pootana ka uddhaar - mahabharat story
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पापी कंस जान चुका था कि उसके काल ने जन्म ले लिया है। उसने उसी समय पूतना नामक राक्षसी को बुलवाया। पूतना ने ही अपना दूध पिलाकर कंस का पालन-पोषण किया था, इसलिए कंस में दैत्य-गुणों का समावेश था। पूतना भयंकर गर्जन करती हुई कंस के सामने उपस्थित हुई।

कंस प्रसन्न होकर बोला‒ “पूतना! मायावी और कपटी विष्णु बालक के रूप में जन्म ले चुका है, किंतु इस समय वह कहां और किसके पास है, इस विषय में हम पूर्णतः अनभिज्ञ हैं। हम केवल यह जानते हैं कि वह हमारे किस शत्रु के घर उत्पन्न हुआ है। अतः तुम तत्क्षण जाओ और हमारे अधीन जितने भी नगर और गांव हैं, वहां जन्मे प्रत्येक बालक का वध कर दो।”

पूतना अट्टहास करते हुए बोली‒”राजन! आप निश्चिंत रहें। मैं आपके शत्रु बालक का वध कर आपको काल के भय से मुक्त कर दूंगी।”

यह कहकर पूतना वहां से चली गई।

कंस की आज्ञा से वह नगरों, गांवों और कस्बों में घूम-घूमकर नवजात शिशुओं का वध करने लगी। इस प्रकार वह गोकुल जा पहुंची। उसने एक सुंदर युवती का वेश धारण कर रखा था। इधर-उधर बच्चों को ढूंढती हुई वह नंद के घर में घुस गई। उस समय श्रीकृष्ण सो रहे थे। यशोदा, रोहिणी और गोकुल की अन्य महिलाएं कक्ष के बाहर बैठी हुई थीं। पूतना भी उनमें घुलमिल गई।

अभी वे परस्पर वार्तालाप कर ही रही थीं कि श्रीकृष्ण जाग गए और उच्च स्वर में रोने लगे। वे पूतना के विषय में जानते थे, इसलिए उसका उद्धार करने के लिए ही उन्होंने यह लीला रची थी। उनके करुण रुदन को सुनकर यशोदा सहित समस्त गोपियां कक्ष के अंदर दौड़ीं। पूतना भी उनके पीछे-पीछे आ गई। उस समय श्रीकृष्ण का मुखमण्डल दिव्य-तेज से आलोकित हो रहा था। उन्हें देखते ही पूतना समझ गई कि यही बालक कंस का काल है।

जब बालक कृष्ण किसी भी प्रकार से चुप नहीं हुए तो पूतना ने यशोदा से आग्रह कर उन्हें अपनी गोद में ले लिया। श्रीकृष्ण इसी अवसर की प्रतीक्षा में थे। वे पूतना की गोद में शांत होकर खेलने लगे। तब वह उन्हें एक अन्य कक्ष में ले गई और उन्हें स्तनपान कराने लगी। पूतना के स्तन में भयंकर विष लगा हुआ था, किंतु श्रीकृष्ण आनन्दपूर्वक दुग्धपान करने लगे।

धीरे-धीरे वे दूध के साथ-साथ पूतना के प्राण भी खींचने लगे। पूतना का मुख पीड़ा से भर गया। वह उन्हें दुलारते हुए अपने से दूर करने का प्रयास करने लगी, किंतु उन्होंने उसे नहीं छोड़ा। फिर यशोदा और गोपियों के देखते-ही-देखते पूतना एक भयंकर राक्षसी में परिवर्तित हो गई और पीड़ा से छटपटाते हुए उसने प्राण त्याग दिए। यशोदा ने पूतना के विशाल वक्ष से श्रीकृष्ण को उतारकर अपने हृदय से लगा लिया और विभिन्न प्रकार से भगवान विष्णु के प्रति आभार प्रकट करने लगी।