप्रत्याशित।‘सिनेमा देखने चला गया तो कोई गुनाह कर दिया? इस उम्र में किसे शौक नहीं होता है देखने का? पहनना, हँसना-खेलना सभी कुछ तो छोड़ दिया है मेरे बच्चों ने।’ और बिना जवाब की अपेक्षा किए शारदा जैसे आई थी, चली गई।
‘मेरे बच्चे!’ दीपू की खोपड़ी पर यही शब्द घनघनाता रहा।लेकिन दो दिन बाद ही जब राजू ने शारदा से कहा, ‘अगले हफ्ते इम्तिहान के फार्म भरने हैं, मिस्टर बोर से कह देना इम्तिहान दिलवाना है तो रुपयों का इंतज़ाम करके रखें…’ तो शारदा ने भी थप्पड़ जड़ दिया उसके गाल पर।

‘बेशरम, बदतमीज़ कहीं के! तुम लोगों के पीछे उसने अपने को झोंक दिया..बिल्कुल मार दिया और तुम लोग ही कहोगे बोर!’

पर आपसी दुर्भावना मिटाने के ये प्रयास कड़की के कोड़े के नीचे सहमकर रह जाते हैं।
‘जल्दी ही रुपयों का प्रबंध होने की उम्मीद है के आश्वासन वाले पत्र अब किसी को हौसला नहीं बँधाते और मन की निराशा खीज बनकर एक-दूसरे पर निकलती रहती है। हारकर एक दिन शारदा कहती है, ‘दीपू, मेरे लिए किसी काम का जुगाड़ कर दे। दसवीं पास तो मैं भी हूँ…कुछ-न-कुछ तो कर ही लूँगी!’
पर काम का जुगाड़ शारदा के लिए नहीं, दीपू ने अपने ही लिए किया। शाम को किसी के यहाँ चिठ्ठियाँ टाइप करनी, हिसाब लिखना। दो घंटे, डेढ़ सौ रुपया!
शारदा ने सुना तो राहत की साँस ली, ‘करो बेटा, करो! कुछ तो हाथ खुलेगा!’
आज दीपू को छह माही बोनस मिला। एक महीने की अतिरिक्त तनख्वाह। लग रहा है जैसे घर के सारे तनाव ढीले हो गए।

लौटते हुए रास्ते से उसने गाजर का हलवा बँधवाया। आधी सर्दी बीत गई, एक बार भी हलवा नहीं खाया।
इन रुपयों से वह सबकी छोटी-मोटी इच्छाएँ पूरी करेगा। सिनेमा दिखाएगा। पिछले छह महीने से कल की चिंता में वह आज को मारता ही आया है। राजू ठीक ही कहता है। पर उसे रास्ते पर ज़रूर लाना है…थोड़ा भटक रहा है।मीनू को सलवार-कुर्ता बनवा देगा और अम्मा के लिए शॉल। अगले महीने तो वैसे भी डेढ़ सौ रुपया ज्यादा ही मिलेगा।चार सौ रुपयों में उसने सबके मन में पड़ी चार सौ सलवटों को सीधा कर दिया है।रात में शारदा दूध का गिलास लेकर सामने आ खड़ी होती है।‘यह क्या है?’‘दूध!’‘दूध, किसलिए?’

‘क्यों, सवेरे से रात तक मशीन की तरह जुटा रहता है…एक छूट दूध गले के नीचे नहीं उतरना चाहिए?
‘तुम भी कमाल करती हो अम्मा! घर में राजू और मीनू पढ़ने वाले बच्चे हैं…उसके इम्तिहान भी पास हैं…दे सको तो उन्हें दूध दो।’शारदा जैसे की तैसी खड़ी रह जाती है। दीपू की आवाज़, दीपू के चेहरे में से कुछ ढूँढती-सी।दो महीने बाद एक दिन अवतार की तरह मामा प्रकट हुए। पक्का और बढ़िया इंतज़ाम करके।
अग्रवाल ट्रेडिंग कंपनी है-खासी बड़ी। वे अपना एक ऑफिस यहाँ भी खोलना चाहते हैं। उन्हें चार-पाँच कमरों का एक मकान चाहिए, मेन मार्केट के पास। बस, यह मकान मैंने उसके गले उतार दिया। अग्रवाल साहब से पुराना रसूख है। सारी स्थिति समझाकर कह दिया कि हमें बीस हज़ार रुपया एडवांस दे दें और तीन महीने बाद मकान ले लें! तीन महीने से ज्यादा का काम है भी नहीं।’

‘वे मान गए?’ दीपू को जैसे विश्वास ही नहीं हो रहा था।‘मानेंगे क्यों नहीं? गौरीशंकर की बात और न मानी जाए।’ आत्मविश्वास और दर्प उनकी आवाज़ में छलका पड़ रहा था। मकान फिर बनने लगा।‘अम्मा, हमारे रहने का हिस्सा तो जैसा-तैसा बन ही गया-इन रुपयों से किराए पर उठाने वाला सेट पूरा करवा देता हूँ ऊपर का। पलस्तर, दरवाज़े और टीम-टाम में डेढ़ महीने से ज्यादा नहीं लगेगा। पूरा करते ही इसे भी किराए पर उठा देते हैं…किराया आना शुरू हो जाएगा।‘अब मिश्रा काका को बुलाकर भी क्या होगा? दिन-भर काम की निगरानी तुम रख लेना…बाकी मैं अकेला ही कर लूँगा, अब तो सब समझ गया। क्यों उन पर बेकार ही रुपए खर्च किए जाएँ!’‘किराएवाले सेट में टीम-टाम थोड़ी ज़्यादा करवा देते हैं, किराया अच्छा मिलेगा।’
शारदा सुनती रहती है और मुग्ध भाव से देखती रहती है दुनियादारी में पटु हो आए अपने इस बेटे को। और मकान पूरा हो गया। मामा मिस्टर गुप्ता के साथ-साथ ही आए हैं। हफ्ते भर में नीचे की रंगाई-पुताई पूरी हो जाएगी। तो वे अपना सामान जमाना शुरू कर देंगे। ऊपर का तीन कमरों का सेट भी उन्होंने ही किराए पर ले लिया, अपने मैनेजर के लिए।
ऊपर छत पर पूरा परिवार बैठा है।मामा बेहद प्रसन्न। दीपू को उन्होंने एक बाँह में समेटकर अपने पास ही बिठा रखा है। राजू-मीनू शारदा के अगल-बगल बैठे हैं। संतोष और तृप्ति के भाव में लिपटा मामा का प्रवचन चालू है :‘दीपू बेटे, तूने महेश बाबू का सपना पूरा कर दिया। रोम-रोम आशीर्वाद दे रहा होगा। बड़ी हौंस थी मकान की उनको। अगले सप्ताह 5 जून को ही तो बरसी है उनकी। नए मकान में ही करना…आत्मा जुड़ जाएगी उनकी।‘शारदा, एक साल और इसी तरह खींच-तान करके चला लो! अगले साल कर्ज चुक जाएगा तो राजू की मेडिकल की पढ़ाई का खर्चा करने में आसानी हो जाएगी।
‘अब दूसरा सपना तू पूरा कर दे राजू! बस, डॉक्टर बन जा! चार साल बाद फिर सब ऐश करना…’
‘कहाँ, फिर मीनू आकर खड़ी हो जाएगी। इसे भी तो पार लगाता है!’ दीपू ने बुजुर्गों की तरह कहा तो मामा हो-हो करके हँस पड़े।‘देखा शारदा, कैसा दुनियादार बन गया है तेरा बेटा! सारी जिम्मेदारी समझता है अपनी!’ फिर दीपू को लाड़ से सहलाते हुए बोले, ‘दुनियादारी का जंजाल ही ऐसा है बेटा! बस, आदमी सोचता ही रहता है कि यह हो जाए तो छुट्टी…यह जो जाए तो छुट्टी। पर इस प्रपंच में पड़े आदमी के लिए कहाँ पड़ी है छुट्टी!’फिर एक भाषण आजकल के लड़कों पर :

‘मैं तो कहता हूँ, घर-घर में दीपू का उदाहरण देना चाहिए जाकर। ये आजकल के वाहियात, नाकारा लौंडे-लपाड़े कुछ सीखें तो! नालायक सारे दिन बाल काढ़ेंगे, कूल्हे मटकाएँगे! माँ-बाप और घर-परिवार जाएँ जहन्नुम में, इनकी बला से!’सब प्रसन्न…सब गद्गद्। एक बड़ी उपलब्धि का संतोष…कुछ और कर डालने के हौसले!
राजू और मीनू सामान ढो-ढोकर ऊपर ला रहे हैं। शारदा ने आज दीपू की छोटी-सी कोठरी खोली है। सालभर से ताला पड़ा था इसमें। सामान के नाम कबाड़ा ही भरा था, फिर भी खाली तो करनी है।

नाटक के उतरे हुए सेट्स…लकड़ी के दरवाजे, पेंट किए हुए पेड़, कैनवास के टुकड़े…बेतरतीबी से इधर-उधर बिखरे पड़े हैं धूल में अटे, जालों से घिरे। शारदा ने खींच-खींचकर बाहर निकाला।
अलमारी खोली। एक कतार में नाटकों में जीते हुए कप और मैडिल्स रखे थे। एक क्षण को शारदा उस कतार को देखती रह गई। काम करने के लिए तत्पर हाथ…एकाएक जैसे ढीले पड़ गए।
उस कतार को बिना छुए ही उसने नीचे के खाने से पाँच-छ: फाइलें निकालीं। किसी में नाटक के टाइप किए हुए संवाद लगे थे तो किसी में अखबारों की ढेर सारी कटिंग्ज!
दीपक अग्निहोत्री : अभिनय के क्षेत्र में उभरती हुई एक नई प्रतिभा। ‘अनुश्री’ संस्था का सबसे सफल और समर्थ कलाकर-दीपक अग्निहोत्री।कहीं तस्वीरें-इनाम लेते हुए…किसी से हाथ मिलाते हुए…उत्पलदत्त से पीठ ठुकवाते हुए…
पूना का एडमिशन फ़ॉर्म! भरकर भेजने की तो नौबत ही नहीं आई। साथ ही तापस बाबू की बात-‘आप इसे नाटक से मत काटिए वरना…आप तो जानती हैं, नाटक इसका प्राण है।’तीन-चार नीले लिफ़ाफ़े में बंद आठ-दस छोटी-छोटी चिटें-‘आज ग्रीन रूम में हाथ पकड़कर जो कुछ कहा था, वह नाटक का संवाद तो नहीं था न? उसे सच ही समझूँ?’ के.
‘रिहर्सल के दौरान भी जब तुम देखते हो तो भीतर का सब-कुछ थरथरा जाता है। घर लौट आती हूँ, फिर भी तुम्हारी नज़र उसी तरह पीछा करती रहती है। अपनी नज़र को समझाओ-प्लीज़!’-के.‘आज तुमने यह क्या कर डाला? नहीं दीपू, अभी यह सब नहीं! तुम पूना चले जाओगे तो पीछे इस लायक तो छोड़ो कि प्रतीक्षा कर सकूँ।’-के.आँसुओं के सैलाब में शारदा और कुछ नहीं पढ़ पाई। बस, सुन्न-सी जहाँ की तहाँ बैठी रह गई। उसके आसपास सब-कुछ जड़ होता चला गया और भीतर एक दूसरी ही दुनिया खुलती चली गई–अनेक दृश्य, अनेक बातें…अनेक सपने…‘तुम्हारा बेटा जीनियस है शारदा, जीनियस! देखना, इतना नाम करेगा…’

‘अम्मा पंडित जी पूछ रहे हैं, बरसी पर कल कितने ब्राह्मणों को बुलाना है?’
बरसी? और एक क्षण शारदा जैसे समझ ही नहीं पाई कि किसकी बरसी की बात कर रहा है राजू।

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