Asaamayik Mrtyu by Mannu Bhandari
Asaamayik Mrtyu by Mannu Bhandari

बैंक-बैलेंस? निल!इंश्योरेंस?
जो भी था, मकान बनवाने के लिए तीन-चौथाई उधार ले लिया!प्रोविडेंड फंड?
उसमें से भी आधा कर्ज ले लिया, फिर भी वही एक रकम है! पर उससे तो यह मकान पूरा हो जाए तो गनीमत! इसे तो अब पूरा करना ही होगा, वरना अभी तक जितना पैसा लगाया है, वह भी पानी! पर समस्या तो यह है कि चार प्राणियों की यह गृहस्थी कैसे चलेगी?और सारे बंद रास्तों से लौटकर उनकी नज़र दीपू पर आकर टिक गई।‘बी.ए. का इम्तहान दिया है न? रिज़ल्ट भी आता ही होगा। अच्छे डिवीज़न में तो पास हो ही जाओगे। हूँ???…!’वह हुंकार शारदा के मन में जाने कैसा आतंक जमाती-सी भीतर तक उतर गई। उसने एक बार घुटनों पर ठोड़ी टिकाए दीपू के चेहरे की ओर देखा। उसकी अँसुवाई आँखों के आगे दीपू की आकृति थरथराती हुई धुँधली होती चली गई।चौथ के दिन हवन हुआ। दीपू के सिर पर पगड़ी पहनाई गई, ‘इसे केवल रस्म ही मत समझना दीपू बेटे! आज से बाबू की इज़्ज़त, बाबू की प्रतिष्ठा और बाबू का भार तुम्हारे सिर पर। अब इस घर की सारी ज़िम्मेदारी तुम्हें ही निभानी है…’ मामा की आँसुओं से रुँधी हुई वाणी आवेग के कारण भिंच गई।दीपू ने मामा के पैर छुए तो मामा ने अपने पैरों से उठाकर उसी वेश में दीपू को महेश बाबू के जनरल मैनेजर के चरणों पर झुका दिया।‘अट्ठारह साल तक महेश बाबू ने आपकी कंपनी की खिदमत की, अब दीपू को मौका दीजिए! उसका हक समझकर दीजिए, चाहे कृपा करके… पर करना अब आपको ही है।’
और रात को उन्होंने कुछ-कुछ किला फतह करने के अंदाज़ में सूचना दी : ‘लो, दीपू की नौकरी पक्की कर दी। चार सौ देंगे। मैंने भी गरम लोहे पर चोट की। दीपू बेटा, कल ही जाकर मैनेजर साहब से मिल लो और नियुक्ति-पत्र ले आओ। फिर कल, परसों जबसे कहें, काम पर जाना शुरू कर दो।’

बात खत्म करने के साथ ही एक गहरा निःश्वास उसके सीने से निकला…ज़िम्मेदारी निभा देने का एक विकट समस्या का समाधान कर देने का एक आश्वासन का। गहरा नि:श्वास शारदा की छाती से भी निकला, पर एक गहरे अवसाद का। भर्राए गले से पूछा, ‘दीपू नौकरी करेगा-अभी से?’ चार दिनों में यही पहला वाक्य उसके मुँह से निकला।‘अभी से? नहीं तो बाद में कौन पूछता है? यह मत भूलो की ताज़ा घाव पर दिखाई गई सहानुभूति ही वज़नदार होती है। फिर आजकल एम.ए. पास तक दौ सौ रुपल्ली की नौकरी के लिए जूतियाँ चटकाए फिरते हैं। यह तो महेश बाबू की मौत का लिहाज़…’पर शारदा घुटनों में सिर छिपाए बिसूरती ही रही।
‘मैं नौकरी करूँगा मामा!’ बड़े दृढ़ और निर्णयात्मक स्वर में दीपू ने कहा।‘शाबाश! यह हुई न बात! तुम इस गृहस्थी की गाड़ी को गुड़का ले जाओगे!’ फिर एकाएक स्वर को बेहद स्नेहिल और कोमल बनाकर बोले, ‘और उपाय भी क्या है बेटा! जो कुछ मुझसे बन पड़ेगा, करूँगा पर…’ और वे दीपू के सिर पर हाथ फेरने लगे।
इसके बाद अनेक हिदायतें, अनेक आदेश-पैसा हाथ में आते ही मकान बनवाना तुरंत शुरू कर देना… राजू, मीनू की फ़ीस माफ़ करवा लेना… सारे खर्चे में कटौती कर देना।

शारदा केवल सुनती रही। जिस घर में आज तक कोई भी काम उसकी इच्छा के खिलाफ नहीं हुआ… उसकी सलाह के बिना नहीं हुआ, वहाँ अब उसे केवल दूसरों के आदेशों पर चलना है। पहली बार उसे स्थिति की भयानकता का अहसास हुआ। पहली बार लगा कि उसके पति मर गए हैं… उसके सुख-चैन और अधिकारों की सीमा समाप्त हो गई है। रात शायद आधी से अधिक बीत गई है। चारों ओर निपट सन्नाटा, कहीं पत्ता तक नहीं हिल रहा। पर शारदा के मन में कैसा तूफ़ान उठा हुआ है। एक-दूसरे पर उभरते हुए दृश्य-एक-दूसर को काटते हुए वाक्य!नाटक समाप्त हो गया है। उत्पल दत्त प्रमुख अतिथि के रूप में भाषण दे रहे हैं। दीपक की अभिनय-कला…दीपक की प्रतिभा…दीपक के उज्जवल भविष्य की कामना! फिर प्रशंसा और बधाइयों का दौर ‘आपका बेटा बहुत बड़ा कलाकार बनेगा।’‘बनेगा? अरे, ही इज़ ए बॉर्न आर्टिस्ट!’दूसरे दिन सारे अखबारों में दीपक की फोटो… दीपक की सराहना! महेश बाबू घर-घर अख़बार दिखाते फिर रहे हैं।

पिछले तीन सालों में यह क्रम कई बार दोहराया गया है और हर बार महेश बाबू का पुलकित गद्गद स्वर :
‘जीनियस है तुम्हारा बेटा! देखना इतना नाम करेगा… इतना नाम करेगा कि…’‘लोग अपने बेटों को डॉक्टर, इंजीनियर बनाने के सपने देखते हैं… मेरा बेटा कलाकर बनेगा।’तापस बाबू कह रहे हैं-‘इस लड़के के बारे में ट्रेडीशनल ढंग से सोचने से काम नहीं चलेगा। इसे इस बार आप पूना भेजिए। अभिनय की ट्रेनिंग लेने के बाद फ़िल्मवाले लोग हाथों-हाथ उठा लेंगे… ये सब नामी एक्टर झक मारेंगे इसके सामने!’पिछले तीन नाटकों में कुंतल ही हीरोइन का रोल कर रही है। अक्सर घर आती रहती है। महेश बाबू रसभीनी आवाज़ में कहते हैं, ‘देख लेना, घर में भी यही हीरोइन बनकर आएगी।’ शारदा केवल मुस्कराती है।दीप की आँखों में कैसे-कैसे सपने तैरने लगे हैं। उसके सपनों की छाया हर किसी की आँखों में दिखाई देने लगी है। मीनू अपने दीपय्या को अमिताभ बच्चन समझने लगी है। दीपू की सफलता और यश से छाती फुलाए-फुलाए राजू अपने दोस्तों में हीरो बना घूमता है।एक नए नाटक की तैयारी हो रही है, दीपू को न खाने का होश है, न पीने का। पागलों की तरह उसमें जुटा है। गर्मी में थके-माँदे महेश बाबू ऑफ़िस से आकर ठेकेदार से सिर फोड़ने बैठते हैं-सीमेंट, लक्कड़-तो शारदा दीपू पर ही बरस पड़ती है-‘सारे दिन नाटक-नाटक, यह नहीं कि बाबू का थोड़ा-सा हाथ ही बँटा दो।’

दीपू कुछ कहे, उसके पहले ही महेश बाबू रोक देते हैं-‘अरे, उसे कहाँ इस पचड़े में डालती हो! यह सब क्या उसके बस का है?’और इन सारे दृश्यों और आवाज़ों को चीरता हुआ दीपू का दृढ़ निर्णयात्मक स्वर-‘मैं नौकरी करूँगा मामा।’शारदा के तन-मन को झकझोरता, मरोड़ता हुआ आवेग का एक गोला-सा उमड़ता है, फिर आँसुओं की बाढ़, हिचकियों का सैलाब…घर की ठप्प हो गई गाड़ी को किसी तरह गुड़काने का इंतजाम करके दूसरे दिन बड़े भैया चले गए।घर की गाड़ी घिसटती हुई जैसे-तैसे चल पड़ी।दीपू की नौकरी का पहला दिन! मीनू ने दीपय्या के कपड़ों पर इस्तरी की, राजू ने बाबू का ब्रीफकेस खाली किया, पर समझ ही नहीं आया कि इसमें आखिर रखे क्या; तो बाबू के ही कुछ कागज-डायरी रख दिए। कम-से-कम लगे तो कि ऑफिस जा रहे हैं। चलने से पहले पड़ोसन ताई ने आकर दीपू की बलैयाँ लीं, उसे दही-पेड़ा खिलाया।इस सारे आयोजन में बस शारदा ही जैसे आँख चुराती रही, सामने पड़ने से कतराती रही और जब दीपू चला गया तो इतनी देर से थमा हुआ मन का आवेगा आँसुओं के रूप में फूट पड़ा।‘यह क्या बहू, तुम तो खुशी के मौके को भी आँसुओं में सानकर मिट्टी कर देती हो। बेटा नौकरी पर गया, यह रोने की बात है भला? खैर मनाओ कि भगवान ने बिगाड़ा तो सब समेट भी लिया। किसके नसीबों में होते हैं ऐसे बेटे?’

शाम को दीपू की प्रतीक्षा में सब बैठे हैं! कैसा लगा दीपय्या?’ राजू उछलकर पूछता है। मीनू बढ़कर ब्रीफकेस रख देती है।‘लगता क्या? खूब अच्छा लगा। सब लोग खूब प्यार से बोलते-बतलाते रहे। मैनेजर साहब ने अपने पास बिठाकर चाय पिलाई।’ फिर चुटकी बजाते हुए बोला, ‘देखना अम्मा, यों काम सीखता हूँ। और हाँ…बड़े मज़े की बात हुई, मैं काम कर रहा था, पीछे से किसी ने आवाज़ दी, ‘मिस्टर अग्निहोत्री…मिस्टर अग्निहोत्री।’ यहाँ दीपूराम को पता ही नहीं कि उन्हें ही बुलाया जा रहा है।’ फिर आवाज़ को ज़रा-सी भारी बनाकर बोला, ‘सो अम्मा, अब तुम्हारा दीपू मिस्टर अग्निहोत्री बन गया है, समझीं!’सब चुप।तो बाबू की हू-ब-हू नक़ल करते हुए बोला, ‘मीनू बिटिया, एक कप चाय तो पिलाओ गरमागरम।’राजू-मीनू के चेहरों पर ज़रूर हल्की -सी मुस्कराहट आई, पर शारदा इस पर भी चुपचाप तरकारी काटती रही तो दीपू एकदम फट पड़ा :
‘अम्मा, बाबू की नक़ल करने पर तुमने मुझे डाँटा क्यों नहीं? क्यों नहीं हमेशा की तरह उठकर मेरी पीठ पर धौल जमाया?’ ।‘चाय के साथ क्या खाएगा, पराँठा बना दूँ?’
‘अब क्या तू दीपू है जो डाटूँ?’ अभी तूने ही तो कहा कि अबसे मैं मिस्टर अग्निहोत्री बन गया!’ रुँधे हुए कंठ से शारदा ने कहा और कुछ लेने के लिए उठकर भंडार-घर में चली गई।
‘नहीं अम्मा… नहीं! तुम बोलती नहीं, डाँटती नहीं… कुछ भी तो नहीं करतीं। तुम इस तरह रहोगी तो मुझसे भी कुछ नहीं किया जाएगा, बताए देता हूँ…हाँ।’हँसी-मज़ाक करके सबको बहुत सहज बनाने के प्रयास में दीपू खुद कहीं बहुत असहज हो गया।

शारदा भीतर गई तो वहीं घुटनों में सिर देकर बैठ गई। किससे बोले वह पहले की तरह? खाने के समय तरह-तरह की फर्माइशें करनेवाले और बने खाने में दुनिया भर की मीन-मेख निकालनेवाले ये बच्चे, बिना चूँ-चपड़ किए, दाल से रोटी निगल लेते हैं! इस बार कहने पर भी हर काम को टाल जानेवाली यह मीनू…बिना कहे उसके काम में हाथ बँटाती रहती है…करने-न-करने का सब कार्य करती रहती है! दिनभर में रुपया-दो रुपया झटककर ले जानेवाला राजू आँगन में बैठा-बैठा सिर्फ उड़ती हुई पतंगों को देखता रहता है। पढ़ाई और नाटक के सिवाय जिसने दीन-दुनिया के बारे में न कुछ जाना, न समझा, वही दीपू बाबू के रजिस्टरों से हिसाब-किताब समझने की कोशिश करता रहता है… अब से ऑफिस का काम जो किया करेगा!कितने अपरिचित हो उठे हैं उसके अपने बच्चे! उनसे क्या बोले, कैसे बोले? यह घर उसका है? जिसका आँगन शाम को हँसी-मज़ाक और नकलों से गूंजता रहता था। नाटकों के आधे रिहर्सल यहीं होते थे। रिहर्सल नहीं होता तो नक़लें उतारी जातीं। राजकपूर के संवाद.. दिलीपकुमार के संवाद… आँखें बंद कर लो तो पहचान नहीं सकते कि दीपू बोल रहा है या दिलीपकुमार। कॉलेज के लेक्चरर्स की नक़ल होती… पड़ोस के बूढ़ों की नकल होती और फिर एक दिन बाबू की नकल उतरी! हू-ब-हू वही आवाज़, वही लहजा। राजू, मीनू हँसते-हँसते लोटपोट! शारदा ने हँसी भीतर ही घोटते हुए पीठ पर धौल जमाया-‘बस, अब बाप की ही नकल उतारा कर, बेशरम कहीं के!’

‘पीठ ठोकी है न, बहुत अच्छी नक़ल करने के लिए? अरे अम्मा, जीनियस है तुम्हारा बेटा, जीनियस। अम्मा, अगर कोई बढ़िया मेकअप कर दे तो बाबू का रोल ऐसे अदा करूँ कि तुम पहचान ही न सको कि दीपू कौन और बाबू कौन?’दीपू पार्ट याद कर रहा है। नाटक की एक प्रति राजू को पकड़ा दी-‘डॉक्टर वाला पार्ट तू बोलता चल!’ पाँच मिनट बाद ही दीपू बिगड़ पड़ता है-अरे यार राजू, दो डायलॉग तक तू ठीक से नहीं बोल सकता… गधा कहीं का!’राजू कापी हवा में उछाल देता है-‘मुझे कौन तुम्हारी तरह एक्टर बनना है, मैं तो डॉक्टर बनूँगा।’‘हूँ???, बनेगा डॉक्टर! डॉक्टर की एक्टिंग तक तो की नहीं जाती, असली डॉक्टर बनेगा! शकल देखो इनकी!’
राजू को शिकायत है बाबू से-जब देखो, दीपय्या की तारीफ करते रहते हैं। उनकी बात करते रहते हैं-दीपू को यह बनाना है, दीपू ये करेगा… जैसे हम तो कुछ हैं ही नहीं।रूठे हुए राजू को बाबू अपने पास खींच लेते हैं-‘देख भैया, मैं दीपू को एक्टर बना दूं तो दीपू तुझे डॉक्टर बना देगा। अरे, किसी फ़िल्म में दाँव लग गया न… और अब लगा ही समझ… तुझे बाहर भेजेगा मेडिकल के लिए!’
राजू को एक गोदी में बैठा देखकर मीनू दूसरी गोदी में जा लदती है। शारदा डपटती है-‘यह उमर है तुम लोगों की गोदी में लदने की? बड़े-बड़े धींगड़े हुए…’
‘माँ-बाप के लिए भी बच्चों की कोई उमर होती है…’और बच्चों पर बरसता हुआ महेश बाबू का लाड़ सारे आँगन में महकने लगता।

दिन में लू से झुलसता हुआ और रात को उमस भरी मायूसी में डूबा रहनेवाला यह आँगन, उसके अपने घर का आँगन है?

कोई दो सप्ताह बाद दीपू का रिजल्ट आया। फ़र्स्ट डिवीज़न! मायूसी में लिपटी खुशी का एक हलका-सा अहसास सबके मन में जगा और बिला गया।बड़े मामा का पत्र आया। बधाई और आशीर्वाद के बाद लिखा था-इस ख़बर से जो सबसे ज्यादा खुश होता है, गर्व करता, वह तो आज हमारे बीच है नहीं, फिर भी तुम अपना रिज़ल्ट ऑफिस में बता देना। मैनेजर साहब यह न समझें कि उन्होंने केवल कृपा ही की है… एक योग्य व्यक्ति को ही काम दिया है।…पी.एफ. के पैसे के लिए पीछे लगे रहना। मिलते ही मकान का काम शुरू करवा देना। सबसे ज़्यादा चिंता मुझे मकान की ही है। वह बन जाएगा तो तुम लोगों का आधा संकट टल जाएगा। मैं जल्दी ही आने की कोशिश करूँगा।कल भास्कर, कपिल और दुबे आए थे, पर शायद संकोचवश असली बात नहीं कर पाए। आज तापस बाबू खुद आए हैं। तुरुप का पत्ता हाथ में लेकर-कुंतल। स्थिति की नज़ाकत को समझते हैं इसलिए स्वर में संकोच ज़रूर है, पर आग्रह जैसा कुछ नहीं। मिठास में लिपटा आदेश ही है-‘अब रिहर्सल में आना शुरू करो। दिल्ली में होनेवाले ऑल इंडिया कॉम्पिटीशन के लिए एंट्री भेज चुके हैं। समय बहुत कम रह गया है।’शारदा के चेहरे पर घिर आई भय की हलकी-सी छाया को उनकी तेज़ आँखें भाँप लेती हैं।
‘आप चिंता न करें भाभी! पहले की तरह रात-दिनवाले रिहर्सल अब नहीं होंगे। दीपू ऑफिस के बाद ही आया करेगा।’फिर एक क्षण रुककर बोले, ‘इसे नाटक से कटने मत दीजिए वरना… आप तो जानती हैं, नाटक ही इसका प्राण है। ऑफिस का काम जितना ज़रूरी है, नाटक का काम भी उतना ही ज़रूरी है।’

तापस और कुंतल दीपू को अपने साथ ही ले गए। शारदा जानती है नाटक दीपू के लिए काम नहीं हैं-नशा है। जब चढ़ता है, तो भूत की तरह सवार हो जाता है, फिर उसे दीन-दुनिया किसी का होश नहीं रहता। शारदा जब कभी-कभी इसे पागलपन कहती थी तो महेश बाबू कहा करते थे :‘यह लगन है शारदा, लगन! कहाँ होती है इस उमर के बच्चों में ऐसी लगन! फिर बिना लगन को कोई बड़ा काम होता है भला…’
लेकिन अब यदि दीन-दुनिया को भूल गया तो? और दीन-दुनिया के चक्कर में नाटक से कट गया तो?
और इन दो ‘तो’ की जकड़ में शारदा का मन ऐंठने लगता है।दूसरे दिन शारदा उठी तो देखा, दीपू आँगन में टहल-टहलकर कुछ पढ़ रहा है।‘इतनी सवेरे-सवेरे उठकर क्या पढ़ रहा है?’‘अपना पार्ट याद कर रहा हूँ। सचमुच तापस दा ने बहुत बढ़िया नाटक लिखा है। यह रोल करने के बाद देखना अम्मा, हल्ले हो जाएँगे दीपक अग्निहोत्री के…’और शाम को ऑफ़िस से आते ही ब्रीफकेस, जूता-मोज़ा अलग-अलग दिशाओं में उछले, ‘आ जाओ राजू, मीनू, रिहर्सल शुरू। अम्मा, तुम बैठकर देखना!’राजू, मीनू, दूसरे पात्रों के संवाद पढ़ रहे हैं और दीपू अपने! इतने दिनों से शारदा के चेहरों की रेखाओं का तनाव अपने-आप पिघलने लगा और घर पर फैले अवसाद की एक परत जैसे किसी ने हटा दी!
पहली तारीख!
दीपू ने शारदा के हाथ में तनख्वाह रखते हुए, ‘ये मेरे पंद्रह दिन की तनख्वाह के दो सौ रुपए और ये बाबू की पाँच दिन की तनख्वाह के ढाई सौ रुपए! वाह रे दीपू मास्टर, क्या क़ीमत है तुम्हारी!’
फिर एकदम गंभीर होकर बोला, ‘अम्मा, अब से इन्हीं रुपयों में घर चलाना। सब कटौती कर दो। पी.एफ. का चेक भी कल मिल जाएगा। बस, दो दिन बाद से मकान शुरू। राजू को भेजकर मिश्रा काका को बुलवा लो…आकर अपनी ठेकेदारी सँभाले!’रुका हुआ मकान फिर से बनने लगा। मजदूरों की आवाजाही…ठेकेदार मिश्राजी की गुहार-पुकार!शाम को दीपू आया तो मिश्राजी ने कहा, ‘भैया, चलकर मजदूरों को मज़दूरी बाँट दो और आज का हुआ काम भी ज़रा नज़र से गुज़ार दो। मज़दूरी तुम बाँटो…सामान तुम लाकर दो। काम देखो, और कसर हो तो हमें बताओ।’‘पर काका, मैं कुछ जानता नहीं, समझता नहीं…यह सब मुझसे कैसे होगा?’‘होगा कैसे नहीं? महेश बाबू करते थे कि नहीं?’
‘पर मैं तो बाबू नहीं हूँ, काका…’‘हमारे लिए तो भैया, तुम्हीं महेश बाबू हो और हो क्यों नहीं? जिस दिन महेश बाबू की पगड़ी सिर पर धर ली, उसी दिन महेश बाबू बन गए।’और उन्होंने सामान की एक लिस्ट पकड़ाते हुए कहा-तुम खाँची लो, हम साथ चलेंगे और सब सामान दिलवा देंगे। चार दिन में तुम खुद लायक बन जाओगे!’और आठ बजे के करीब दीपू जब लोहा-लक्कड़, कील-काँटों की दुकानों के चक्कर लगाकर लौटा तो एकदम पस्त हो चुका था।‘काका, रोज़-रोज़ अब क्या मुझे यही सब करना पड़ेगा?’
‘अरे भैया, अपने मरे बिना भी कहीं स्वर्ग दिखा है?’और मिश्रा काका ने कोई दस दिन में दीपू को स्वर्ग दिखा दिया।

रुका हुआ मकान फिर से बनना शुरू हो गया, पर जो नाटक शुरू हुआ था, वह जहाँ का तहाँ रुक गया।
मामा आए तो गद्गद्। मकान का मुआयना करने के बाद बड़े संतुष्ट भाव से दीपू की पीठ थपथपाते रहे।
‘शारदा, तेरा बेटा तुझे पार लगा देगा। कितनी होशियारी से सारा काम सँभाल लिया। लगता ही नहीं कि महेश बाबू नहीं…’ फिर जाने क्या सोचकर वाक्य अधूरा ही छोड़ दिया।राजू-मीनू के स्कूल खुल गए तो उनकी जिंदगी फिर लौट आई। नई कक्षाओं में जाने का उल्लास। नई किताबें खरीदने का उत्साह। हमउम्र साथियों का साथ।
पर दीपू! शारदा बोलती कुछ नहीं, सिर्फ देखती है-महेश बाबू के कमरे में बैठकर सवेरे-सवेरे ऑफिस की फाइलों में डूबे हुए दीपू को…ऑफिस जाते हुए दीपू को…मिश्रा काका के साथ मगज़ मारते हुए दीपू को…ट्रक से भरी सीमेंट की बोरियाँ उतरवाते हुए तो कभी ईंटें गिनकर रखवाते हुए दीपू को! रात में देर तक हिसाब लिखते हुए दीपू को।और उसके मन में जाने क्या कुछ कचोटता रहता है। रह-रहकर एक घटना मन में उभर आती है।वह रसोई में कुछ काम कर रही थी कि बाहर से दीपू के खाँसने की आवाज़ आई। खाँसी क्या, जैसे खाँसी का दौरा ही पड़ा हो। शारदा झपटकर बाहर आई। घुटनों में पेट दबाए, हथेलियों में माथा थामे, दीपू खाँस रहा है-बुरी तरह। चेहरा लाल, आँखों में आँसू…, खाँसी क्या, लगता था, अंतड़िया ही बाहर निकल आएंगी।सकते में आई शारदा पीठ मलने लगी, कब हुई तुझे ऐसी खाँसी…पहले तो कभी नहीं सुनी!’
घबराहट के मारे उसकी अपनी आँखों से आँसू आ गए। खाँसते-खाँसते कहीं साँस ही न उखड़ जाए दीपू की।
दो मिनट तक शांत रहकर दीपू ने अपने को साधा, फिर झटके से खड़े होकर हँसता हुआ बोला, ‘रिहर्सल…रिहर्सल…’‘क्या..!’ फटी-फटी आँखों से उसकी ओर देखती हुई शारदा चीखी।‘एक बूढ़े, भयंकर दमे के मरीज़ का रोल करना है, समझी।’फिर सामने हँसता हुआ बोला, ‘मानती हो अब तो तुम्हारा बेटा जीनियस है।’‘जीनियस की दुम! प्राण ही निकल गए मेरे तो।’‘इसका मतलब मेरी ऐक्टिंग कमाल की।’ लाड़ में आकर दीपू ने अपनी दोनों बाँह माँ के गले में डाल दी और हँसने लगा।

दीपू की हँसी से एक क्षण पहले का तनाव झटके से गायब हो गया और सब-कुछ सहज हो गया।पर अब न तो कोई झटका लगता है, न ही कुछ सहज होता है।ईंट पर ईंट धरी जाने लगीं और दूसरे तल्ले की दीवारें ऊपर उठने लगीं, लेकिन नीचेवाला तल्ला जैसे और नीचे धसकने लगा।पंद्रह सौ में चलनेवाली गृहस्थी को कुल चार सौ में चलाना कोई आसान काम नहीं था। बरसों की आदतें अंकुश लगाने पर भी दगा दे जातीं। जब तक कड़की का कोड़ा नहीं पड़ा था, सबका मन एक-दूसरे के लिए उमड़ता रहता था, एक-दूसरे को सँभालता रहता था, लेकिन अब? ‘अम्मा, तुमने दो सौ रुपए पी.एफ. के रुपयों में से खर्च कर दिए?’‘क्या करती? राजू, मीनू की किताबें…मीनू की दो जोड़ी यूनिफार्म…’‘यह सब मुझे बताने की ज़रूरत नहीं है, बीच में ही बात काटकर दीपू तेज़ी से कहता, ‘बस, इतना जान लो कि इस पैसे को छुओगी भी नहीं। जानती हो, मिश्रा काका के बताए हिसाब से तो बाबू के इन रुपयों से भी मकान पूरा नहीं होगा और तुम हो कि…कहाँ से आएगा रुपया?’

‘मुझे क्या कहते हो, सब अपने पेट पर पट्टियाँ बाँध लो!’ शारदा का दो टूक जवाब।
और खर्च कम करो। दूध बंद, खाने में कटौती। साठ की जगह पच्चीस पावर के बल्ब…पर इस दमतोड़ महँगाई में खर्चा है कि चलता ही नहीं और न-न करके भी सौ-पचास रुपए मकान के रुपयों में से निकल जाते हैं।दीपू खीजता है…चिल्लाता है, फिर हताश हो जाता है, पर जब शारदा हताश होती है तो हौसला बँधाता है, ‘बस, कुछ ही महीनों की बात है अम्मा, मकान खत्म होते ही नीचे का मकान किराए पर उठा देंगे। छह सौ न मिले तो साढ़े पाँच सौ तो कहीं नहीं गए। ऊपर का तीन कमरोंवाला सेट तीन सौ में और दो वाले में रहेंगे। बस, फिर पहले जैसे ठाट!’और यह हवाई आश्वासन ही आठ-दस दिनों के लिए सबके मन का पैनापन काट देता है। राजू-मीनू अपनी ज़रूरत की चीज़ों की सूची कुछ महीनों के लिए स्थगित कर देते…शारदा फिर कतर-ब्यौंत में लग जाती। चार महीनों में दीवारें उठ गईं…छत भी पड़ गई, पर रुपया ख़त्म।
बनता मकान फिर ठप्प हो गया। दीपू परेशान। उसे क़र्ज़ भी कौन देगा? बस, मामा का ही भरोसा है। उसके आश्वासन-भरे पत्र आते–‘पूरी कोशिश कर रहा हूँ, इंतज़ाम होते ही रुपया भेजूँगा।’पर रुपए नहीं आते!
मकान बन रहा था तो सबके पास जैसे अपनी उम्मीदें टिकाने का एक सहारा था। वह बंद हुआ तो गहरी निराशा ने सबको बुरी तरह काट दिया…अपने भीतर से भी…आपस में एक-दूसरे से भी।

राजू, दीपू की अनुपस्थिति में खुले-आम चिल्लाता, मकान..मकान। गाड़ दो हमें इस मकान में। सारा रुपया इन दीवारों में फूँक दिया…
शारदा झिड़कती तो उसे भी टके-सा जवाब पकड़ा देता। दीपू ऑफिस से आकर राजू-मीनू को नहीं देखता तो पूछता है‘कहाँ जा रहे हैं ये आजकल रोज़-रोज़?’‘पड़ोस में!‘जब देखो वहाँ घुसे रहते हैं। पढ़ना-लिखना नहीं रहता इन्हें?’शारदा चुप रह जाती, पर राजू चुप नहीं रहता, ‘पढ़ना-लिखना। इन दीयों जैसे चुंधे बल्बों में पढ़ सकता है भला कोई? किताबें हैं हमारे पास जो पढ़ लें?’दीपू तमतमाकर रह जाता।
राजू थाली सरकाकर उठ जाता है, ‘रोज़-रोज़ वही आलू की रसेदार सब्जी और सूखी रोटी, नहीं खाना हमें।’ मीनू आजकल उसकी चेली हो रही है, वह भी उठ जाती है।‘खैर मनाओ कि यह भी खाने को मिल रहा है, वरना भीख मांगते नज़र आते।’‘माँग लेंगे भीख! तुम लोग ताजमहल चिनाओ बैठकर।’
शारदा गुस्से से थरथराते हाथ को थाम लेती है किसी तरह, पर आँखों से जैसे अंगारे बरसने लगते हैं।
रात नौ बजे राजू और मीनू घर में घुसे।‘कहाँ गए थे?’ प्रश्न की बंदूक दगी।