Bhagwan Vishnu Katha: द्वापर युग की बात है-पापकर्म इतने बढ़ गए कि पृथ्वी उनके बोझ तले दबकर छटपटाने लगी । उसे असीम कष्ट हो रहा था । भयभीत होकर वह गाय के रूप में आंसू बहाती हुई ब्रह्माजी और देवगण के साथ वैकुण्ठ लोक पहुँची और श्रद्धापूर्वक भगवान् विष्णु की स्तुति की ।
उनकी स्तुति से गरुड़ध्वज भगवान् विष्णु प्रसन्न हो गए । ब्रह्मादि को उन्होंने दर्शन दिए और वहाँ आने का प्रयोजन पूछा । ब्रह्माजी बोले – “ प्रभु ! पृथ्वी अत्यंत दु:खी है । पूर्व समय में संकट आने पर आपने वराह अवतार लेकर इसका उद्धार किया था । यह पुन: आपकी शरण में है । प्रभु ! द्वापर समाप्त हो रहा है । आप भूमण्डल पर पधारें और दुष्ट राजाओं का संहार करके इसका भार हरने की कृपा करें ।”
भगवान् विष्णु बोले – “देवगण ! मैं दुष्टों का संहार करके पृथ्वी का उद्धार अवश्य करूँगा । मेरे हाथों कंस जरासंध कालयवन जैसे सभी दुष्ट और पापी मारे जाएँगे । हे देवगण ! आप सब भी अपने-अपने अंशों से अपनी शक्तिसहित धरती पर अवतार धारण करें । मेरे अवतार लेने से पूर्व कश्यप मुनि अपनी पत्नी सहित यदुकुल में जन्म लेकर वसुदेव नाम से प्रसिद्ध होंगे । शेषनाग बलराम के रूप में कश्यप मुनि की दूसरी पत्नी के गर्भ से जन्म लेंगे । देवकी के गर्भ से मैं कृष्ण नाम से जन्म लूँगा । मेरे द्वारा तुम्हारे सभी कार्य सिद्ध हो जाएँगे । कुरुक्षेत्र के मैदान में मैं उद्दण्ड क्षत्रियों का संहार करूँगा । पृथ्वी के उद्धार के बाद समस्त देवगण अपने अपने लोक को लौट जाएँगे । “ यह सुनकर पृथ्वी समय की प्रतीक्षा करने लगी ।
वह समय जल्दी ही आ पहुँचा । उन दिनों मथुरा में ययाति वंश के एक प्रसिद्ध राजा उग्रसेन राज्य करते थे । राजा उग्रसेन के पुत्रों में सबसे बड़ा पुत्र कंस था । ब्रह्माजी के शाप से कश्यप ऋषि भी राजा शूरसेन के पुत्र बनकर मथुरा में पधारे । वे वसुदेव के नाम से प्रसिद्ध हुए । दिति के शाप के कारण अदिति भी वसुदेव की अनुगामिनी बनकर देवकी के नाम से वहाँ उत्पन्न हुईं । देवकी ने कंस की चचेरी बहन के रूप में जन्म लिया । देवकी के युवा होने पर उसका विवाह वसुदेव के साथ सम्पन्न हुआ ।
कंस अपनी बहन देवकी को बड़ा प्रेम करता था । उसके विवाह के बाद विदाई के समय वह स्वयं उसके रथ का सारथि बना और रथ को महल से ले जाने लगा । तभी आकाश में भयंकर गर्जना हुई और एक आकाशवाणी सुनाई दी – “हे कंस ! जिस देवकी को तू इतने प्रेम से विदा कर रहा है, उसी का आठवाँ पुत्र तुम्हारा काल होगा । उसके हाथों तुम निश्चित मृत्यु को प्राप्त होगे ।”
आकाशवाणी सुनकर कंस चिंतित हो उठा । उसने तलवार उठा ली और देवकी को मार डालना चाहा । यह घटना देखकर चारों ओर हाहाकार मच गया । वसुदेव का साथ देने वाले अनेक योद्धा युद्ध करने के लिए उद्यत हो गए । तब वसुदेव बोले – “भ्राता कंस ! निरपराध देवकी को दण्ड न दो । मैं वचन देता हूँ हमारे बच्चों के जन्म लेते ही मैं स्वयं उन्हें तुम्हें सौंप दूँगा ।”
वसुदेव सदा सत्य बोलते थे, इसलिए कंस ने उनकी बात पर भरोसा कर लिया । उनके समझाने पर कंस का क्रोध शांत हो गया । लेकिन उसने दोनों को कारागार में डलवा दिया और वहाँ सख्त पहरा लगवा दिया ।
समय व्यतीत होता रहा । उचित समय आने पर देवकी ने प्रथम पुत्र को जन्म दिया । प्रतिज्ञा में बँधे वसुदेव ने उसे कंस के हवाले कर दिया । दुष्ट कंस ने एक चट्टान पर पटककर उसे मार दिया । इस प्रकार उसने देवकी के छः पुत्रों को मार डाला ।
एक बार देवकी बहुत दु:खी थी । वसुदेव उसे अनेक प्रकार से समझा रहे थे । तभी देवर्षि नारद वहाँ प्रकट होकर बोले – “देवकी ! शोक मत करो । तुम्हारे इन बालकों के भाग्य में यही लिखा था । पूर्वजन्म में ये सभी देवता थे । एक बार किसी बात से क्रुद्ध होकर ब्रह्माजी ने उन्हें दैत्य योनि में उत्पन्न होने का शाप दिया था । इस कारण अगले जन्म में वे दैत्य हिरण्यकशिपु के पुत्र बनकर उत्पन्न हुए । तब उन्होंने कठोर तप करके ब्रह्माजी को प्रसन्न किया और उनसे इच्छित वर प्राप्त किया । इस बात से दैत्य हिरण्यकशिपु कुपित हो गया और उसने उन्हें शाप दे दिया था कि वे बारी-बारी तुम्हारे गर्भ से उत्पन्न होकर कंस के हाथों मृत्यु को प्राप्त होंगे । अतः हे देवकी! उसी शाप के कारण तुम्हारे इन छः पुत्रों की मृत्यु हुई । इसमें किसी का भी दोष नहीं है । उनके लिए शोक मत करो ।” इस प्रकार समझाकर नारदजी चले गए ।
देवकी के सातवीं बार गर्भवती होने पर शेषनाग अपने अंश से उसके गर्भ में पधारे । भगवती दुर्गा की माया से देवकी का वह गर्भ वसुदेव की दूसरी पत्नी रोहिणी के उदर में स्थापित हो गया, जिससे बलराम ने जन्म लिया और मथुरा में देवकी का गर्भ गिरने की बात फैल गई । यह समाचार सुनकर कंस ने सोचा कि चलो रास्ते का काँटा अपने आप निकल गया ।
देवकी जब आठवीं बार गर्भवती हुई तो कंस सावधान हो गया । काल के भय से उसकी चिंता और बढ़ गई । उसने देवकी और वसुदेव की पहरेदारी और सख्त कर दी । उचित समय आने पर श्रीविष्णु अपने अंश रूप में देवकी के गर्भ में स्थापित हो गए । देवताओं ने आकर उनकी स्तुति की ।
जैसे-जैसे दिन निकट आते गए, वैसे-वैसे कंस की चिंता बढ़ती गई । भय से उसका शरीर दुर्बल हो गया । उसे कहीं भी शांति नहीं मिलती थी । उसने पहरा और कठोर करने का आदेश दे दिया ।
भाद्रपद महीने के कृष्णपक्ष में अष्टमी तिथि को जब रोहिणी नक्षत्र का प्रवेश हुआ तब आधी रात को देवकी ने पुत्र को जन्म दिया । दिव्य-प्रकाश से वह बालक प्रकाशमान हो रहा था । वसुदेव ने प्रेमपूर्वक बालक को उठा लिया और उसे दुलारने लगे । तभी आकाशवाणी हुई – “वसुदेव ! तुम इस बालक को लेकर गोकुल जाओ । वहाँ इसे नंद के घर में छोड़कर यशोदा से उत्पन्न कन्या को यहाँ ले आओ ।”
आकाशवाणी सुनकर वसुदेव पुत्र को लेकर गोकुल की ओर चल पड़े । भगवान् की लीला से सभी पहरेदार गहरी नींद में सो गए थे और कारागार के द्वार अपने आप खुल गए थे । यमुना तट पर पहुँचकर उन्होंने देखा, बाढ़ उफान पर है । वसुदेव भगवान् विष्णु का स्मरण करने लगे । जिससे यमुना का जल शांत हो गया और वे यमुना पार कर गोकुल पहुँच गए । चारों ओर ऐसा प्रतीत हो रहा था मानो सम्पूर्ण जगत् अचेत हो गया हो ।
उसी समय नन्द की पत्नी यशोदा के गर्भ से कन्या के रूप में देवी योगमाया प्रकट हुईं जिन्होंने देवताओं का कार्य सिद्ध करने के लिए जन्म लिया था । वसुदेव ने कन्या को यशोदा के निकट से उठाया और श्रीकृष्ण को उनके निकट सुला दिया । फिर जैसे आए थे वैसे ही वापस आकर उसे देवकी के निकट लिटा दिया ।
थोड़ी देर बाद उस कन्या ने उच्च स्वर में रोना आरम्भ कर दिया । रुदन सुनकर सैनिक जाग गए । उन्होंने कंस को सूचना दी । वह दौड़ा-दौड़ा कारागार में पहुँचा और वसुदेव से उनका पुत्र माँगा ।
वसुदेव की आँखों से आँसू बह निकले । उन्होंने दु:खी मन से कन्या कंस को सौंप दी । कंस आश्चर्य में पड़ गया और सोचने लगा – “आकाशवाणी ने पुत्र होने की बात कही गई थी । देवर्षि नारद ने भी देवकी के आठवें पुत्र को मेरा काल कहा था । किंतु यह कन्या? देवताओं ने अवश्य कोई छल किया है मेरे साथ ।”
यह सोचकर कंस ने कन्या को मार डालने का निश्चय किया । उसने क्रूरता से उसे एक चट्टान पर पटका, किंतु वह उसके हाथ से छूटकर आकाश में चली गई । वहाँ उसने दिव्यरूप धारण कर लिया और बोली – “पापी कंस ! मुझे मारकर तेरा कोई प्रयोजन सिद्ध नहीं होगा । तेरा काल तो जन्म ले चुका है । उसका अहित करना तेरे वश की बात नहीं है । वह तेरा अंत अवश्य करेगा ।” यह कहकर कन्या अन्तर्धान हो गई ।
कंस चिंतित हो गया । उधर गोकुल में नन्द के घर में पुत्रोत्सव मनाया जा रहा था । बालक का नाम श्रीकृष्ण रखा गया । नन्द वसुदेव का मित्र था और वसुदेव की पहली पत्नी रोहिणी भी गोकुल में थी । इसलिए कंस को संदेह हुआ कि वह बालक ही विष्णु का अवतार और उसका काल है । तब उसने वकासुर, धेनुकासुर, वत्सासुर, पूतना, प्रलम्ब आदि दैत्यों को श्रीकृष्ण का वध करने भेजा । किंतु वे सब श्रीकृष्ण के हाथों मारे गए । गोकुल में रहकर श्रीकृष्ण ने अनेक बाल लीलाएँ कीं । यहीं उनका मिलन राधा से हुआ, जिसके साथ रास लीला करके उन्होंने जगत् को नि स्वार्थ प्रेम का संदेश दिया ।
अपने सभी दैत्यों की मृत्यु से कंस को विश्वास हो गया कि उसका काल श्रीकृष्ण के रूप में ही उत्पन्न हुआ है । तब उसने धनुष यज्ञ का आयोजन किया । यज्ञ देखने के बहाने उसने अक्रूर से श्रीकृष्ण और बलराम को मथुरा बुलवा लिया । मथुरा में श्रीकृष्ण ने धनुष यज्ञ में रखे धनुष को तोड़ दिया । उन्होंने बलराम के साथ मिलकर कुवलयपीड् नामक हाथी और चाणूर, रजक, शल, तोशल, एवं मुष्टिक आदि दैत्यों को मौत के घाट उतार दिया । कंस ने कुद्ध होकर श्रीकृष्ण को मल्ल युद्ध के लिए ललकारा । मल्ल युद्ध में श्रीकृष्ण ने कंस को भूमि पर पटक दिया और मुष्टि प्रहार से उसे समाप्त कर दिया । उसके मरते ही चारों ओर श्रीकृष्ण की जय- जयकार होने लगी । बाद में श्रीकृष्ण ने अपने माता, पिता और नाना को कारागार से मुक्त करवाया और उग्रसेन को पुन: मथुरा की राजगद्दी पर बिठा दिया ।
ये कथा ‘पुराणों की कथाएं’ किताब से ली गई है, इसकी और कथाएं पढ़ने के लिए नीचे दिए गए लिंक पर जाएं – Purano Ki Kathayen(पुराणों की कथाएं)
